Gujarat Cooperative Model; Amit Shah | Why Narendra Modi Govt Created A New Ministry Of Cooperation?
भास्कर एक्सप्लेनर:कोऑपरेटिव्स के सहारे लोकल इकोनॉमी पर नजर; जानिए नए सहकारिता मंत्रालय के जरिए क्या है मोदी सरकार और अमित शाह का प्लान?
2 वर्ष पहलेलेखक: रवींद्र भजनी
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मोदी सरकार ने पिछले हफ्ते कृषि मंत्रालय से अलग कर सहकारिता मंत्रालय बनाया। मोदी ने 7 जुलाई को कैबिनेट में फेरबदल किया तो नए मंत्रालय की जिम्मेदारी अमित शाह को सौंप दी। मोदी के बाद सरकार के प्रमुख मंत्रियों में से एक शाह को यह नया मंत्रालय सौंपना कई सवाल खड़े कर रहा है।
सबसे बड़ा सवाल निकला कि यह किया क्यों? आखिर इससे मोदी किस तरह का मैसेज देना चाहते हैं? इन प्रश्नों का जवाब जानने के लिए देश के कोऑपरेटिव सेक्टर को समझना होगा। शाह को यह मंत्रालय देना बताता है कि इसका उद्देश्य सिर्फ एडमिनिस्ट्रेटिव सुधार नहीं है, बल्कि गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करना भी है।
सरकार ने नया मंत्रालय बनाने का क्या कारण बताया है?
सहकारिता के लिए अलग मंत्रालय की बात सबसे पहले वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने बजट भाषण में की थी। उसको आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय कैबिनेट ने 6 जुलाई को कृषि मंत्रालय से सहकारिता विभाग को अलग कर नया मंत्रालय बनाने की घोषणा कर दी।
प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो की मीडिया रिलीज के मुताबिक सहकारिता मंत्रालय देश में 'सहकार से समृद्धि' लाने के मोदी सरकार के उद्देश्य को पूरा करेगा। इससे देश में कोऑपरेटिव्स को सही मायनों में जमीनी स्तर पर लोगों का आंदोलन बनाने में मदद मिलेगी।
हमारे देश के लिए कोऑपरेटिव बेस्ड आर्थिक विकास मॉडल बहुत ही प्रासंगिक है, जिसमें हर सदस्य जिम्मेदारी और जवाबदेही के साथ काम करता है। मंत्रालय मल्टी-स्टेट कोऑपरेटिव्स (MSCS) को विकसित करने पर काम करेगा। साथ ही कोऑपरेटिव्स को ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के लिए प्रक्रियाओं को स्ट्रीमलाइन करेगा।
इसके पीछे सरकार का राजनीतिक एजेंडा क्या है?
पॉलिटिकल साइंस में एक कहावत है- ‘अगर आपको लंबे समय तक शासन करना है तो आपको लोगों और संस्थाओं पर पकड़ बनानी होगी।’ बस समझ लीजिए कि भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार भी इसी दिशा में काम कर रही है।
नरेंद्र मोदी जब 2014 में प्रधानमंत्री बने तो गुजरात मॉडल की हर तरफ चर्चा थी। इस मॉडल के कई पहलुओं पर पहले ही बात हो गई है। पर कोऑपरेटिव्स पर ज्यादातर का ध्यान नहीं गया था। हकीकत तो यह है कि 2001 में मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सबसे पहले गुजरात के कोऑपरेटिव्स पर ही पार्टी ने पकड़ बनानी शुरू कर दी थी। 2017 तक तो अमूल के सभी डिस्ट्रिक्ट मिल्क यूनियन भाजपा के पास आ चुके थे। गुजरात में दो दशक से अधिक समय से भाजपा के अजेय बने रहने का यह भी एक कारण है।
इसी तरह महाराष्ट्र की बात करें तो वहां 150 से अधिक मौजूदा विधायकों का बैकग्राउंड कोऑपरेटिव्स का है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) चीफ शरद पवार और उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने भी पहला चुनाव कोऑपरेटिव्स का ही जीता था। महाराष्ट्र में जब देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी, तब भी कोऑपरेटिव्स के जरिए लोकल इकोनॉमी पर NCP और कांग्रेस की पकड़ थी। भाजपा महाराष्ट्र के कोऑपरेटिव्स पर पकड़ बनाने में कामयाब रही तो ही वह कांग्रेस-NCP को कमजोर कर सकती है।
अमित शाह को मंत्रालय देने के क्या मायने हैं?
