बात 1951 की है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिंदू सिविल कोड संसद से पास कराने की तैयारी में थे, लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस बिल को लेकर नेहरू से असहमत थे। दोनों ने एक दूसरे को कई खत लिखे। पंडित नेहरू ने जब राष्ट्रपति के अधिकार पर सवाल उठाए, तो राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि राष्ट्रपति इतना असहाय नहीं है और सरकार पर भी पाबंदियां हैं।
आजाद भारत के इतिहास में ये राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद का पहला वाकया था, लेकिन आखिरी नहीं। इसके बाद भी ऐसे कई मौके आए, जब देश के औपचारिक मुखिया यानी राष्ट्रपति ने आधिकारिक मुखिया प्रधानमंत्री से न केवल सवाल पूछे, बल्कि राष्ट्रपति के अधिकारों की मजबूती से याद भी दिलाई।
राष्ट्रपति चुनाव की स्पेशल सीरीज में आज हम पांच ऐसे ही राष्ट्रपतियों के किस्से सुनाएंगे, जिन्होंने साबित किया कि ये पद सिर्फ रबर स्टैंप नहीं है।
किस्सा-1ः जब हिंदू कोड बिल पर नेहरू से भिड़े राजेन्द्र प्रसाद
1951 में संसद में हिंदू कोड बिल पेश किया जाना था। इस बिल के जरिए हिंदुओं के लिए विवाह, विरासत जैसे मामलों पर कानून बनाना था। बिल को सदन में पेश किए जाने से पहले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को खत लिखा। खत का मजमून बस इतना था कि बिल को अपनी सहमति देने से पहले उसकी अच्छी-बुराई की जांच करना उनका अधिकार है।
इस खत के जवाब में नेहरू ने सदन और सरकार के फैसलों को चुनौती देने के राष्ट्रपति के अधिकार पर सवाल उठाए।
इस पर प्रसाद ने लिखा कि राष्ट्रपति उतना असहाय नहीं है और सरकार और सदन पर भी पाबंदियां हैं। उन्होंने लिखा कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच मतभेद होने पर संविधान के आर्टिकल 143 के मुताबिक, मामला सुप्रीम कोर्ट को रेफर किया जाना चाहिए।
नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच टकराव कई और मौकों पर भी देखने को मिला। पहला मौका राजेंद्र प्रसाद के सरदार वल्लभ भाई पटेल के अंतिम संस्कार में शामिल होने और दूसरा मौका सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल होने को लेकर रहा।
नेहरू का कहना था कि पंथनिरपेक्ष देश के मुखिया को सार्वजनिक तौर पर अपने धार्मिक रुझानों को प्रकट नहीं करना चाहिए। इस पर राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि सोमनाथ आक्रांताओं के सामने राष्ट्रीय विरोध का प्रतीक है।
किस्सा-2ः जब चीन से हार पर नेहरू सरकार पर बरसे राधाकृष्णन
आमतौर पर राष्ट्रपति सरकार को लेकर बयान कम ही देते हैं, क्योंकि राष्ट्रपति सरकार का औपचारिक मुखिया होता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ऐसे पहले राष्ट्रपति थे, जो किसी मुद्दे पर अपनी दो-टूक राय देने और कई गंभीर मुद्दों पर सरकार की आलोचना से नहीं चूकते थे।
राधाकृष्णनन ने 1962 भारत-चीन युद्ध में भारत की हार को लेकर नेहरू सरकार की आलोचना की थी। उन्होंने इस हार के लिए नेहरू सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर लापरवाही बरतने का आरोप लगाया था।
किस्सा-3ः आम आदमी की चिट्ठी पढ़ना चाहती थी राजीव सरकार, ज्ञानी जैल सिंह ने अड़ंगा लगाया
साल 1986। तत्कालीन PM राजीव गांधी इंडियन पोस्ट ऑफिस (एमेंडमेंट) बिल लाए थे। इस बिल से सरकार को किसी भी व्यक्ति की चिट्ठियों की सेंशरशिप यानी उसे पढ़ने का अधिकार मिल जाता। इस बिल को लेकर राजीव गांधी और तब के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच मनमुटाव हुआ।
आखिरकार इस बिल को कानून बनने से रोकने के लिए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने पॉकेट वीटो का इस्तेमाल किया। वे पॉकेट वीटो का इस्तेमाल करने वाले देश के एकमात्र राष्ट्रपति हैं। पॉकेट वीटो के इस्तेमाल से ज्ञानी जैल सिंह ने राष्ट्रपति के अधिकारों का फिर से अहसास कराया था।
पॉकेट वीटो का मतलब है राष्ट्रपति द्वारा किसी बिल को अनिश्चितकाल के लिए रोक लेना। पॉकेट वीटो का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति न तो बिल को स्वीकार करता है और न ही खारिज करता है।
किस्सा-4ः सरकार की सिफारिश को लौटाने वाले पहले राष्ट्रपति थे नारायणनन
आमतौर पर राष्ट्रपति सरकार और संसद की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य होता है, लेकिन केआर नारायणन पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जिन्होंने इस परंपरा को तोड़ा था।
22 अक्टूबर 1997 की बात है। केंद्र की इंद्र कुमार गुजराल सरकार ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। उस समय राष्ट्रपति पद पर आसीन थे पहले दलित राष्ट्रपति के.आर. नारायणन।
नारायणन ने कैबिनेट की इस सिफारिश को पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दिया था। केंद्र सरकार की किसी सिफारिश को पुनर्विचार के लिए लौटाने वाले वह पहले राष्ट्रपति थे।
इसके बाद 25 सितंबर 1998 को नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को भी पुनर्विचार के लिए लौटाया था। यही नहीं 2002 के गुजरात दंगों को लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को खत भी लिखा था।
किस्सा-5: फोन कॉल रिकॉर्ड करने वाले बिल को प्रणब ने लौटा दिया था
प्रणब मुखर्जी को देश के सबसे सख्त राष्ट्रपतियों में से एक गिना जाता है। उन्होंने 2016 में विवादित गुजरात एंटी-टेरर बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था। ये बिल तब से लटका था, जब 2004 में नरेंद्र मोदी गुजरात के CM थे।
प्रणब इस बिल को लौटाने वाले 15 वर्षों में तीसरे राष्ट्रपति थे। प्रणव से पहले दो और राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल भी इस बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा चुके थे।
खास बात ये है कि कलाम और पाटिल ने जब ये बिल लौटाया था कांग्रेस की अगुआई वाली UPA सरकार सत्ता में थी, जबकि प्रणब ने जब ये बिल लौटाया तो केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली NDA सरकार थी।
इस बिल में सबसे ज्यादा विवाद उस प्रोविजन को लेकर हुआ, जिसमें किसी आरोपी के मोबाइल कॉल को इंटरसेप्ट करके उसे कोर्ट के सामने सबूत के रूप में स्वीकार किए जाने की बात कही गई है।
2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस बिल को अपनी मंजूरी दे दी थी।
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