America NATO Expansion VS Russia Ukraine War | United States Weapons Sales And Defense Trade
भास्कर एक्सप्लेनर:रूस-यूक्रेन जंग से भी नहीं रुकेगा NATO का विस्तार, इसके पीछे है अमेरिकी कंपनियों का अरबों डॉलर का खेल
एक वर्ष पहलेलेखक: अभिषेक पाण्डेय
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रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से ही एक ऑर्गेनाइजेशन का नाम सबसे ज्यादा सामने आया है- NATO, जो अमेरिकी प्रभुत्व वाला 30 देशों का सैन्य संगठन है। NATO में यूक्रेन के शामिल होने की इच्छा से नाराज होकर ही रूस ने उसके खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, लेकिन इसके बावजूद NATO ने कहा है कि यूरोपीय देशों के लिए उसके दरवाजे खुले हैं।
इस विस्तार के पीछे सबसे बड़ा खेल अरबों डॉलर का वो फायदा है, जो हथियार बेचकर अमेरिकी कंपनियां और NATO के अन्य देशों की कंपनियां कमाती हैं।
ऐसे में चलिए जानते हैं कि आखिर क्यों NATO दुनिया में और विस्तार करना चाहता है? रूस क्यों करता है NATO का विरोध? अमेरिकी और NATO देशों की कंपनियां कैसे कमाती हैं अरबों डॉलर?
NATO के विस्तार के पीछे अमेरिकी कंपनियों का अरबों डॉलर का खेल आमतौर पर ये माना जाता है कि NATO के विस्तार के पीछे अमेरिका की सोच दुनिया में अपना दबदबा कायम करने और रूस के प्रभाव को सीमित रखने की है। ये राय काफी हद तक सही है, लेकिन NATO के विस्तार के पीछे एक और बड़ी वजह काम करती है और वह है अमेरिकी हथियार कंपनियों की अरबों डॉलर की कमाई।
NATO के नियम के मुताबिक, इससे जुड़ने वाले देशों को अपनी सेनाओं को आधुनिक बनाना होता है। नए सदस्यों को NATO में शामिल अन्य देशों की तरह अपनी सेनाओं को दुनिया के सबसे महंगे हथियारों और कम्यूनिकेशन सिस्टम से लैस करना पड़ता है।
इन नए सदस्यों को ये हथियार और सैन्य उपकरण खरीदने के लिए NATO देशों की कंपनियों का ही सहारा लेना पड़ता है। दुनिया में हथियारों की बिक्री में अमेरिकी कंपनियों का दबदबा है। यानी NATO के विस्तार का सीधा मतलब है, अमेरिकी हथियार कंपनियों की मोटी कमाई।
यही नहीं NATO ने अपने सदस्य देशों के लिए 2024 तक अपनी जीडीपी का 2% रक्षा पर खर्च करने का लक्ष्य रखा है। NATO के 30 में से अब तक अमेरिका, ब्रिटेन के अलावा 8 देश ही इस लक्ष्य को हासिल कर पाए हैं, जिनमें ग्रीस, क्रोएशिया, एस्टोनिया, लातविया, पोलैंड, लिथुआनिया, रोमानिया और फ्रांस शामिल हैं।
अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनियां NATO के वर्तमान सदस्य देशों को भी हथियार और अन्य सैन्य उपकरण बेचकर जमकर कमाई करती हैं।
उदाहरण के लिए अमेरिका ने हाल ही में NATO के सदस्य पोलैंड के साथ 6 अरब डॉलर (करीब 45 हजार करोड़ रुपए) के टैंक समझौते को मंजूरी दी है। साथ ही उसने NATO के एक अन्य सदस्य जर्मनी को F-35 फाइटर प्लेन बेचने के लिए समझौता किया है।
F-35 आधुनिक फाइटर प्लेन है, जिसे अमेरिकी कंपनी लॉकहीड मार्टिन बनाती है। इस फाइटर प्लेन के लिए अमेरिका कई अन्य NATO देशों बेल्जियम, पोलैंड, डेनमार्क, इटली और नॉर्वे के साथ पहले ही समझौते कर चुका है।
अमेरिका के साथ यूक्रेन के करार के तहत लॉकहीड मार्टिन कंपनी 2018 से ही यूक्रेन को जेवलिन एंटी टैंक मिसाइलें भी सप्लाई करती रही है।
अमेरिका ने 2017 में यूक्रेन को 47 मिलियन डॉलर (करीब 356 करोड़ रुपए) के हथियार देने को मंजूरी दी थी, जिस पर रूस बहुत नाराज हुआ था।
