बात 1946 की है। देश आजाद होने वाला था और ये तय था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही देश का पहला प्रधानमंत्री बनेगा। कांग्रेस की 15 में से 12 प्रदेश समितियां सरदार पटेल को अध्यक्ष चुनने के पक्ष में थीं, लेकिन गांधी के कहने पर पटेल रेस से हट गए और अध्यक्ष बने जवाहरलाल नेहरू।
ये किस्सा कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव से जुड़े सबसे विवादित और चर्चित किस्सों में से है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव हमेशा से ही राजनीति और विवादों का मंच बनता रहा है। 17 अक्टूबर को कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए चुनाव होना है। नामांकन दाखिल हो चुके हैं। अध्यक्ष बनने के लिए शशि थरूर और मल्लिकार्जुन खड़गे आमने-सामने हैं।
भास्कर एक्सप्लेनर में बात कांग्रेस के अध्यक्ष चुनावों से जुड़े 4 सबसे चर्चित और विवादित किस्सों की...
1. सुभाष चंद्र बोस ने गांधी के उम्मीदवार को हराया, फिर दिया इस्तीफा, पार्टी भी छोड़ी
1938 में हरिपुर में हुए अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। आजादी के आंदोलन की दिशा को लेकर कई मुद्दों पर बोस और महात्मा गांधी के बीच वैचारिक मतभेद थे।
1939 में बोस ने दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी पेश की। उस समय अध्यक्ष पद के लिए महात्मा गांधी की पहली पसंद अबुल कलाम आजाद थे, लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया।
गांधीजी ने जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष बनने को कहा, लेकिन पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके नेहरू ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिरकार गांधीजी ने आंध्र प्रदेश से आने वाले कांग्रेस नेता पट्टाभि सीतारमैया को चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया।
29 जनवरी 1939 को मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सुभाष को 1580 और सीतारमैया को 1377 वोट मिले। सुभाष की जीत के बाद गांधीजी ने कहा था, 'मैं उनकी (सुभाष) जीत से खुश हूं...और क्योंकि मेरी वजह से ही पट्टाभि ने अध्यक्ष पद से नाम वापस नहीं लिया था, इसलिए ये हार उनसे ज्यादा मेरी है...।'
बोस की जीत के बाद गांधीजी ने कहा कि उन्हें अपनी वर्किंग कमेटी का गठन करना चाहिए। गांधी समर्थक कांग्रेस वर्किंग कमेटी और सुभाष के बीच स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा और कांग्रेस की कार्यशैली को लेकर पहले से जारी मतभेद और गहराते गए।
8 फरवरी 1939 को सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को लिखे खत में कहा, ‘उनके (सुभाष) साथ काम करना मुश्किल है, क्योंकि उन्हें काम करने में आजादी चाहिए।'
22 फरवरी 1939 को वर्धा में CWC की बैठक में गांधी समर्थक मानी जाने वाली कांग्रेस वर्किंग कमेटी के 15 में से 13 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। 10-12 मार्च के बीच त्रिपुरी में कांग्रेस के सेशन में सुभाष बीमार होने के बावजूद स्ट्रेचर पर पहुंचे, लेकिन गांधीजी ने इस बैठक में हिस्सा नहीं लिया। इस्तीफा देने वाले कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बाकी सभी सदस्य बैठक में मौजूद थे।
बैठक में एक प्रस्ताव पेश करते हुए गांधी की नीतियों के प्रति कांग्रेस की निष्ठा व्यक्त की गई और नए अध्यक्ष से गांधी की इच्छा के अनुसार काम करने और नई वर्किंग कमेटी गठित करने की अपील की गई। इस प्रस्ताव के बाद सुभाष के पास गांधी की इच्छाओं को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, वो भी तब जब गांधी ने सीतारमैया की हार को अपनी निजी हार के रूप में लिया था।
सुभाष अध्यक्ष तो बन गए थे, लेकिन उनके पास वर्किंग कमेटी नहीं थी। आखिरकार सुभाष चंद्र बोस ने वर्किंग कमेटी गठित न कर पाने का हवाला देते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस छोड़कर फॉरवर्ड ब्लॉक नाम से नई पार्टी बनाई।
पट्टाभि सीतारमैया आजादी के बाद 1948 में नेहरू के समर्थन से कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे।
2. पटेल बनाम नेहरू की जंग में गांधीजी ने नेहरू का पक्ष लिया
मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1940 में रामगढ़ सेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। वे अप्रैल 1946 तक इस पद पर रहे। दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद लगभग तय हो चुका था कि भारत की आजादी ज्यादा दूर नहीं है। उस समय ये भी तय था कि देश की सबसे बड़ी और प्रमुख पार्टी होने के नाते कांग्रेस अध्यक्ष ही आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनेगा।
