नेताजी बोस ने महीनों डीजल में भीगे मांस-ब्रेड खाकर गुजारे:पनडुब्बी से समंदर के अंदर-अंदर जर्मनी से जापान पहुंच गए, ब्रिटेन खोजता रहा

2 महीने पहले
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आज से ठीक 80 साल पहले यानी 8 फरवरी 1943। नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक ऐसे सफर पर निकले, जिसमें अगले पल का पता नहीं था। भारत की आजादी के लिहाज से ये सफर सही-सलामत पूरा करना बेहद जरूरी था। तमाम मुश्किलों के बीच वो 3 महीने तक समंदर के अंदर चलते रहे और 13 मई 1943 को सुरक्षित जापान पहुंच गए।

आज कहानी सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी के सबसे रोमांचक सफर की, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है...

हिटलर ने किया था पनडुब्बी का इंतजाम

29 मई 1942 को सुभाष चंद्र बोस जर्मनी के तानाशाह हिटलर से मिले। उस वक्त दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध पूरे शबाब पर था। जर्मनी की सेना पूरे नॉर्थ अफ्रीका तक पहुंच चुकी थी।

बोस और हिटलर की मीटिंग नोट्स के मुताबिक भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए बोस ने जर्मनी से मदद मांगी। हिटलर राजी हो गया। हालांकि उसने सुझाव दिया कि सहयोगी देश जापान साउथ ईस्ट एशिया में ब्रिटिश और फ्रेंच को खदेड़ रहा है। इसलिए बोस को टोक्यो जाकर जापानियों के साथ मिल जाना चाहिए। हिटलर ने बोस को जापान भेजने के लिए मदद भी ऑफर की।

जर्मनी से जापान जाना बेहद खतरनाक कदम था, क्योंकि पूरे अटलांटिक और हिंद महासागर पर रॉयल नेवी का कंट्रोल था। इसलिए पानी के जहाज से जा नहीं सकते थे। रूस में ऑपरेशन बारबरोसा चल रहा था, इसलिए सड़क के रास्ते भी नहीं जाया जा सकता था। जर्मनी ने बोस को पनडुब्बी के जरिए जापान भेजने का इंतजाम किया।

8 फरवरी 1943, बेहद लंबे और खतरनाक सफर की शुरुआत

जर्मनी के हैम्बर्ग शहर के कील बंदरगाह पर U-181 पनडुब्बी तैनात थी। कैप्टन मुसेनबर्ग, नेताजी बोस और उनके सेक्रेटरी आबिद हसन 8 फरवरी 1943 को पनडुब्बी से जापान के लिए निकले।

जापान जाते हुए जर्मनी की पनडुब्बी U-181 के डेक पर कैप्टन वर्नर मुसेनबर्ग के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस।
जापान जाते हुए जर्मनी की पनडुब्बी U-181 के डेक पर कैप्टन वर्नर मुसेनबर्ग के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस।

पनडुब्बी की स्थिति दयनीय थी। नेता जी के सेक्रेटरी आबिद हसन ने अपनी किताब सोल्जर रिमेंबर्स में लिखा है, 'जैसे ही मैं पनडुब्बी में घुसा डीजल की महक मेरे नथुनों से टकराई और मुझे उल्टी सी आने लगी। पूरी पनडुब्बी में डीजल की महक बसी हुई थी, यहां तक कि कंबलों तक से डीजल की महक आ रही थी।'

पनडुब्बी बेहद छोटी और संकरी थी, जिसमें चल-फिर नहीं सकते थे। आबिद हसन लिखते हैं, 'पनडुब्बी में बैठने की सिर्फ एक जगह थी, जहां एक छोटी मेज के चारों तरफ छह लोग सट-सट कर बैठ सकते थे। पनडुब्बी में सवार नौसैनिकों के लिए मोटी ब्रेड, कड़ा मांस, टीन के डिब्बे में बंद सब्जियां थीं, जो देखने और स्वाद में रबर जैसी थीं।'

कील बंदरगाह से जैसे-जैसे जर्मनी की पनडुब्बी आगे बढ़ रही थी, खतरा भी बढ़ रहा था। ये पनडुब्बी दिन को पानी के नीचे और रात को पानी के ऊपर चलती थी। रात को बोस और उनके साथी पनडुब्बी के डेक पर आकर अपनी पीठ सीधी करते।

अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस हमले की फिराक में थे, उनके विमानों के हमलों से बचने के लिए पनडुब्बी ग्रीनलैंड से होते हुए जापान के रास्ते चल पड़ी। इस तरह छह हफ्तों में पूरी होने वाली यात्रा का समय बढ़ता गया।

यात्रा के बीच में बोस अपनी कूटनीति बनाते। इसमें आबिद उनकी सहायता करते। आबिद को बोस तत्कालीन जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो की भूमिका निभाने को कहते और फिर उसी आधार पर उनसे चर्चा करते।

रास्ते में मिले ब्रिटिश जहाज को डुबो दिया

18 अप्रैल 1943 को पनडुब्बी दक्षिण अफ्रीका के पोर्ट एलिजाबेथ के करीब पहुंची। इस दौरान कमांडर मुसेनबर्ग अपने पेरिस्कोप से आस-पास का एरिया चेक कर रहे थे। उन्होंने ईस्ट-साउथ में एक 8,000 टन के ब्रिटिश तेल वाहक जहाज को आगे बढ़ते हुए देखा।

कमांडर ने उस पर हमला करने का आदेश दिया। इसके बाद दो टारपीडो से ब्रिटिश जहाज को डुबो दिया गया। आबिद के मुताबिक, ‘ये इंसिडेंट मेरी लाइफ का सबसे खतरनाक इवेंट में से एक था। मेरे माथे पर पसीना था, लेकिन बोस बिल्कुल शांत थे। उनके माथे पर एक शिकन तक नहीं थी।’

आधे रास्ते जापानी पनडुब्बी में शिफ्ट हुए बोस

अप्रैल के आखिरी सप्ताह में बोस की पनडुब्बी केप ऑफ गुड होप से होते हुए हिंद महासागर में दाखिल हुई। वहीं दूसरी तरफ 20 अप्रैल 1943 को एक जापानी पनडुब्बी I-29 कैप्टन मसाओ तराओका के नेतृत्व में पेनांग से रवाना हुई। I-29 के रवाना होने से पहले इसमें भारतीय खाने की पूरी खेप स्टोर कर ली गई।

सौगत बोस ने अपनी किताब 'हिज मेजेस्टीज ओपोनेंट' में बताया है कि 28 अप्रैल 1943 की सुबह हिंद महासागर में बोस का सफर U-181 के साथ पूरा हुआ। यहां दोनों देशों की पनडुब्बी ने फ्लैग सिग्नल देकर सब कुछ सही होने का संदेश एक-दूसरे को दिया।

अभी कुछ किलोमीटर की दूरी और तय करनी थी, लेकिन लो फ्यूल और खराब मौसम के चलते U-181 दो दिनों तक हिल न सकी। तीसरे दिन का भी सूरज ढलने को था, कैप्टन मुसेनबर्ग कोई भी खतरा आने से पहले अपना मिशन पूरा करने चाहते थे।

कुछ सोचते हुए वो तेजी से अपने केबिन से बाहर निकले, अपने एक अधिकारी और सिग्नल मैन को बुलाया। दोनों के कंधे पर हाथ फेरते हुए उन्हें कुछ समझाया। इसके बाद वो दोनों तूफान से उफनते समुद्र में कूद पड़े।

तैरते हुए हुए जापानी पनडुब्बी तक पहुंचे। वहां से एक रस्सी के सहारे वापस अपनी बोट तक पहुंचे। इसके बाद इस रस्सी से एक छोटी रबर बोट को बांधा गया। इस छोटी रबर नाव के सहारे बोस और उनके साथी आबिद कुछ दूर खड़ी जापानी पनडुब्बी I-29 तक पहुंचे और उस पर सवार हुए। यहां से बोस का सफर कुछ आसान हो गया।

जापानी पनडुब्बी पर चढ़ते ही बोस को विशेष अतिथि सम्मान दिया गया। पनडुब्बी के कमांडर ने उन्हें अपने पर्सनल केबिन में जगह दी। यहां उन्हें भारतीय खाना परोसा गया। इस बोट में सिर्फ एक ही समस्या थी, भाषा की। बोस और आबिद को थोड़ी बहुत जर्मन तो समझ आ जाती थी, लेकिन जापानी बिल्कुल नहीं आती थी।

