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राजीव मल्होत्रा का कॉलम:भारत के अंदरूनी मामलों में पश्चिम को इतनी रुचि क्यों?

8 महीने पहले
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राजीव मल्होत्रा, लेखक और विचारक
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सामाजिक न्याय की आड़ में पश्चिमी विद्वानों ने अपनी शोध परियोजनाओं और सम्मेलनों का मूल विषय हमारे देश और उसकी सरकार, हमारे संविधान और सत्ताधारी दल पर आक्रमण करने को बना लिया है। जब भारत ने संविधान के अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन अधिनियम और नए कृषि कानून सम्बंधी परिवर्तन लाने चाहे तो ये पश्चिमी विद्वानों के लिए ऐसे मौके बन गए, जिनके द्वारा वे कुछ भारतीय लोगों की पहचान पीड़ित के रूप में दिखाकर उन्हें सरकार के विरुद्ध भड़का सकें।

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कश्मीर, LGBTQ+ और अल्पसंख्यकों का दमन ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर उनका विशेष ध्यान रहता है। कई निष्पक्ष विषय- जैसे जनस्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, उद्यमिता, युवा प्रशिक्षण, तकनीक के प्रसार और संचार-प्रशिक्षण का प्रयोग भी आवरण के रूप में किया जाता है। उन भारतीय लोगों को पीड़ित दिखाने की कोशिश की जाती है, जो पश्चिमी नस्लवाद के सिद्धांत ‘क्रिटिकल रेस थ्योरी’ के अनुरूप बैठते हैं।

यहां तक कि संस्कृत अध्ययन में भी मानवाधिकार वाली दृष्टि का उपयोग किया जाता है और संस्कृत में लिखे ग्रंथों पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगाया जाता है। ऐसा भी आरोप लगाया जाता है कि संस्कृत ग्रंथों में दलितों और महिलाओं के दमन को प्रोत्साहित किया गया है। मिसाल के तौर पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी- जो ज्ञान का एक वैश्विक केंद्र है- के द्वारा काले/श्वेत लोगों के अमेरिकी इतिहास और कानूनों को भारत में लाकर उन्हें यहां के दलितों/ब्राह्मणों पर थोपने का प्रयास चल रहा है।

इस कारण भारत के विरुद्ध तथाकथित ‘पीड़ित’ समूहों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रत्येक समूह को भारत पर कीचड़ उछालने के लिए प्रलोभन दिया जाता है और हम बनाम वो, पीड़ित बनाम उत्पीड़क इत्यादि का चतुराईपूर्वक प्रयोग कर संघर्ष उत्पन्न करवाया जाता है। मार्क्सवाद के सिद्धांतकार तथा प्रचारक ग्राम्शी के काउंटर-हेजेमनी के विकास के सिद्धांत को उपयोग में लाते हुए कई ऐसी शोध परियोजनाएं चल रही हैं, जिनके द्वारा डेटाबेस और लेखागार विकसित किए जा रहे हैं।

पश्चिमी विद्वानों के इस्लाम और हिंदू धर्म के प्रति व्यवहार में हम प्रत्यक्ष रूप से दोहरी नीति एवं भेदभाव देख सकते हैं। इस्लाम को सदा ही पीड़ित दर्शाया जाता है, जिसके अनुयायियों को सहानुभूति की आवश्यकता है जबकि हिंदू धर्मावलम्बियों को सर्वदा उत्पीड़क, दमनकारी, नियंत्रणकारी इत्यादि के रूप में दर्शाया जाता है। कभी-कभी तो हिंदू धर्म के जड़ से उन्मूलन की बात भी की जाती है। पश्चिमी विद्वान इस्लामोफोबिया की कड़ी निंदा करते हैं, तो वही दृष्टिकोण हिंदूफोबिया के लिए भी अपनाया जाना चाहिए।

दुर्भाग्यवश, स्थिति इसके एकदम विपरीत है। कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनसे लगता है कि वे हिंदूफोबिया को बनाए रखना चाहते हैं, उसका विरोध नहीं करना चाहते। हार्वर्ड केनेडी स्कूल के एक शिक्षक ने ट्वीट करते हुए कहा था, ‘भारत के हिंदू रोगी/भद्दे होते हैं, यह इनकी धार्मिक पुस्तकों के कारण है जो इनको इस प्रकार से प्रशिक्षित करती हैं।’

हिंदू स्टूडेंट्स काउंसिल द्वारा हार्वर्ड को भेजे गए एक अन्य पत्र में यह असंतोष व्यक्त किया गया था कि वह ऐसा गढ़ बन चुका है, जहां हिंदूफोबिया अत्यंत मुखर है और इसका समर्थन हार्वर्ड के शिक्षकगणों द्वारा कई स्थितियों में किया जाता है। यूनिवर्सिटी के समर्थन से अमेरिकी कांग्रेस ने एक बिल पास किया था, जिसमें विश्व स्तर पर इस्लामोफोबिया को दंडनीय अपराध घोषित किया गया। इस प्रकार की सुरक्षा किसी अन्य धर्म को नहीं दी गई।

इसी समय पकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘इस्लामोफोबिया से संघर्ष के अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ को लेकर एक प्रस्ताव भी पेश किया। फ्रांस ने इस प्रकार के प्रस्ताव को सभी धर्मों के लिए पेश करने का समर्थन किया और भारत का भी यही विचार था, किंतु कई इस्लामिक राष्ट्रों ने केवल इस्लाम के लिए उस प्रस्ताव का समर्थन किया। अंतत: 15 मार्च को अंतरराष्ट्रीय इस्लामोफोबिया के विरुद्ध संघर्ष दिवस के रूप में मनाने का निर्णय ले ही लिया गया।

इस प्रकार के डेटाबेस बनाने की कोशिशें की जा रही हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं। हर प्रकार की सामाजिक जानकारियों को इकट्ठा कर उनका उपयोग विरोध और असंतोष उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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