एक ऐसा राष्ट्रपति चुनाव, जिसने कांग्रेस को दो धड़ों में बांट दिया। एक ऐसा राष्ट्रपति चुनाव, जिसकी वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बाहर कर दिया गया। एक ऐसा राष्ट्रपति चुनाव, जिसमें खुद राष्ट्रपति को कोर्ट में पेश होना पड़ा।
राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी स्पेशल सीरीज में आज बात, सबसे विवादित और दिलचस्प चुनाव की…
1969 का राष्ट्रपति चुनाव क्यों सबसे दिलचस्प बन गया, इसे जानने से पहले चलिए ऐसा होने की वजह जान लेते हैं…
मई 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का निधन हो गया। उपराष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। उस समय तक उपराष्ट्रपति को ही राष्ट्रपति बनाने का चलन था, लेकिन कांग्रेस सिंडिकेट ने इस विचार को खारिज कर दिया। सिंडिकेट चाहती थी कि तत्कालीन लोकसभा स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाए। रेड्डी सिंडिकेट के करीबी माने जाते थे।
1969 में कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में इंदिरा ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए दलित नेता जगजीवन राम का नाम सुझाया, लेकिन सिंडिकेट ने इसे खारिज कर दिया। आखिरकार वोटिंग से फैसला सिंडिकेट के पक्ष में रहा और नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया।
दरअसल, कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के ताकतवर गुट को कांग्रेस सिंडिकेट भी कहा जाता था। इसी गुट ने पहले लाल बहादुर शास्त्री और उनके निधन के बाद 1966 में इंदिरा गांधी को PM बनवाया था। कांग्रेस सिंडिकेट ने मोरारजी देसाई की दावेदारी को खारिज करते हुए इंदिरा को PM बनाया था। ऐसे में सिंडिकेट इंदिरा की सरकार पर अपना कंट्रोल चाहता था, लेकिन इंदिरा को ये कतई नहीं पसंद था कि कोई उन्हें रिमोट कंट्रोल से चलाए।
कांग्रेस सिंडिकेट के सबसे ताकतवर नेता 1964 से 1967 तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे के कामराज थे। कांग्रेस सिंडिकेट में कई और दिग्गज नेता भी शामिल थे जैसे- एस के पाटिल, अतुल्य घोष और नीलम संजीव रेड्डी।
कांग्रेस के उम्मीदवार का विरोध न करते हुए भी कैसे इंदिरा ने कांग्रेसी दिग्गजों को मात दी, उसका किस्सा भी बहुत रोचक है…
इंदिरा भांप गईं कि कांग्रेस पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का कदम उन्हें साइडलाइन करने और PM पद छीनने के लिए उठाया था। रेड्डी को उम्मीदवार बनाए जाने की घोषणा होते ही वीवी गिरी ने कार्यवाहक राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा देते हुए निर्दलीय कैंडिडेट के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया।
वीवी गिरी ने ही PM के रूप में इंदिरा को अपने सबसे प्रमुख फैसलों में से एक लेने में मदद की थी। 1969 में इंदिरा के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के अध्यादेश पर वीवी गिरी ने राष्ट्रपति के रूप में अपने आखिरी दिन हस्ताक्षर किए थे।
माना जाता है कि वीवी गिरी की उम्मीदवारी को इंदिरा का अघोषित समर्थन हासिल था। इसके सबूत दो बातों से मिलते हैं-
पहला-PM के रूप में पार्टी की संसदीय प्रमुख होने के बावजूद उन्होंने संजीव रेड्डी के पक्ष में मतदान के लिए कांग्रेस सांसदों को व्हिप जारी नहीं किया था।
दूसरा-वोटिंग से ठीक पहले इंदिरा ने कांग्रेस सांसदों और विधायकों से 'अंतरात्मा की आवाज पर वोट' करने को कहा था।
चलिए अब जानते हैं राष्ट्रपति चुनाव के उस नतीजे को, जिसने सबकों चौंका दिया था…
1969 के राष्ट्रपति चुनाव में कुल 15 कैंडिडेट मैदान में थे। मुख्य मुकाबला कांग्रेस उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी और निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी के बीच था, विपक्ष ने सीडी देशमुख को उतारा था।
इन चुनावों में कुल 8,36,337 लाख वोट पड़े। जीत के लिए 4,18,169 वोटों की जरूरत थी। पहले राउंड की गिनती के बाद गिरी को 4,01,515 और रेड्डी को 3,13,548 वोट मिले। यानी पहले राउंड में विजेता का फैसला नहीं होने के बाद सेकेंड प्रेफरेंस वोटों की गिनती भी करनी पड़ी।
राष्ट्रपति चुनाव में अब तक केवल एक बार ही सेकेंड प्रेफरेंस वोटों की गिनती हुई है, वो इसी चुनाव में हुई थी। सेकेंड प्रेफरेंस वोटों की गिनती में नीचे से उम्मीदवारों के नाम हटते गए और उनके वोट टॉप-2 कैंडिडेट यानी रेड्डी और गिरी के खाते में जुड़ते गए। आखिर में गिरी को 4,20,077 वोट और रेड्डी को 4,05,427 वोट मिले। विपक्ष के उम्मीदवार सीडी देशमुख को 1,12,769 वोट मिले।
राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा की अंतरात्मा की आवाज पर वोटिंग की अपील का असर दिखा। 163 कांग्रेस सांसदों ने गिरी के पक्ष में वोट किया था, जबकि 17 राज्यों में से जिन 12 में कांग्रेस सत्ता में थी उनमें से 11 राज्यों के इलेक्टोरल कॉलेज में गिरी को बहुमत मिला था।
कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार संजीव रेड्डी को हराकर वीवी गिरी देश के चौथे राष्ट्रपति बन गए। गिरी का राष्ट्रपति बनना कांग्रेस सिंडिकेट की करारी हार थी और उसने इंदिरा को सबक सिखाने का फैसला कर लिया।
राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस में भूचाल ला दिया और वो धड़े में बंट गई…
राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों के बाद अध्यक्ष निजलिंगप्पा को पद से हटा दिया गया और कांग्रेस कार्यसमिति यानी CWC की बैठक बुलाई गई। CWC ने इंदिरा को पार्टी से निकालने का प्रस्ताव रखा। इंदिरा पर जो 7 आरोप लगाए गए, उनमें से पहला- राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार का विरोध करना और अपना अलग उम्मीदवार उतारने का था।
इस फैसले से कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई। सिंडिकेट वाले गुट को कांग्रेस (O) कहा गया। O-यानी आर्गनाइजेशन/ओल्ड कांग्रेस। वहीं इंदिरा के गुट का नाम पड़ा कांग्रेस (R), R-यानी रिक्वेजिशन। ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी यानी AICC के 705 सदस्यों में से 466 इंदिरा की कांग्रेस में चले गए, जो बाद में कांग्रेस (I) कहलाई।
कांग्रेस पार्टी और सरकार पर नियंत्रण हासिल करने के बाद इंदिरा ने 1971 में समय से पहले आम चुनाव करवाए और बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की।
इस चुनाव का विवाद यहीं नहीं थमा और राष्ट्रपति वीवी गिरी को कोर्ट में हाजिर होना पड़ा…
इस राष्ट्रपति चुनाव का विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। इन चुनावों में वोटर्स को प्रभावित करने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाए जाने का आरोप लगा।
तब तक वीवी गिरी राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके थे। लेकिन इस मामले में गवाही देने के लिए वह सुप्रीम कोर्ट में हाजिर हुए। कोर्ट ने मामला खारिज करते हुए गिरी के राष्ट्रपति बने रहने पर मुहर लगा दी थी।
1969 राष्ट्रपति चुनाव की लड़ाई लंबे समय तक जारी रही, इंदिरा को जेल तक जाना पड़ा…
कुछ वर्षों बाद नीलम संजीव रेड्डी और मोरारजी देसाई को इंदिरा से बदला लेने का मौका मिला। 1977 में जनता पार्टी इंदिरा की कांग्रेस पार्टी को जोरदार मात देकर केंद्र की सत्ता में आई। 1977 में नीलम संजीव रेड्डी देश के छठे राष्ट्रपति बने।
1978 में मोरारजी देसाई के PM और रेड्डी के राष्ट्रपति रहने के दौरान लोकसभा ने इंदिरा को 'सदन के विशेषाधिकार का बार-बार उल्लंघन करने और अवमानना' के लिए लोकसभा से निष्कासित करते हुए जेल भेज दिया। वह लोकसभा द्वारा जेल भेजी जाने वाली पहली MP थीं। साथ ही वह देश की एकमात्र PM हैं, जिन्हें सदन के विशेषाधिकार हनन और अवमानना के लिए जेल भेजा गया।
इंदिरा ने वीवी गिरी को भारत रत्न से भी नवाजा…
गिरी के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद 1975 में इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से नवाजा था। उससे पहले गिरी के राष्ट्रपति रहने के दौरान जब इंदिरा PM थीं, तो 1972 में उन्हें भारत रत्न दिया गया था।
राष्ट्रपति चुनाव में सेकेंड प्रफेरेंस वोट आखिर होता क्या है...
राष्ट्रपति चुनाव में बैलेट पेपर पर सभी कैंडिडेट्स के नाम होते हैं। इलेक्टर्स यानी दोनों सदनों के सभी निर्वाचित MP और देश के राज्यों और UT के सभी निर्वाचित विधायकों को कैंडिडेट को लेकर अपनी पसंद यानी प्रेफरेंस बतानी होती है। इसके लिए उसे बैलेट पेपर पर सबसे पसंदीदा कैंडिडेट यानी मोस्ट प्रेफरेंस वाले कैंडिडेट के आगे 1 मार्क करना होता है और सेकेंड प्रेफरेंस वाले कैंडिडेट के नाम के आगे 2 लिखना होता है। इसी तरह तीसरी, चौथी आदि पसंद के लिए भी किया जा सकता है।
वोटों की गिनती में पहले राउंड में कोटा यानी बहुमत नहीं मिलने पर दूसरे राउंड की गिनती होती है। इसमें पहले राउंड में सबसे कम वोट पाने वाले उम्मीदवार बाहर हो जाते हैं और उनके वोट अब हर बैलेट में सेकेंड प्रेफरेंस मार्किंग वाले कैंडिडेट के वोट में जोड़ दिए जाते हैं। ये प्रक्रिया किसी एक के बहुमत पाने या केवल एक ही कैंडिडेट के बचने तक जारी रहती है।
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