तारीख- 21 मई 1991
वक्त- रात 10 बजकर 21 मिनट
जगह- तमिलनाडु का पेरंबदूर
एक चुनावी रैली के मंच की ओर बढ़ते पूर्व पीएम राजीव गांधी को 30 साल की एक लड़की ने रोक लिया। वो राजीव के पैर छूने के लिए नीचे झुकी और तभी अपने शरीर से बंधी सुसाइड बेल्ट का बटन दबा दिया। जोरदार धमाके में राजीव के चीथड़े उड़ गए।
यह खौफनाक सुसाइड मर्डर प्लान किया था LTTE यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के सरगना प्रभाकरण ने। वो श्रीलंका से अलग एक तमिल देश बनाने पर अड़ा था।
दरअसल, 35 साल पहले यानी 1987 में राजीव गांधी ने श्रीलंका में भारतीय फौज भेजी थी। मकसद तो श्रीलंकाई सरकार और LTTE की जंग शांत करना था, लेकिन हमारी फौज प्रभाकरण के गुरिल्ला लड़ाकों से उलझ बैठी।
32 महीनों बाद हमारी फौज को लौटना पड़ा। प्रभाकरण को डर था कि राजीव दोबारा पीएम बने तो फिर अपनी फौज भेज देंगे।
अब 35 साल बाद राष्ट्रपति राजपक्षे को राष्ट्रपति भवन छोड़कर भागना पड़ा। इस बीच खबर उड़ी कि श्रीलंका में भारतीय फौज पहुंच चुकी है। फौरन ही कोलंबो में भारतीय हाई-कमिशन ने ट्वीट किया- श्रीलंका के मीडिया और सोशल मीडिया पर फैली इस खबर का भारत खंडन करता है। भारतीय सेना श्रीलंका में मौजूद नहीं है।
ऐसे में आज के भास्कर एक्सप्लेनर में हम वो पूरा किस्सा बता रहे हैं कि जब पिछली बार भारत ने श्रीलंका में सेना भेजी थी। पूरी कहानी को आसान बनाने के लिए इसे हमने 4 चैप्टर में बांटा है…
इन सवालों के जवाब जानने से पहले इस पोल पर हम आपकी राय जानना चाहते हैं...
चैप्टर-1: 1948 में आजाद होते ही श्रीलंका में सिंहली और तमिलों में भिड़ंत शुरू हुई
श्रीलंका में जातीय संघर्ष मुख्य रूप से सिंहली और श्रीलंकाई तमिलों के बीच रहा है। इसकी शुरुआत ब्रिटिश राज के वक्त से ही हो गई थी। सिंहली भाषा बोलने वाले यहां के मूल निवासी हैं, जो बौद्ध धर्म को मानते हैं। तमिल हिंदू हैं और इनमें भी दो तरह के लोग हैं। एक जो सदियों से यहां रह रहे हैं और दूसरे, जिन्हें अंग्रेज 19वीं और 20वीं सदी में चाय, कॉफी और रबर के बागानों में काम करने के लिए दक्षिण भारत से ले गए थे।
सिंहलियों का आरोप रहा है कि तमिल उनके संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं। इसी को लेकर तनाव पैदा हुआ और कई बार दंगे और गृहयुद्ध हुए। श्रीलंका जब 1948 में ब्रिटिश राज से आजाद हुआ तो 1956 में वहां की सरकार ने 'सिंहला ओनली एक्ट' लागू किया।
इस एक्ट के जरिए तमिल को दरकिनार करके सिंहली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। इससे नौकरियों और बाकी चीजों में तमिलों की अनदेखी होने लगी। इससे उनमें असुरक्षा और विद्रोह की भावना पैदा हुई।
इसके विरोध में कई तमिल संगठन उठ खड़े हुए। इनमें से सबसे खतरनाक LTTE था। इसका मतलब है-लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी LTTE यानी तमिल देश को आजाद कराने वाले बाघ। इसका सरगना वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन था। ये लोग तमिलों के लिए अलग देश की मांग करने लगे। 1983 तक बात मरने मारने की आ गई।
23 जुलाई को LTTE के गुरिल्ला लड़ाकों ने 13 श्रीलंकाई सैनिक मार दिए। अगले ही दिन श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गई। 3 हजार के करीब तमिल मारे गए। LTTE ने इस मौके का फायदा उठाया और बड़ी संख्या में तमिल लोगों को अपने संगठन में शामिल कर लिया।