मौलाना आजाद की आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ के मुताबिक, 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मौलाना आजाद ने फिर से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई थी, लेकिन 20 अप्रैल 1946 को महात्मा गांधी ने अध्यक्ष पद को लेकर जवाहरलाल नेहरू के रूप में अपनी पसंद जाहिर कर दी।
उधर गांधीजी के समर्थन के बावजूद कांग्रेस पार्टी सरदार वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष और पहला प्रधानमंत्री बनाने के समर्थन में थी। उस समय तक कांग्रेस अध्यक्ष को केवल प्रदेश कांग्रेस समितियां ही नॉमिनेट और चुन सकती थीं।
कांग्रेस की 15 में से 12 प्रदेश समितियों ने सरदार पटेल को नॉमिनेट किया। एक भी प्रदेश कांग्रेस समिति ने नेहरू को नामित नहीं किया था। हालांकि, कांग्रेस वर्किंग कमेटी के कुछ सदस्यों ने नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखा था, लेकिन उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं था।
गांधीजी ने नेहरू से बात की, लेकिन जब उन्हें पता चला कि नेहरू दूसरे स्थान पर रहने को तैयार नहीं हैं, तो उन्होंने पटेल से अपना नाम वापस लेने को कहा।
पटेल के हटने के बाद नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया। मई 1946 में नेहरू अध्यक्ष बन गए। इसके एक महीने बाद वायसराय ने नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। 15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने के बाद नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री भी बने।
ब्रेकर ने लिखा है, 'अगर गांधी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो पटेल 1946-47 में में भारत के पहले प्रधानमंत्री होते ....सरदार से ये पुरस्कार छीन लिया गया था।'
मौलाना अबुल कलाम ने अपनी आत्मकथा इंडिया विंस फ्रीडम में लिखा है-.’..शायद ये मेरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी ...मैंने सरदार पटेल का समर्थन नहीं किया ... उन्होंने जवाहरलाल जैसी गलती कभी नहीं की होती ... ये सोचकर मैं खुद को कभी माफ नहीं कर सकता कि अगर मैंने ये गलतियां नहीं की होतीं, तो शायद पिछले दस सालों का इतिहास अलग होता।’
3. सीताराम केसरी, कांग्रेस का वो अध्यक्ष, जिसे कमरे में लॉक कर दिया गया था
1996 में बिहार से आने वाले सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और 1997 में सोनिया गांधी की पॉलिटिक्स में एंट्री हुई। केसरी आजादी के आंदोलन के समय से कांग्रेस से जुड़े थे और आजादी के लिए कई बार जेल भी गए। वे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिम्हा राव कैबिनेट में मंत्री भी रहे थे।
1998 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। कांग्रेस अध्यक्ष केसरी की जगह सोनिया गांधी पार्टी की मेन कैंपेनर बनीं। सोनिया की सभाओं में जमकर भीड़ जुटती थी, लेकिन कांग्रेस 141 सीटें जीत पाई और बहुमत और सत्ता दोनों से दूर रह गई।
कांग्रेस की हार का ठीकरा फोड़ा गया पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी पर। लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार की समीक्षा के लिए 5 मार्च 1998 को शरद पवार, जितेंद्र प्रसाद, एके एंटनी और प्रणब मुखर्जी जैसे नेताओं ने बैठक की और इन नेताओं ने सोनिया से अध्यक्ष बनने की अपील की।
9 मार्च 1998 को सीताराम केसरी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन ये कहते हुए इस्तीफा वापस ले लिया कि वह अपना पद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के दौरान छोड़ेंगे। केसरी इसके बाद अध्यक्ष पद पर ज्यादा दिन टिक नहीं सके।
14 मार्च 1998 की सुबह केसरी कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में हिस्सा लेने के लिए पार्टी के दिल्ली स्थित 24, अकबर रोड हेडक्वॉर्टर पहुंचे। इधर प्रणब मुखर्जी के घर पर हुई प्रमुख कांग्रेस नेताओं की बैठक में दो प्रस्ताव पारित किए गए-पहला केसरी को अध्यक्ष पद से हटाना और दूसरा सोनिया को अध्यक्ष बनाना।
केसरी जब CWC बैठक के लिए पार्टी हेडक्वॉर्टर पहुंचे, तो तारिक अनवर को छोड़कर कांग्रेस का कोई भी नेता केसरी के स्वागत में खड़ा नहीं हुआ। जब प्रणब मुखर्जी ने केसरी को उनकी सेवाओं के लिए धन्यवाद देते हुए सोनिया के अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव रखा, तो केसरी गुस्से में बैठक छोड़कर अपने ऑफिस चले गए।
मनमोहन सिंह समेत कुछ कांग्रेसी नेता केसरी को मनाने के लिए उनके पीछे गए, लेकिन उन्होंने वापस लौटने से इनकार कर दिया। केसरी को सोनिया के अध्यक्ष बनने तक अगले कुछ घंटों के लिए उनके कमरे में बंद कर दिया गया। उसी दिन बाद में जब केसरी घर जाने के लिए अपनी गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे, तो कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने उनकी धोती तक खींचने की कोशिश की थी।