24 फरवरी को रूस के यूक्रेन पर हमले के दो दिन बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यूक्रेन को 350 मिलियन डॉलर (करीब 2654 करोड़ रुपए) के हथियार दिए जाने को मंजूरी दी है।
वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक, जो बाइडेन ने यूक्रेन को 200 मिलियन डॉलर (करीब 1500 करोड़ रुपए) की सैन्य सहायता देने को मंजूरी दी इसके बाद जनवरी-फरवरी के दौरान कीव में 8 अमेरिकी कॉर्गो प्लेन लैंड हुए थे, जिसके जरिए यूक्रेन को हथियार पहुंचाए गए।
यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका ने कहा है कि वह यूक्रेन को 1 अरब डॉलर (करीब 7500 करोड़ रुपए) की सैन्य सहायता यानी हथियार दिए जाने को लेकर प्रतिबद्ध है।
रूस-यूक्रेन युद्ध से न केवल अमेरिकी कंपनियों बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और तुर्की जैसे NATO के अन्य देशों को भी फायदा हो रहा है, जहां की सरकारी या प्राइवेट हथियार कंपनियां मदद के नाम पर यूक्रेन को करोड़ों डॉलर के हथियार बेच रही हैं।
अमेरिकी कंपनियों का है दुनिया में हथियारों की बिक्री में दबदबा
NATO में शामिल कई बड़े देशों की कंपनियां हथियारों की बिक्री में शामिल रही हैं, लेकिन इसका सबसे ज्यादा फायदा अमेरिकी कंपनियों को होता है।
दुनिया भर में हथियारों की खरीद-बिक्री का डेटाबेस रखने वाली संस्था स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी SIPRI के मुताबिक, 2020 में टॉप-100 कंपनियों की दुनिया में हथियार और मिलिट्री सेवाओं से जुड़े उपकरणों की बिक्री 531 अरब डॉलर (लगभग 39.82 लाख करोड़ रुपए) रही। ये 2019 की तुलना में 1.3% और 2015 की तुलना में 17% ज्यादा है।
इन टॉप-100 में से 41 अमेरिकी कंपनियां थीं, जिन्होंने 2020 में 285 अरब डॉलर (17.42 लाख करोड़ रुपए) कीमत के हथियारों की बिक्री की। ये 2019 की तुलना में 1.9% ज्यादा है और ये इस दौरान दुनिया में कुल हथियार बिक्री का 54% है।
इस दौरान दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार बिक्री करने वाली टॉप-10 कंपनियों में से 6 अमेरिकी कंपनियां रहीं। 2018 से ही दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार बेचने वाली टॉप-5 कंपनियां अमेरिका की रही हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी हथियार कंपनी अमेरिका की लॉकहीड मार्टिन 2009 से ही दुनिया की सबसे ज्यादा हथियार बेचने वाली कंपनी रही है।
2020 में टॉप-100 कंपनियों द्वारा बेचे गए कुल हथियारों में से 11% की बिक्री अकेले लॉकहीड मार्टिन ने की थी। 2020 में लॉकहीड मार्टिन ने 58.2 अरब डॉलर (करीब 4.36 लाख करोड़ रुपए) के हथियार बेचे।
2020 में दुनिया के कुल हथियारों की बिक्री में अमेरिकी कंपनियों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 54% रही, NATO के अन्य देशों में ब्रिटेन की 7.1%, फ्रांस की 4.7%, इटली की 2.6% और जर्मनी की 1.7% रही। इसमें चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 13% और रूसी कंपनियों की 5% रही जबकि भारतीय कंपनियों की हिस्सेदारी महज 1.2% ही रही।
2020 में दुनिया की टॉप-100 सबसे ज्यादा हथियार बेचने वाली कंपनियों में भारत की महज 3 कंपनियां-हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स, इंडियन ऑर्डिनेंस फैक्ट्री और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स शामिल थीं।
अमेरिकी सरकारों पर जमकर पैसा खर्च करती हैं हथियार कंपनियां 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद हथियार मार्केट सिकुड़ने लगा था। इसे देखते हुए अमेरिकी हथियार कंपनियों ने अमेरिकी सरकारों पर उनके लिए नए बाजार तलाशने के लिए दबाव डाला।