शाह और कोऑपरेटिव्स का पुराना संबंध रहा है। 8 नवंबर 2016 को पुराने 500 और 1000 के नोट रद्दी हुए तो अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव बैंक ही चर्चा में आया था। इस कोऑपरेटिव बैंक के जरिए ही सबसे अधिक पुराने नोटों की अदला-बदली हुई थी। अमित शाह इस संस्था के अध्यक्ष रहे हैं। इसके बाद उनके बेटे जय शाह की कंपनी को 25 करोड़ रुपए का लेटर ऑफ क्रेडिट कालूपुर कॉमर्शियल कोऑपरेटिव बैंक ने ही तो दिया था।
यह तो हुए वह कारण, जिनकी वजह से शाह और कोऑपरेटिव्स का संबंध जोड़ा गया था। पर शाह को नए मंत्रालय को सौंपने के पीछे एजेंडा विकास का कम और राजनीतिक अधिक है। कोऑपरेटिव्स से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि पूरे देश में गुजरात मॉडल लागू करने की यह शुरुआत है। किसानों के कानूनों और कोविड-19 की हैंडलिंग से पार्टी की गांवों में पकड़ कमजोर हुई है। यूपी में अगले साल चुनाव हैं, जहां किसानों की नाराजगी महंगी पड़ सकती है। छह महीने के भीतर कोऑपरेटिव्स से जुड़ा कोई बड़ा कानून आ सकता है, जो ग्रामीण इलाकों में पार्टी को मजबूती देगा।
कोऑपरेटिव्स को नेताओं की पाठशाला क्यों कहा जाता है?
महाराष्ट्र, केरल, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, ओडिशा और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कोऑपरेटिव्स नेतागिरी की पाठशाला का काम करते हैं। चाहे गांव की प्राथमिक कृषि कर्ज समिति (PACS) हो या शहरी सहकारी आवासीय समितियां, सभी में चुनाव होते हैं और सदस्य अपने नेता चुनते हैं। यह नेता ही इन कोऑपरेटिव समितियों को आगे लेकर जाते हैं और बाद में पंचायतों, विधानसभा और संसद तक पहुंचते हैं।
कोऑपरेटिव मूवमेंट क्या है?
कोऑपरेटिव्स यानी कॉमन लक्ष्य के लिए जमीनी स्तर पर लोगों का साथ आना। लोग साथ एक संगठन बनाते हैं और उसके कर्ता-धर्ता (अध्यक्ष और अन्य डायरेक्टर) को चुनते हैं। खेती की बात करें तो डेरी, शुगर मिल्स, स्पिनिंग मिल्स में कोऑपरेटिव्स कई दशकों से काम कर रहे हैं।
देश में 1.95 लाख कोऑपरेटिव डेरी हैं, जबकि 330 शुगर मिल्स। 2019-20 में डेरी कोऑपरेटिव्स ने अपने 1.7 करोड़ सदस्यों से 4.80 करोड़ लीटर दूध रोज खरीदा और 3.7 करोड़ लीटर दूध हर दिन बेचा। इसी तरह, कोऑपरेटिव शुगर मिल्स देश में होने वाले चीनी उत्पादन में 35% हिस्सेदारी रखती है।
इसके अलावा बैंक से लेकर पशुपालन समितियां भी कोऑपरेटिव्स का ही एक उदाहरण हैं। ये जमीनी स्तर पर कर्ज देने से लेकर सरकार के लिए अनाज समेत अन्य वस्तुओं को खरीदने का काम भी करती हैं। एक अधिकारी कहते हैं कि महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन में भी अगर किसानों से फसल खरीदी जा सकी तो इसका क्रेडिट इन कोऑपरेटिव्स को ही देना होगा।
इन संस्थाओं के पास कितना फंड है?