इस घटना के एक साल बाद 20 मई 1999 को कांग्रेस हेडक्वॉर्टर में सोनिया की लीडरशिप को चुनौती देने के लिए शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर को पार्टी से निकालने के लिए बैठक हुई थी। उस बैठक में पहुंचे केसरी के साथ धक्का-मुक्की हुई थी।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने छत्तीसगढ़ में एक भाषण के दौरान सीताराम केसरी के साथ हुई घटना का जिक्र करते हुए कहा था, 'देश जानता है कि सीताराम केसरी... को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। सोनिया गांधी के लिए पार्टी प्रमुख के रूप में रास्ता बनाने के लिए उन्हें कार्यालय से बाहर फुटपाथ पर फेंक दिया गया था।'
4. जितेंद्र प्रसाद, आजादी के बाद नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य को अध्यक्ष पद के लिए चुनौती देने वाले पहले कांग्रेसी
1999 में कांग्रेस ने तीन सीनियर नेताओं शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर को सोनिया के खिलाफ बगावत के लिए पार्टी से निकाल दिया। इन तीनों नेताओं ने ये कहते हुए सोनिया का विरोध किया था कि इटली मूल की होने और अनुभवहीनता की वजह से वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य नहीं हैं। इन तीनों नेताओं को पार्टी से निकाले जाने के बाद भी सोनिया के नेतृत्व के खिलाफ विरोध थमा नहीं। अब विरोध की कमान राजेश पायलट और जितेंद्र प्रसाद जैसे वरिष्ठ नेताओं के हाथ में आ गई।
जितेंद्र प्रसाद उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में उस ब्राह्मण जमींदार परिवार से आते थे, जिसके परिवारिक संबंध पश्चिम बंगाल में टैगोर और पंजाब के कपूरथला स्टेट से थे। 1985 में, राजीव गांधी ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) का महासचिव और बाद में अपना राजनीतिक सचिव बनाया था। 1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और फिर कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उन्होंने भी जितेंद्र प्रसाद को अपना राजनीतिक सचिव बनाया।
साल 2000 में सोनिया से पार्टी की कमान छीनने के लिए जितेंद्र प्रसाद और राजेश पायलट ने अभियान छेड़ते हुए कई रैलियां कीं, लेकिन तभी अचानक 11 जून को रोड एक्सीडेंट में 55 साल के राजेश पायलट की मौत हो गई।
पायलट ने आधिकारिक तौर पर कभी सोनिया के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान नहीं किया था, लेकिन 62 साल के जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया के खिलाफ अध्यक्ष पद के चुनाव में दावा पेश कर दिया। प्रसाद आजादी के बाद नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य को अध्यक्ष पद के लिए चुनौती देने वाले पहले कांग्रेसी नेता थे।
सोनिया को चुनौती देते समय जितेंद्र कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य थे और कांग्रेस के उपाध्यक्ष भी रह चुके थे। साथ ही UP समेत कुछ और राज्यों में कांग्रेस में उनका दबदबा भी था, लेकिन ये बातें सोनिया को हराने के लिए नाकाफी साबित हुईं।
समर्थन जुटाने के लिए जितेंद्र प्रसाद ने देश भर का दौरा किया, लेकिन उन्हें कांग्रेस इकाइयों का ज्यादा समर्थन नहीं मिला। जब प्रसाद समर्थन जुटाने लखनऊ में कांग्रेस ऑफिस पहुंचे तो ये बंद था और वहां कोई नहीं था। कांग्रेस का कोई भी नेता उनके साथ नजर नहीं आना चाहता था।
वरिष्ठ पत्रकार इफ्तिकार गिलानी ने लिखा है, 'शायद ये सोनिया का निर्देश नहीं था, लेकिन ये दिखाता है कांग्रेस कैसे काम करती है।'
9 नवंबर 2000 को सोनिया गांधी और जितेंद्र प्रसाद के बीच हुए कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में जितेंद्र प्रसाद को करारी हार का सामना करना पड़ा। 7542 वोटों में से सोनिया को 7448 और प्रसाद को 94 वोट ही मिले।
हार के बाद दिसंबर 2000 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में जितेंद्र प्रसाद ने कहा था, 'मुझे पारी की हार देने के बाद, मेरा दिखना शायद उन्हें (सोनिया) आश्वस्त करता है। मैच मेरी पीठ के पीछे फिक्स था, लेकिन मैं ये दावा नहीं करता कि अगर वह सीधे खेलतीं तो मैं जीत जाता।'
जनवरी 2001 में दिल्ली में जितेंद्र प्रसाद की मौत हो गई थी। उनके बेटे जितिन प्रसाद कांग्रेस छोड़कर अब BJP में शामिल हो चुके हैं और योगी सरकार में मंत्री हैं।
रेफरेंस फॉर फरदर रीडिंग:
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Maulan Abul Kalam Azad, 1957 India Win Freedom.
Rajmohan Gandhi, 1991, Patel: A Life, Ahmedabad
Durgadas, 1969, India from Curzon to Nehru and After, New Delhi
M. Brecher, Nehru: A Political Biography
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