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका की टॉप-6 हथियार कंपनियों ने अमेरिकी सरकारों में लॉबिइंग के लिए 1996 और 1997 के दौरान ही 51 मिलियन डॉलर (करीब 386 अरब रुपए) खर्च कर डाले। इसमें राष्ट्रपति चुनाव अभियानों के लिए उम्मीदवारों को करोड़ों डॉलर का चंदा देने जैसे कदम शामिल थे।
संयोग से अमेरिका ने 1997 के बाद से ही पूर्वी यूरोप में NATO का तेजी से विस्तार करते हुए 14 नए सदस्य जोड़ लिए, इनमें से ज्यादातर देश रूस के सीमावर्ती या उसके प्रभाव वाले देश थे। NATO से नए देशों से जुड़ने का इन हथियार कंपनियों को जमकर फायदा हुआ।
ये हथियार कंपनियां अब भी अमेरिकी राष्ट्रपति उम्मीदवारों को चुनावों में जमकर चंदा देती हैं, ताकि नया राष्ट्रपति उनके लिए नया बाजार तलाशने का काम जारी रखे।
यूक्रेन में युद्ध के बाद भी मुनाफा कमाएंगी अमेरिकी कंपनियां? युद्ध झेलने वाले देश को हमेशा नुकसान होता है, लेकिन कुछ बाहरी देश इससे भी फायदा कमाते हैं। उदाहरण के लिए अफगानिस्तान में अमेरिका ने वर्षों तक युद्ध किया, जिससे वहां बड़े पैमाने पर तबाही हुई। अब अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण चल रहा है, जिसके लिए अमेरिका ने एक बड़ी राशि खर्च की है।
स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल ऑफ अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन (SIGAR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने अफगानिस्तान मिशन और उसके पुनर्निर्माण के लिए 20 वर्षों में 145 अरब डॉलर की भारी-भरकम राशि खर्च की। दरअसल, अमेरिका ने ये पैसा अफगानिस्तान को नहीं दिया बल्कि ज्यादातर पैसा अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण में शामिल रहीं अमेरिकी कंपनियों को दिया।
यूक्रेन में भी युद्ध के बाद पुनर्निर्माण के नाम पर अमेरिका और NATO के अन्य देशों के ऐसा ही खेल करने की संभावना है।
रूस और NATO में क्यों है तनातनी, यूक्रेन युद्ध से उसका कनेक्शन? 1949 में NATO यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन का गठन सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए किया गया था। उस समय इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत 12 देश शामिल थे।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद NATO ने तेजी से अपना विस्तार किया। रूस के विरोध के बावजूद 1997 से इससे यूरोप के 14 देश और जुड़े। इनमें से कई देश न केवल रूस के सीमावर्ती हैं, बल्कि सोवियत संघ का हिस्सा भी रह चुके हैं।
एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया जहां सोवियत रूस का हिस्सा रहे चुके हैं तो वहीं रोमानिया, पोलैंड, बुल्गारिया रूस के आसपास मौजूद देश हैं।
यानी 1997 के बाद से NATO के यूरोप में विस्तार ने एक तरह से रूस को चारों तरफ से घेरने का काम किया है। यूक्रेन भी लंबे समय से NATO से जुड़ना चाहता है। अगर यूक्रेन भी NATO से जुड़ जाता है तो NATO सेनाएं रूस की सीमा के और करीब पहुंच जाएंगी।
यूक्रेन के जुड़ने से पश्चिमी देशों की सेनाओं के लिए रूस की राजधानी मॉस्को की दूरी महज 640 किलोमीटर रह जाएगी, जो अभी 1600 किलोमीटर है। इसी विवाद की वजह से 24 फरवरी से रूस की सेनाओं ने यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है।
यूक्रेन के अलावा कई अन्य देश भी हैं, जो रूस के विरोध के बावजूद NATO से जुड़ना चाहते हैं-इनमें स्वीडन, फिनलैंड, जॉर्जिया जैसे देश शामिल हैं। NATO से करीबी को लेकर रूस 2008 में जॉर्जिया से युद्ध भी कर चुका है।