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पटना. उत्तर बिहार के जिलों में चमकी बुखार से बच्चे पट-पटाकर मर रहे हैं। जो बच्चे मर रहे हैं वह कुपोषण के शिकार हैं। गरीब हैं, गांवों में रहते हैं। यह बात इसलिए कि इस अनाम बीमारी से मरने वालों में न तो कोई शहरी बच्चा है और न ही उनका बच्चा जिनकी गिनती अमीरी रेखा से ऊपर है।
कुपोषण की बात सरकार भी मानती है। ट्रीटमेंट फॉर एईएस केसेस इन बिहार के लिए तय स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसेड्योर (एसओपी) के पेज संख्या 15 का शीर्षक ही है लीची पैदावार जिलों के लिए मस्तिष्क ज्वर की रोकथाम एवं प्रबंधन की मार्गदर्शिका। इसमें लिखा है कि चकमी बीमारी किसे हो सकती है? इस ‘किसे’ में ही बीमारी का राज छुपा है। मार्गदर्शिका कहती है कि चमकी बीमारी 1 से 15 वर्ष के कुपोषित बच्चों को हो सकती है। यानी बीमारी की जड़ में कुपोषण और भूख है।
इलाज के लिए बने एसओपी में ही कुपोषण की बात
जो कुपोषित बच्चे अधपकी लीची खाते हैं और बिना खाए रात में सो जाते हैं, जो गर्मी में बिना खाना-पानी की परवाह किये धूप में खेलते हैं, चमकी बुखार की चपेट में आते हंै। यानी कुपोषण के साथ-साथ गर्मी भी एक वजह है। लीची से उन्हीं परिवारों के बच्चे भूख मिटाते हैं जिनके पास पर्याप्त भोजन नहीं है।
बीमारी से मरने वालों में चार माह से लेकर 18 माह के बच्चे भी शामिल हैं। इतनी छोटी उम्र के बच्चे बगान में लीची खाने जा ही नहीं सकते। कोई मां दुधमुंहे बच्चे को लीची खिला कर सुलाती है तो उस परिवार की आर्थिक स्थिति और मां की सेहत से लेकर पोषाहार के तमाम कार्यक्रम सवालों के घेरे में है ।
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