इशारों और आंखों से अपनी और उनकी बातों को समझते-समझाते हुए 13 मई 1943 को I-29 सुमात्रा के नॉर्थ कोस्ट पर पहुंची। यहां पनडुब्बी स्टाफ के साथ बोस और आबिद ने एक फोटो खिंचवाई। इस तरह तीन महीनों बाद बोस जापान पहुंचे। दो दिन यहीं आराम करने के बाद बोस एक जापानी फाइटर जेट से टोक्यो पहुंचे।

जापानी पनडुब्बी I 29 के क्रू के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस (सबसे आगे बाएं से दूसरे नंबर पर)
जापानी पनडुब्बी I 29 के क्रू के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस (सबसे आगे बाएं से दूसरे नंबर पर)

सुभाष चंद्र बोस का ये सफर कितना अहम था, इसे इन 4 सीन से समझ सकते हैं। ये सभी सीन बोस के जापान सुरक्षित पहुंचने के बाद के हैं...

सीन 1: तारीख 5 अगस्त, 1943

सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर के मौजूदा कनॉट ड्राइव के पास पाडांग में बतौर सुप्रीम कमांडर, आजाद हिंद फौज यानी INA के जवानों को संबोधित किया। वे ऐलान करते हैं कि INA 1943 के अंत तक भारत की जमीन पर होगी। ठीक एक महीने पहले, 5 जुलाई को बोस ने INA की मौजूदगी के बारे में दुनिया को बताया था। तब उन्होंने कहा था, INA का मकसद है-दिल्ली चलो।

सीन 2 : तारीख 21 अक्टूबर 1943

सिंगापुर में सुभाषचंद्र बोस ने प्रोविशनल गवर्नमेंट ऑफ फ्री इंडिया PGFI यानी अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद या आजाद हिंद सरकार बनाने का ऐलान किया। ऊपर दिख रही तस्वीर उसी मौके की है। सरकार में 11 मंत्री और INA के 8 प्रतिनिधि थे। सुभाष खुद राज्य प्रमुख, प्रधानमंत्री और युद्ध मंत्री थे। इस सरकार को जापान, जर्मनी, इटली, क्रोएशिया, बर्मा, थाईलैंड, फिलिपीन्स, मंचूरिया और चीन (बांग जिंगवी की सरकार) ने मान्यता दे दी।

सीन 3 : तारीख 6 नवंबर 1943

टोक्यो में ग्रेटर ईस्ट एशिया यानी जापानी प्रभाव वाले देशों की कॉन्फ्रेंस के आखिरी दिन जापान के PM हिदेकी टोजो ने अंडमान-निकोबार को आजाद हिंद सरकार के हवाले करने का ऐलान किया। जापान ने 1942 में ब्रिटेन से ये द्वीप जीते थे। ऊपर नजर आ रही तस्वीर उसी कॉन्फ्रेंस की है। ठीक बीच में हैं, जापान के PM और सबसे दाईं ओर हैं सुभाष चंद्र बोस।

सीन 4 : तारीख 30 दिसंबर 1943

29 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर की हवाई पट्टी पर जापानी सेना का एक विमान उतरा। विमान से आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रप्रमुख और प्रधानमंत्री सुभाषचंद्र बोस, सेक्रेटरी विद मिनिस्टर रैंक आनंद मोहन सहाय, ADC कैप्टन रावत और बोस के डॉक्टर कर्नल डीएस राजू उतरते हैं। अंडमान में आजाद हिंद सरकार के गर्वनर मे. ज. आरकॉट दोरइस्वामी लोगानंदन और पोर्ट ब्लेयर के जापानी एडमिरल ने उन्हें रिसीव किया।

ऊपर दिख रही तस्वीर ठीक उसी मौके की है। अगले दिन 30 दिसंबर को बोस ने पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना ग्राउंड में अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराया। उन्होंने 1943 के अंत तक भारत की भूमि पर INA को पहुंचाने का वादा पूरा कर दिया था।

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