मई 1985 में LTTE गुरिल्ला युद्ध में माहिर हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने अनुराधापुरा में सिंहली समुदाय के पवित्र स्थल बोधि वृक्ष मंदिर पर हमला कर दिया। एक घंटे के अंदर 150 लोग मारे गए। 1986 तक श्रीलंकाई सरकार और LTTE समर्थक एक दूसरे से जबर्दस्त तरीके से भिड़ गए। जनवरी 1987 में राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने LTTE और तमिलों के गढ़ जाफना में मिलिट्री शासन लागू कर दिया और 10 हजार सैनिक उतार दिए।
मई आते-आते हालात बदतर होने लगे। श्रीलंकाई सेना ने LTTE को खत्म करने के लिए हवाई हमले शुरू कर दिए, जिसकी चपेट में जाफना के बेगुनाह तमिल नागरिक भी आ गए।
1987 में श्रीलंकाई सेना ने जाफना शहर को सीज कर दिया। तब भारत सरकार ने श्रीलंका से तमिलों के खिलाफ हिंसा रोकने की अपील के साथ-साथ उसे चेतावनी भी दी। सिंहली मूल के जयवर्धने पर इसका असर नहीं हुआ।
चैप्टर-2: चीन-पाकिस्तान से नजदीकी के चलते भारत ने मजबूरी में भेजी थी सेना
जयवर्धने की इस वक्त तक चीन और पाकिस्तान के साथ नजदीकी भी चर्चा में थी। ऐसे में भारत के लिए सख्त कदम उठाना जरूरी हो गया था। भारत सरकर ने 2 जून 1987 को जाफना के तमिलों के लिए समुद्र के रास्ते सहायता भेजी, लेकिन श्रीलंका की नेवी ने इसे रोक दिया।
इसके बाद इंडियन एयरफोर्स ने 4 जून 1987 को ऑपरेशन पूमलाई चलाया। इसके तहत 5 एंटोनोव AN-32 विमानों ने 25 टन की राहत सामग्री के साथ उड़ान भरी। इन विमानों को मिराज लड़ाकू विमानों के जरिए कवर किया जा रहा था। साथ ही भारत ने पहले ही कह दिया था कि उसके विमानों पर हमला युद्ध का ऐलान माना जाएगा।
भारत के इस एक्शन से जयवर्धने दबाव में आ गए और LTTE से समझौता करने को तैयार हो गए। जुलाई 1987 में श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच शांति की बात शुरू हो गई। भारत सरकार मध्यस्थ की भूमिका में थी। जानकार कहते हैं कि भारत का उद्देश्य श्रीलंकाई तमिलों को सुरक्षा के साथ-साथ स्वायत्तता यानी ऑटोनॉमी दिलाना था।
हालांकि LTTE प्रमुख प्रभाकरन इससे खुश नहीं था। वह आजादी चाहता था। उसे दिल्ली बुलाया गया। अशोक होटल में प्रधानमंत्री राजीव गांधी उससे मिले। राजीव गांधी की बात मानकर उसने शर्त रखी कि शांति स्थापित होने के बाद उसे श्रीलंका सरकार में अहम भूमिका दी जाए। बताया जाता है कि राजीव गांधी के भरोसा देने के बाद प्रभाकरन मान गया। इसके बाद 29 जुलाई 1987 को कोलंबो में तीनों पक्षों ने शांति समझौते पर साइन किए।
चैप्टर-3: गए थे शांति के लिए, लेकिन जंग में फंस गए
शांति समझौते के मुताबिक दोनों पक्ष जाफना में लड़ाई रोकने पर राजी हो गए। श्रीलंकाई सेना की वापसी के बाद और जाफना में चुनाव होने तक शांति बहाल रखने का काम भारत के जिम्मे आया। इंडियन पीसकीपिंग फोर्स यानी IPKF का गठन करके वहां भेजा गया। भारतीय सेना की 4 डिवीजनों यानी लगभग 80 हजार सैनिकों को श्रीलंका भेजा गया। इनका मुख्य काम श्रीलंका के तमिल गुटों का सरेंडर कराना था।
माना जा रहा था कि लिट्टे समर्थक भारतीयों से नहीं लड़ेंगे, इसलिए IPKF का काम सिर्फ निगरानी होगा। इसे ऑपरेशन पवन नाम दिया गया, लेकिन यहीं पर सरकार और खुफिया विभाग गच्चा खा गए।
