नाथूराम गोडसे चर्चा में है। पहली वजह है 26 जनवरी को रिलीज हुई एक फिल्म- 'गांधी-गोडसे एक युद्ध'। दूसरी वजह है 30 जनवरी, जिस दिन महात्मा गांधी की हत्या की गई थी।
आज की स्टोरी में हम नाथूराम गोडसे के लड़कियों जैसे बचपन से हत्यारा बनकर फांसी पर चढ़ने तक पूरी कहानी लेकर आए हैं...
परिवार में पहला जीवित बेटा था नाथूराम
नाथूराम परिवार का चौथा बेटा था। उससे पहले घर में 1901,1904 और 1907 में पैदा हुए तीन लड़कों की बचपन में ही मौत हो गई। नाथूराम से पहले 1898 में जन्मीं मथुरा पहली संतान थीं। परिजनों को लड़के की चाह थी और फिर बेटों की लगातार मौत से मां लक्ष्मी और पिता विनायक राव को यह सब कुछ एक दैवीय अभिशाप की तरह लगने लगा। उन्हें लगा कि कोई नकारात्मक शक्ति उनके बेटों को मार दे रही है।
इसके बाद जब नाथूराम का जन्म हुआ तो उन्होंने तय किया कि इसका लालन-पालन लड़की की तरह करेंगे। भाग्य को धोखा देने के लिए उन्होंने नाथूराम की नाक छिदवाई, फ्रॉक पहनाए और तय किया गया कि 12 साल की उम्र तक ऐसे ही रखा जाएगा। हुआ भी यही और फिर 12 साल तक कागजों में रामचंद्र विनायक गोडसे नाम से दर्ज नाथूराम की नाक छिदवा कर उसमें नथ पहनाई गई। इसी वजह से दोस्त और परिजन उसे नाथूराम बुलाने लगे।
संयोग से लड़की की तरह पालन-पोषण होने से नाथूराम बच गया और फिर कुछ ही सालों में उसके एक भाई दत्तात्रेय का जन्म हुआ। इसके बाद एक बहन शांता और फिर दो भाई गोपाल और गोविंद का जन्म हुआ। परिवार मानता रहा कि नाथूराम ने श्राप से मुक्ति दिलाई है।
गोडसे बचपन में शर्मीला और चुप रहने वाला लड़का था। कभी-कभी उसे सामान्य बातचीत में भी मुश्किल आती थी, लेकिन उसका एक दावा चौंकाने वाला था। बचपन में उसने दावा किया था कि वो देवी-देवताओं से बात कर सकता है। परिवार में इस बात को किसी ने खारिज नहीं किया क्योंकि उसने अपनी तथाकथित शक्ति से अपनी बहन मथुरा की एक रहस्यमयी बीमारी को ठीक कर दिया।
गांधीजी की हत्या और उसके बाद एक किताब में नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे लिखते हैं, ‘अपने ससुराल में मथुरा लंबे समय से बीमार थी। काफी इलाज के बाद भी जब वो ठीक नहीं हुई तो उसे बारामती बुला लिया गया और फिर नाथूराम ने अपनी बहन को ठीक करने के लिए एक दुर्लभ पूजा की… और फिर मथुरा ठीक हो गई।’
परिवार ने इसे चमत्कार माना और नाथूराम आगे भी ऐसी पूजा करता रहा। इस पूजा के लिए एक कमरा तैयार किया जाता था। नाथूराम उस कमरे की एक दीवार के पास फर्श पर गाय के गोबर से लीपता था। इसके बाद कालिख को तेल में मिलाकर हथेली के आकार का चक्र बनाता था। वहां दिया जलाकर गोडसे पहले पूजा करता था और फिर कालिख को ध्यान से देखता था।
गोपाल गोडसे ने लिखा है, ‘पूजा के बाद आसपास के लोग उससे अपनी चिंता से संबंधित सवाल पूछते थे और गोडसे के मुंह से जो जवाब आता था उसे देवी का जवाब मान लिया जाता था ’
हालांकि, बाद के सालों में गोडसे की धर्म में आस्था कम होती गई। उसकी हमेशा इच्छा रही कि मर्दाना दुनिया में उसके विचारों को भी जगह मिले। बाद के जीवन में यही कुंठा उसके फैसलों का आधार बनी।
गोडसे ने सार्वजनिक रूप से अपने बचपन का जिक्र बहुत खुल कर नहीं किया। गांधी की हत्या के बाद जांचकर्ताओं को अपने जीवन के बारे में बहुत कुछ नहीं बताया। जांचकर्ताओं ने जो रिपोर्ट बनाई, उसके 92 पेज में से मात्र दो पन्ने ही उसके प्रारंभिक जीवन से संबंधित थे और उसमें भी किशोरावस्था के बाद की बातें ज्यादा थीं।
