कहते हैं समय और मौसम कई उलझे हुए मसलों का इलाज कर देता है। जैसे नानी बाई के मायरे में जिन-जिन लोगों ने कपड़े लत्तों के लिए ताने मारे थे, श्रीकृष्ण ने उन सब के सिरों पर गठरियां पोटलियां दे मारी थीं, वैसे ही लम्बी, भीषण गर्मी के बाद बादलों ने सोमवार को चुन-चुनकर गांवों, कस्बों और शहरों पर बाल्टियां उलट दी हैं।
महीनों बीत गए। धूप खाने, धूप ओढ़ने और धूप ही बिछाने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं रह गया था। सोमवार को कहीं सुबह, कहीं दोपहर तक जाने किस कालिदास ने काले-काले मेघ भेज दिए। ठण्डी हवा के झोंके की तरह। पेड़-पौधे नहा लिए। पगडण्डियां डूब गईं।
अग्निवीरों की राह के प्रदर्शनों से गर्म, सुर्ख लाल हुई सड़कें भी धुल गईं। साथ में धुल गया वो भारत बंद जो अग्निपथ योजना के खिलाफ रखा गया था। ठीक है बंद की धमकी के कारण साढ़े 500 ट्रेनें ठप रहीं, (ये वही ट्रेनें हैं, जिन पर बैठकर ये युवा कुछ ही दिनों में भर्ती रैली में जाने वाले हैं)। दिल्ली जैसे शहर भागने-दौड़ने की बजाय रेंगते रहे या जाम हो गए, लेकिन तोड़फोड़, आगजनी से देश मुक्त रहा। एक कड़ी चौकसी और दूसरी बारिश।
जाने इस देश में लगातार शांतिपूर्ण प्रदर्शन क्यों नहीं होते? वाहनों में तोड़फोड़, बसों को फूंकना, ट्रेनों पर पत्थर फेंकना, जैसे एक तरह का फैशन हो चला है। आखिर ये प्रदर्शनकारी इतने ही गुस्सैल हैं तो विरोध के लिए सबसे पहले अपना वाहन क्यों नहीं फूंकते? भला गुस्सा कब से अपना-पराया देखने लगा। उसकी तो आंखें भी नहीं होतीं। फिर केवल सरकारी संपत्तियों को या दूसरों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना कौन सी समझदारी है?
आखिर उस आयकरदाता का क्या कसूर है, जो देश की सम्पत्ति के निर्माण में हर महीने अपने सौ रुपए में से 34 रुपए सरकार को देता है? आखिर उसकी मेहनत की कमाई पर इस तरह पानी फेरने, फूंकने की इजाजत इन प्रदर्शनकारियों को किसने दी?
कुल मिलाकर सरकारें अपनी मनमानी पर अडिग हैं। विपक्ष अपनी धूर्तता पर मुग्ध है और इनके इशारों पर कोहराम मचाने वालों को किसी से कोई मतलब नहीं है। इन सब के बीच आम आदमी हतप्रभ है। इधर अग्निवीरों के लिए एक अच्छी खबर कॉर्पोरेट सेक्टर से आई है। महिंद्रा ग्रुप ने कहा है कि वह ट्रेंड अग्निवीरों को अपने यहां नौकरी में प्राथमिकता देगा। आनंद महिंद्रा की यह घोषणा और भी कई उद्योगों को प्रेरणा देगी और अग्निवीरों को संबल।
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