कई तमिल संगठन हथियार सरेंडर करने काे राजी भी हो गए, लेकिन जैसे ही श्रीलंकाई सेना जाफना से रवाना हुई और भारतीय सेना ने अपने कैंप स्थापित किए, प्रभाकरन ने शांति समझौते को मानने से इनकार कर दिया। वे भारतीय सेना को निशाना बनाने लगे। इसके बाद भारतीय सेना ने LTTE के हेडक्वार्टर पर कब्जे की रणनीति बनाई।
11 अक्टूबर 1987 की रात पलाली, श्रीलंका में मौजूद 10 पैरा कमांडोज को जाफना यूनिवर्सिटी में LTTE के हेडक्वार्टर पर नियंत्रण करने की जिम्मेदारी दी गई। रात 1 बजे दो MI हेलिकॉप्टरों ने 50 सैनिकों के साथ जाफना के लिए उड़ान भरी। हेलिकॉप्टर मात्र 200 मीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे थे। अभियान को गुप्त रखने के लिए हेलिकॉप्टर्स की सारी लाइट बंद कर दी गई थीं।
'मिशन ओवरसीज-डेयरिंग ऑपरेशन ऑफ द इंडियन मिलिट्री के लेखक सुशांत सिंह बीबीसी को बताते हैं कि दो-दो की संख्या में 4 हेलिकॉप्टरों को वहां उतरना था, लेकिन जब पहले 2 हेलिकॉप्टर उतरने लगे तो उनकी तरफ तेज फायर हुआ। हालांकि हेलिकॉप्टर्स की आवाज में सुनाई नहीं दिया। जब उन्होंने दूसरे हेलिकॉप्टर के लिए रोशनी करने की कोशिश की तो उन पर इतना तेज फायर आया कि उन्होंने ऐसा करने का इरादा छोड़ दिया।
इसके बाद हेलिकॉप्टर्स की दूसरी टीम आई तो उन्हें दिखा ही नहीं कि उन्हें उतरना कहां है। उन्होंने वापस जाने का फैसला किया। इन हेलिकॉप्टर्स पर 53 कमांडोज थे। जब ये कुछ समय बाद वापस आए तो इन पर इतनी जबरदस्त गोलीबारी हुई कि हेलिकॉप्टर्स में बड़े-बड़े छेद हो गए। बाद में गिना गया कि उस हेलिकॉप्टर में 17 छेद थे। सिख एलआई के 29 जवान शहीद हो गए। जबकि 31 जवान वहां उतरने में कामयाब रहे।
1989 में राजीव गांधी चुनाव हार गए और वीपी सिंह की सरकार बनी। 1990 में 32 महीने बाद भारतीय सेना ने इस कार्रवाई को स्थगित कर अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। इसके बाद भी LTTE और श्रीलंका सरकार के बीच जंग चलती रही। 18 मई 2009 को श्रीलंका की सेना ने प्रभाकरन को मारकर LTTE को खत्म कर दिया।
चैप्टर-4: कारगिल युद्ध से दोगुने से ज्यादा जवान हुए शहीद, कुल खर्च 978 करोड़ रुपए
15 दिसंबर 1999 को तब के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने राज्यसभा में बताया कि श्रीलंका में भारतीय सेना के 1165 जवान शहीद हुए और 3009 जवान घायल हुए थे। इस दौरान सरकार को कुल 978 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे। हालांकि मिशन के दौरान 10 से 11 हजार LTTE लड़ाके भी मारे गए और वो काफी कमजोर हो गए। इस मिशन के चलते ही 1991 में LTTE ने आत्मघाती हमले में राजीव गांधी की हत्या कर दी।
यहां यह जानना जरूरी है कि 1999 में पाकिस्तान से हुए कारगिल युद्ध में कुल 527 जवान शहीद हुए थे और 1363 घायल हुए थे। यानी श्रीलंका में दोगुने से ज्यादा भारतीय जवान शहीद औऱ तीन गुना घायल हुए थे।
सोर्स : The Peace Accord and the Tamils in Sri Lanka.Hennayake S.K. Asian Survey, University Teachers of Human Rights (Jaffna), Broken Palmyrah, Appendix II, The Broken Palmyra, the Tamil Crisis in Sri Lanka, An Inside Account. The Sri Lanka Studies Institute
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