डाक विभाग में नौकरी कर रहे गोडसे के पिता के ट्रांसफर बहुत होते थे। प्राइमरी में पढ़ाई के बाद गोडसे के पिता का मुंबई के किसी ग्रामीण इलाके में ट्रांसफर हुआ। उनका मन था कि गोडसे अंग्रेजी पढ़े इसलिए उसे मौसी के घर भेज दिया गया। यहां उसके जीवन में जरूरी बदलाव आए। मौसी के घर में आजादी कम थी और परिवार में जो अटेंशन मिलती थी वो भी कम हो गई। धीरे-धीरे उसने पूजा पाठ भी कम कर दिया और 16 की उम्र आते-आते उसने ‘दैवीय शक्तियों’ का प्रयोग करना पूरी तरह से बंद कर दिया।
नहीं पास कर सका हाईस्कूल
हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान उसके नए दोस्त बने। 1928 के अंत तक अपनी 10वीं की परीक्षा के कुछ माह पहले उसने मौसी का घर छोड़ दिया और किराए के कमरे में रहने लगा। यहां उसका पढ़ाई में मन कम लगता था। दोस्तों के साथ समय बिताने के अलावा वो तैराकी करता था। गोडसे ने बाद में कहा कि वो शांत पानी में बिना रुके दो मील यानी करीब 3218 मीटर तक तैर सकता है।
हाईस्कूल की परीक्षा में वो इंग्लिश के पेपर में फेल हो गया और डिग्री नहीं हासिल कर सका। गोडसे ने बाद में अपने कई बयानों में बताया कि उसे स्कूल से नफरत हो गई थी। इसी वजह से वह घर वापस आ गया। साल 1929 में गोडसे के पिता का प्रमोशन हुआ और आखिरी पोस्टिंग रत्नागिरी में मिली।
इस दौरान गांधी कहां थे?
यह वो समय था जब गांधी का जनसंपर्क कार्यक्रम तेज हो रहा था। गांधी संयुक्त प्रांत के ढाई महीने के लंबे दौरे पर निकले थे। संयुक्त प्रांत यानी आज का UP और उत्तराखंड। गांधी शहरों और गांवों में रुकते थे। छात्रों, महिलाओं और आम जनता को खादी पहनने और कांग्रेस में शामिल होने का आग्रह करते थे।
इस यात्रा ने माहौल बदल दिया और रत्नागिरी समेत देश के बाकी हिस्से में कांग्रेस के नेता सक्रिय हो गए। जगह-जगह सभाएं आयोजित कीं और देश में स्वाधीनता के लिए नए सिरे से चौराहों पर बहस होने लगी।
गोडसे के लिए यह अलग तरह का अनुभव था जैसा उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। रत्नागिरी में भी कांग्रेस के नेता सक्रिय हुए तो गोडसे उनके साथ आ गया। उसने विरोध सभाओं में हिस्सा लिया। गोडसे ने अपने बयान में कहा है, ‘जब छात्रों को स्कूल और कॉलेज का बहिष्कार करने का आह्वान किया जाने लगा तो मैंने भी हाईस्कूल की परीक्षा में दोबारा न बैठने का फैसला लिया।’
गोडसे धीरे-धीरे काफी सक्रिय हो गया और फिर भाषण देने में हाथ आजमाया। इसके बाद वो अपने इलाके में कांग्रेस द्वारा आयोजित विरोध सभाओं का नियमित वक्ता बन गया। गांधी की हत्या के बाद ट्रायल के दौरान अपने बयान में गोडसे ने दो-तीन बार पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने का भी जिक्र किया है।
...और फिर सावरकर के संपर्क में आया नाथूराम
इन सबके बीच 1930 में गोडसे की मुलाकात विनायक दामोदर सावकर से हुई। वो अंडमान की सेल्यूलर जेल में अपनी सजा पूरी कर के रत्नागिरी आए थे। इस बात का कोई साफ ब्योरा नहीं मिलता कि नाथूराम गोडसे और सावकर क्यों मिले और दोनों की मुलाकात किसने कराई? गोडसे के भाई गोपाल के अनुसार,’संयोग से सावरकर जब रत्नागिरी आए तो वहीं पर रुके जहां हम रहते थे। बाद में वो उसी गली के दूसरे छोर पर दूसरे घर में शिफ्ट हो गए।’