नाबार्ड (NABARD) की 2019-20 की सालाना रिपोर्ट कहती है कि देश में 95 हजार सहकारी कृषि कर्ज समितियां, 363 डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल कोऑपेरटिव बैंक, 33 स्टेट कोऑपरेटिव बैंक हैं। स्टेट कोऑपरेटिव बैंकों के पास 6,104 करोड़ रुपए की पूंजी और 1.35 लाख करोड़ रुपए का डिपॉजिट है। वहीं, डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंकों के पास 21 हजार करोड़ रुपए की पूंजी और 3.78 लाख करोड़ रुपए के डिपॉजिट्स हैं।
डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंकों की मुख्य भूमिका खेती के लिए कम अवधि के लोन देना हैं। इन बैंकों ने 3 लाख करोड़ रुपए का लोन दिया था। स्टेट कोऑपरेटिव बैंकों का मुख्य काम शुगर मिल्स या स्पिनिंग मिल्स जैसी एग्री-प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज को लोन देना है। उन्होंने 1.48 लाख करोड़ रुपए का लोन दिया है।
शहरी इलाकों में अर्बन कोऑपरेटिव बैंक और कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटी भी हैं, जो कई सेक्टरों में बैंकिंग सुविधाएं दे रही हैं। यह उन लोगों के लिए है जिनके लिए बैंकों से लोन हासिल करना मुश्किल रहता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुताबिक देश में 1,500 अर्बन कोऑपरेटिव बैंक हैं जिनकी पूंजी 2019-20 में 14 हजार करोड़ रुपए थी। उनका लोन पोर्टफोलियो भी 3 लाख करोड़ रुपए से अधिक था।
क्या इसे मोदी सरकार का बड़ा सुधार कह सकते हैं?
कुछ हद तक। कोऑपरेटिव्स स्टेट सब्जेक्ट हैं यानी राज्य अपने कानून खुद बनाते हैं। अब तक कृषि मंत्रालय में ही कोऑपरेटिव डिपार्टमेंट था, जिसके जरिए इस सेक्टर पर नजर रखी जा रही थी। कृषि इतना बड़ा सेक्टर है कि उसके साथ जुड़े कोऑपरेटिव्स पर फोकस कम ही था।
केंद्र सरकार 2002 में मल्टीस्टेट कोऑपरेटिव सोसायटीज एक्ट लाई। इससे कोऑपरेटिव्स को एक से अधिक राज्यों में काम करने के रास्ते खुल गए। सही मायनों में यह सेक्टर मल्टीनेशनल कंपनियों के खिलाफ ताकत बन सका। इस कानून से कोऑपरेटिव्स को एक से अधिक राज्यों में काम करने की इजाजत मिली। इनमें बैंक, डेरी और शुगर मिल्स शामिल थे, जिन्होंने एक से अधिक राज्यों में काम करना शुरू किया। सेंट्रल रजिस्ट्रार ऑफ सोसायटी इनके लिए कंट्रोलिंग अथॉरिटी बना, पर उसकी ओर से कार्रवाई स्टेट रजिस्ट्रार ही करता है।
पिछले कुछ वर्षों में कोऑपरेटिव्स ने कई नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है। IFFCO की बात करें तो यह फर्टिलाइजर्स के मार्केट में एक-तिहाई हिस्सेदारी रखता है। दूध, कपास, हैंडलूम्स, हाउसिंग, खाद्य तेलों, शुगर और फिशरीज में भी कोऑपरेटिव्स अच्छा काम कर रहे हैं। केरल में तो आईटी पार्क और मेडिकल कॉलेजों का संचालन भी कोऑपरेटिव्स के पास है। अगर नए मंत्रालय से रेगुलेशन आसान हुआ तो और भी नए क्षेत्रों में कोऑपरेटिव्स देख सकते हैं।