राजीव मल्होत्रा का कॉलम:नस्लवाद के सिद्धांत से भारत को बांटने की कोशिशें जारी
लगभग बारह वर्ष पूर्व मैंने एफ्रो-दलित सिद्धांत का तब प्रतिकार किया था, जब वह अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही था। इस सिद्धांत के अनुसार दलित भारत के अश्वेत (ब्लैक) हैं और गैर-दलित श्वेत (वाइट) हैं। ऐसा मानकर यह सिद्धांत दावा करता है कि भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था नस्लवाद (रेसिज़्म) के समतुल्य है। अपनी पुस्तक ‘ब्रेकिंग इंडिया’ में मैंने अमेरिका से संचालित और आर्थिक रूप से पोषित इस एफ्रो-दलित परियोजना की कार्यप्रणाली को समझाया था।
यह परियोजना अमेरिकी नस्लवाद के सिद्धांत के उपयोग द्वारा भारत के सामाजिक मतभेदों को भड़काकर हमारे देश को विखंडित करना चाहती है। इस पर भारतीयों को प्रतिक्रिया देनी चाहिए कि दमन का इतिहास वास्तविकता में किसी अन्य निष्कर्ष की ओर संकेत करता है। जिस प्रकार श्वेत अमेरिकियों द्वारा अश्वेतों का शोषण किया गया, उसी प्रकार भारत में हिंदुओं का शोषण हजार वर्ष तक विदेशी आक्रांताओं और यूरोपियों ने उपनिवेशीकरण द्वारा किया।
हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और इतिहास के बारे में अमेरिका के अश्वेतों को समझाकर, उनके साथ मिलकर एक समान आधारभूमि खोजनी चाहिए थी। इसाबेल विल्करसन एक प्रमुख अश्वेत विद्वान हैं। कुछ समय पूर्व उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसमें एफ्रो-दलित समुदाय को विश्व में उत्पीड़ित वर्गों के केंद्रबिंदु के रूप में दर्शाया। ‘कास्ट : दि ओरिजिन्स ऑफ अवर डिस्कंटेंट्स’ शीर्षक वाली यह पुस्तक घोषणा करती है कि अनेक प्रकार के नस्लवादों में कास्ट (भारतीय जाति-वर्ण व्यवस्था के अर्थ में) केवल एक प्रकार मात्र नहीं है।
कास्ट तो वह रीढ़ की हड्डी है, जिस पर सम्पूर्ण रेसिज़्म का सिद्धांत खड़ा है। उनका मानना है कि अंग्रेज कास्ट की धारणा को वैदिक ग्रंथों से सीखकर अमेरिका में ले गए और फिर उसके आधार पर उन्होंने अमेरिका में अश्वेतों के विरुद्ध रेसिज़्म का ढांचा खड़ा किया। यह पद्धति यूरोप में भी फैली, जिसके फलस्वरूप नाजियों द्वारा यहूदियों का जनसंहार (होलोकॉस्ट) हुआ।
इस प्रकार विल्करसन यह अटपटा दावा करती हैं कि विश्व में रेसिज़्म का मूल कारण भारत की जाति-व्यवस्था है। उनके द्वारा तर्क दिया जाता है कि जाति कर्म सिद्धांत के कारण अमिट रूप से हिंदू धर्म के साथ जुड़ी है। मुझे भारत के दलितों और अमेरिका के अश्वेतों से सहानुभूति है। लेकिन विल्करसन की मान्यता से मुझे यह समस्या है कि यह अमेरिकी इतिहास के चश्मे का उपयोग करके दलितों से संबंधित मुद्दों को देखने का प्रयास करती है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था का इतिहास बहुत जटिल है और इसे ऐसे एकांगी विश्लेषण द्वारा नहीं समझा जा सकता। यदि इस सिद्धांत की सीमा मात्र शैक्षणिक संस्थाओं तक ही होती तो भी ठीक था, किंतु विल्करसन के इस सिद्धांत को अमरीकी सोशल मीडिया में बड़ी लोक प्रसिद्धि मिली है। विल्करसन पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता हैं और उनकी किताब न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर पुस्तकों की श्रेणी में पहला स्थान प्राप्त कर चुकी है।
ओप्रा विनफ्रे ने भी उनकी पुस्तक का प्रचार किया है। यह सिद्धांत अब ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन और नई वोक सोशल जस्टिस विचारधारा का केंद्रीय अंग बन चुका है। इसे एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति या सोच के रूप में माना जा सकता था यदि दलितों से अश्वेतों और ब्राह्मणों से श्वेतों की तुलना को एक वाद-योग्य परिकल्पना के रूप में प्रस्तुत किया जाता।
किन्तु इसे एक निर्विवाद तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। परिणामस्वरूप सामाजिक न्याय आंदोलन हिंदुओं से द्वेष के आंदोलन में परिवर्तित हो चुका है। भारत को विश्व-दमन के स्रोत के रूप में दर्शाया जा रहा है। इस विचार-सरणी का प्रतिकार करना जरूरी है।
पश्चिम का सामाजिक न्याय आंदोलन हिंदुओं से द्वेष के आंदोलन में परिवर्तित हो चुका है। दलितों से अश्वेतों और ब्राह्मणों से श्वेतों की तुलना करके भारत को विश्व-दमन के स्रोत के रूप में दर्शाया जा रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)