नाथूराम और सावरकर के संबंधों पर गोपाल गोडसे ने लिखा है, ‘सावरकर के रत्नागिरी आते ही दोनों में काफी करीबी संबंध हो गया था।’ गोडसे जब सावरकर के संपर्क में आया तब उसकी उम्र 19 साल थी। इधर लंबी कद काठी वाले सावरकर विदेश से पढ़े थे और सेल्यूलर जेल में एक दशक तक कैद में रहने के बाद लौटे थे। गोडसे को सावरकर की बातें और व्यक्तित्व ने प्रभावित किया। आगे पांच सालों तक दोनों की कोई मुलाकात नहीं हुई, लेकिन गोडसे फिर भी सावरकर के विचारों से प्रभावित होता रहा।
रत्नागिरी में सावरकर लगातार अपने हिंदुत्व के सिद्धांत के साथ लोगों से मिलते रहे और गोडसे को ये सब कुछ बहुत प्रभावित करता था। गोडसे ने अपने बयान में बताया कि सावरकर ने जब जाना कि मैंने हाईस्कूल की परीक्षा छोड़ दी है तो वो काफी नाराज हुए और मुझे अपना फैसला बदलने के लिए मनाने की कोशिश कई बार की, यह कहते हुए कि मेरा पढ़ाई जारी रखना कितना महत्वपूर्ण है।
सावरकर ने गोडसे को किताबें और आजादी की लड़ाई से संबंधित साहित्य दिया। पढ़ने की आदत डलवाई। धीरेंद्र कुमार झा अपनी किताब Gandhis Assassin the making of Nathuram Godse में लिखते हैं कि गोडसे सावरकर के लेख पढ़ता था और अपने नोट्स बनाता था। गोपाल गोडसे ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘एक बार वह घर पर सावरकर की लिखी '1857 का स्वतंत्र्य समर’ लेकर आया, जिसे वह रात के वक्त मां, पिता और मुझे पढ़कर सुनाता था।’
…और फिर घर परिवार का बोझ
इधर गांधी ने अप्रैल 1930 में डांडी मार्च कर नमक कानून तोड़ दिया था और देश भर में आंदोलन शुरू हो गए थे। उस वक्त तक गोडसे सावरकर से काफी प्रभावित हो चुका था और उसने कांग्रेस से दूरी बना ली थी। रत्नागिरी में यह लगभग दो सालों तक चला और उधर परिवार की स्थिति भी खराब होती रही। 1933 में गोडसे के पिता और परिवार के एकमात्र कमाऊ इंसान विनायक राव रिटायर हो गए। पेंशन से घर चलाना मुश्किल होने लगा तो परिवार को लेकर रत्नागिरी से 175 किलोमीटर दूर सांगली चले गए।
परिवार पालने के लिए खोलनी पड़ी सिलाई की दुकान
चूंकि भाई बहन स्कूल जा रहे थे, ऐसे में अब गोडसे के लिए नौकरी करना जरूरी था। उसने फल बेचना शुरू किया, लेकिन सफल नहीं हो सका। इसके बाद वो अपनी बड़ी बहन मथुरा के पास इटारसी चला गया और वहां कई नौकरियों में हाथ आजमाया। साल 1934 में पिता की बीमारी के कारण उसे वापस सांगली आना पड़ा। यहां आकर उसने सिलाई का काम सीखा और चरितार्थ उद्योग नाम से एक दुकान खोली।
इस समय तक सांगली में RSS का काफी प्रभाव हो चुका था और यहां उसने अपनी राजनीतिक गतिविधि जारी रखी। यहां उसे संघ के नेता काशीनाथ भास्कर लिमये मिले। गोडसे यहां संघ के कार्यक्रमों में सक्रिय हो कर भाग लेने लगा।
RSS की गतिविधियों में ज्यादा समय देने के चलते उसका सिलाई का काम प्रभावित होने लगा। गोडसे के अनुसार, ‘एक दिन पिता जी ने सार्वजनिक जीवन से दूर रहकर पैसे कमाने पर ध्यान देने को कहा। इसके बाद मैंने पूना (अब पुणे) जाने का फैसला किया।’
यहां 1936 के आसपास उसने स्थानीय RSS कार्यकर्ता और कारोबारी विष्णु पंत के साथ सिलाई का काम फिर से शुरू किया और जल्द ही संघ के गणवेश आदि के सिलाई का काम मिलने लगा।
इस दौरान पांच साल बीत चुके थे, मगर सावरकर के विचार अभी भी उसे प्रभावित करते थे। हालांकि वो इस बार बिजनेस पर ज्यादा ध्यान देता रहा और प्रति महीने 70 रुपए तक घर भेजता रहा। ये पैसे अभी भी कम थे।
इसी बीच दिसंबर 1937 में सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और तब तक गोडसे की सिलाई दुकान संघ के गणवेश आदि के लिए एक चर्चित दुकान हो चुकी थी। गोडसे ने वहां RSS के लोगों के बीच संबंध बनाए थे, लेकिन उसका रुझान हिंदू महासभा की तरफ हो चुका था। चूंकि उसका बिजनेस पार्टनर संघ का था तो काम चलता रहा, लेकिन उसे राजनीतिक भविष्य की चिंता थी।
गोडसे के संघ छोड़कर हिंदू महासभा में जाने पर विद्वानों के बीच कई राय हैं। संघ पर एकेडमिक जगत में काम कर चुके अमेरिकी रिसर्चर जे.ऐ. करेन के अनुसार “गोडसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में 1930 में शामिल हुआ और जल्द ही उसे एक वक्ता और संगठनकर्ता के रूप में ख्याति प्राप्त हो गई। 1934 में उसने संघ छोड़ दिया, क्योंकि हेडगेवार संघ को कथित तौर पर एक राजनीतिक संगठन नहीं बनाना चाहते थे।’
…और गोडसे को साल भर की जेल हो गई
पहली बार हिंदू महासभा और गोडसे के संबंध का जिक्र 1938 में आता है। हिंदू महासभा ने हैदराबाद के निजाम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। महासभा का कहना था कि निजाम को दी जा रही रियायतें हिंदुओं की स्वतंत्रता और संस्कृति के खिलाफ हैं। ये आंदोलन 1939 तक चला और गोडसे ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। इस आंदोलन के लिए गोडसे को एक साल की जेल हुई।
गोडसे लौट कर आया तो घर की हालत और नाजुक हो गई थी। उसने सार्वजनिक जीवन से छुट्टी ली और सिलाई का काम जारी कर दिया। वो अब 150 रुपए घर भेजने लगा और इसी बीच उसका भाई दत्तात्रेय भी पूना आ गया। वो भी कपड़े प्रेस करने का काम करने लगा और साल भर में चीजें पटरी पर आने लगीं। भाई के आ जाने के बाद गोडसे फिर से राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गया।
...और फिर गोडसे ने बनाया एक नया संगठन
यह वह समय था जब द्वितीय विश्वयुद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी और RSS पर कई तरह की पाबंदी थीं। जैसे उस वक्त सेना के अलावा ड्रिलिंग जैसी गतिविधि में किसी और संगठन या व्यक्ति को शामिल होने की अनुमति नहीं थी। ऐसे में संघ की परेड आदि पर रोक लग गई और फिर नाथूराम गोडसे को एक नया संगठन बनाने का विचार आया। संगठन बना हिंदू राष्ट्र दल। 1942 तक अस्तित्व में आए इस संगठन को हिंदू महासभा और RSS दोनों का समर्थन प्राप्त था।
इस संगठन में उसकी मुलाकात नारायण दत्तात्रेय आप्टे से हुई, जो कुछ ही साल बाद गांधी की हत्या का आरोपी बना और गोडसे के साथ उसे फांसी हुई। 1943 आते-आते हिंदू राष्ट्र दल पूना में एक प्रभावी संगठन बन गया था। गोडसे का कद हिंदू महासभा में भी बढ़ गया और RSS के लोगों के बीच भी उसकी जगह मजबूत होती गई।
गोडसे ने अखबार भी निकाला
अपने संगठन में काम करने के दौरान ही 1944 में विचारों को बल देने के लिए गोडसे ने अखबार निकालना शुरू किया। उसने बंद पड़े मराठी अखबार अग्रणी को फिर से शुरू किया। इस दौरान संगठन से उसका ध्यान हटता गया। एक समय के बाद उसने अपने संगठन के लोगों से कह दिया कि अखबार की व्यस्तता के कारण वो अब संगठन को समय नहीं दे पाएगा। इसलिए सभी कार्यकर्ता अपने स्तर से लड़ाई जारी रखें।
उधर, भड़काऊ बयानों और कंटेंट के चलते उसके अखबार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। प्रतिबंध खत्म कराने के लिए वह 1947 के शुरुआती महीनों में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गृहमंत्री मोरारजी देसाई से मिला।
मोरारजी देसाई ने अपने संस्मरण, ‘द स्टोरी ऑफ माई लाइफ’ में लिखा, “उसका अखबार भड़काऊ लेखन से भरा पड़ा था। वह जब भी मुझसे मिलने आया मैंने उसकी गतिविधियों की भर्त्सना की। कई बार वह इन भड़काऊ लेखों को सही साबित करने के लिए मेरे साथ लंबी चर्चा करता था। मैंने उसकी जमानत राशि भी जब्त कर ली थी। जुर्माना भी लगाया।’
जुर्माना लगाए जाने के बाद भी गोडसे की गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने चुपचाप नया अखबार हिंदू राष्ट्र शुरू कर दिया। सपांदक और प्रबंधक गोडसे और उसका दोस्त दत्तात्रेय बने रहे। इसी बीच देश आजाद हुआ। गोडसे देश के बंटवारे का जिम्मेदार गांधी को मानता रहा। उसे लगता था कि गांधी मुसलमानों की तरफदारी करते हैं।
इधर बंगाल और पंजाब की हिंसा से भी उसके मन में कुंठा बढ़ती गई। वह इतना निराश था कि आजादी के जलसे में भी नहीं गया। बंटवारे के बीच उसने लगातार भड़काऊ लेख लिखा। मसलन 6 सितंबर 1947 के अपने लेख में गोडसे ने हिंदुओं को पाकिस्तान में हुए दंगों का मुहंतोड़ जवाब देने के लिए उकसाया।
अपनी किताब Gandhi's Assassin the making of Nathuram Godse में धीरेंद्र झा लिखते हैं कि साल 1947 के आखिर तक उसको पत्रकारिता थकाने लगी और अखबार में उसकी दिलचस्पी कम हो गई। दिसंबर अंत तक गोडसे और आप्टे भविष्य के कामों पर बैठ कर चर्चा करते रहे और फिर गांधी की हत्या करने की ठानी ली।
...फिर प्लानिंग का समय आया
2 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या की प्लानिंग के लिए पहली बार गोडसे और आप्टे अहमद नगर के डेक्कन गेस्ट हाउस में मिले। यह गेस्ट हाउस हिंदू महासभा के सदस्य विष्णु रामकृष्ण करकरे का था। करकरे ने दोनों को यहीं मदन लाल पहवा से मिलवाया।
9 जनवरी 1948 को हिंदू राष्ट्र अखबार के दफ्तर में गोडसे, दत्तात्रेय आप्टे, विष्णु करकरे और मदन लाल पहवा फिर से मिले। यहीं सप्ताह भर बाद दिल्ली जाने का प्लान हुआ। तय किया गया कि मदन लाल पहवा गांधी को गोली मारेगा।
इस वक्त तक हत्या की तारीख 19 जनवरी तय थी, लेकिन दिल्ली पहुंच कर मदन लाल पहवा ने 18 जनवरी को हाथ खड़े कर दिए। फिर नई योजना बनाई गई। प्लान बना कि प्रार्थना सभा से दूर पहवा एक विस्फोट करेगा जिससे लोगों का ध्यान भंग हो जाएगा। गुट के अन्य लोग हथगोला फेंक कर भगदड़ मचा देंगे, फिर गांधी पर गोली चला दी जाएगी।
20 जनवरी को पहवा ने जैसे ही विस्फोट किया, एक महिला ने उसे देख लिया और वो पकड़ा गया। वहां से दत्तात्रेय आप्टे, गोडसे और अन्य सहयोगी भाग निकले। 23 जनवरी तक भूमिगत रहने के बाद गोडसे ने तय किया कि वो गांधी को खुद ही गोली मारेगा। फिर 27 जनवरी को दत्तात्रेय आप्टे और नाथूराम गोडसे दिल्ली आए, फिर गोडसे रात की ट्रेन से ग्वालियर पहुंचा।
यहां अपने विश्वासपात्र दत्तात्रेय सदाशिव परचूरे की मदद से पिस्तौल का इंतजाम किया और 29 जनवरी को दिल्ली लौट आया। अगले ही दिन शाम पांच बजे बिड़ला भवन के मैदान में गांधी की प्रार्थाना सभा से ठीक पहले उसने सामने से गांधी के सीने में तीन गोलियां दाग दीं। इसके बाद गोडसे का कोर्ट ट्रायल चला और उसे 15 नवंबर 1949 को फांसी दे दी गई।
References and Further Readings...
1. Mahatma Gandhi Murder Case, Statement of Accused in Original, File No. 23
2. Gandhi's Assassin the making of Nathuram Godse - Dhirendra kr. jha
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