मैं शमशेर सिंह, पंजाब के मोहाली जिले में घर से निकाल दिए गए बूढ़ों, रेप पीड़ित औरतों, मानसिक रोगियों और अनाथ बच्चों के लिए प्रभु आसरा नाम से एक घर चलाता हूं। इसकी शुरुआत की एक दर्दनाक हादसे से हुई थी। तब मैं छठी क्लास में पढ़ता था। साथ पढ़ने वाला रमेश नाम का लड़का मेरा जिगरी दोस्त था। कहीं भी जाना हो, हम साथ जाते थे। स्कूल, खेत, खाने पीने… सब जगह। बहुत अल्हड़ और बेपरवाह बचपन बिता रहे थे हम दोनों।
एक दिन मैं माता पिता के साथ कहीं बाहर गया हुआ था। जब लौटा तो गांव के बाहर श्मशान में किसी की चिता जल रही थी। मैंने वैसे ही पूछ लिया कि किसकी मौत हो गई है? किसी ने बताया कि रमेश की मौत हो गई। मैं तो सुनकर सन्न रह गया। बस यहीं से शुरू होती है मेरी कहानी।
रमेश की मौत ने मुझे बदलकर रख दिया। मैं सारा-सारा दिन अकेले बैठा रहता था। किसी से बात नहीं करता था। खेतों में काम करने जाता तो पेड़ के नीचे बैठकर दूसरी ही दुनिया में चला जाता था। सोचता कि रमेश इस वक्त कहां होगा? क्या कर रहा होगा? जनवरी का महीना है, उसे ठंड लग रही होगी। क्या वो दोबारा इस धरती पर आएगा? क्या हम दोबारा मिल सकेंगे?
मैं लगातार सोचने लगा कि जीवन कहां से शुरू हुआ है? हम कहां से आए हैं? हमारा क्या काम है? ऐसे अनगिनत सवालों के साथ मैंने गुरुबाणी का पाठ करना शुरू कर दिया। मुझे कुछ सवालों का जवाब मिला। मसलन हम सब का यानी राजा, रंक, फकीर सभी का मूल एक ही है। सभी एक ही शक्ति से संचालित होते हैं और सभी को एक दिन दुनिया छोड़कर जाना है।
इसके बाद मुझे भी घर छोड़ने की इच्छा होने लगी। परिवार वाले पूछते- रोटी खा ले, पानी पी ले, पढ़ ले वगैरह-वगैरह, लेकिन मुझे यह सब बोझ लगता था। मैं एकांत चाहता था।
मां की इच्छा थी कि मैं डॉक्टर बनूं, लेकिन मेरा पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं लग रहा था। मैंने उनसे पूछा कि पढ़ना क्यों है? वो कहने लगीं- जिंदगी जीने के लिए कुछ तो करेगा। मैंने कहा कि जीना क्यों है? मर ही तो जाना है, तो क्या मैं मरने के लिए जिऊं? यह सब 12वीं क्लास तक चलता रहा। मां के दबाव में किसी तरह फार्मेसी की पढ़ाई कर ली। परिवारवालों ने केमिस्ट की दुकान खोलकर दे दी। उसके एक महीने के बाद शादी भी कर दी।
मैंने पत्नी से साफ कह दिया कि वो जैसे जिंदगी जीना चाहे, जी सकती हैं, लेकिन मेरे मामले में दखल न दे। शादी के एक साल बाद ही मैं घर छोड़कर आनंदपुर साहिब की पहाड़ियों पर चला गया, लेकिन पत्नी ने मुझे ढूंढ लिया।
उन्होंने पूछा कि बच्चे का क्या होगा? तो मैंने कहा कि बच्चे के जीने के लिए हवा, पानी, मिट्टी और कुदरत चाहिए न कि रुपया, पैसा, जमीन और दूसरे सुख। मुझे मेरे माता-पिता पर तरस आता था। वो मेरे इस रूखे व्यवहार पर रोते थे। मुझे अंदर से तो दुख होता था, लेकिन मैं चाहता था कि मां-बाप को जल्दी आदत पड़ जाए कि उनका बेटा ऐसे ही रहेगा।
एक दिन मेरे अंदर से आवाज आई कि मैं डिप्रेशन के मरीजों के लिए काम करूं, यह मेरा फर्ज है। गाहे बगाहे चौराहों-रास्तों पर ऐसे लोग मिलते तो मैं उनसे बातें करने लगता। रातभर रेलवे स्टेशन पर बैठा उनसे बातें करते रहता। एक रात मैं फतेहगढ़ साहिब वाली अपनी केमिस्ट की दुकान बंद करके जा रहा था तो एक आदमी मिला। उसने तीन-तीन कमीजें पहनी थीं। वो बहुत गंदा था।
मैंने उससे पूछा कि तीन कमीजें क्यों पहनी हैं? इस पर वह बोला, जिस दिन फकीरी का अहसास हो गया न उस दिन यह सवाल खत्म हो जाएगा। यह बात सुनकर मैं खुश हो गया। लगा कि मुझे मेरे जैसा मिल गया है।
मैंने उसे खाने के लिए पंजीरी दी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसे कहां लेकर जाऊं। हम दोनों ने फतेहगढ़ साहिब से ट्रेन पकड़ी और कुराली आ गए। जैसे ही मैं अपनी गली में घुसा मुझे लगा कि मैं अपनी सोच को परिवार पर नहीं थोप सकता। मैं उसे लेकर लौट गया।
हमारी कुछ बसें एक स्कूल में लगी हुई थीं। मैंने उन स्कूल वालों से कहा कि वो इस आदमी को आज की रात रख लें, लेकिन उन्होंने कहा का यह तो आतंकवादी लगता है। अब मैं उसे लेकर रेलवे स्टेशन चला गया। हम दोनों रातभर वहां रहे। अगले दिन मैं उसे लेकर अपने ससुराल चला गया। पत्नी मायके में ही थी। मेरी सास ने कोई सवाल नहीं पूछा। उन्हें लगता था कि लोगों को मुझे समझना चाहिए।
उस मैले-कुचैले आदमी को देखकर मुझे लगा कि मैंने अभी तक अपना जमीर मारा है, लेकिन अब और नहीं। मैं इस आदमी को सही करके इसके घर पहुंचाकर रहूंगा। मैंने उसे नहलाया, खाना खिलाया। दो-तीन दिन में वो ठीक हो गया। उसने बताया कि वो मैकेनिकल इंजीनियर है। उसका एक भाई कुराली में रहता है। उसे कोई सदमा लगा था, जिस वजह से वो ऐसा हो गया था। खैर वो कुछ दिन के बाद अपने भाई के पास चला गया।
अब मुझे इस बात का अहसास होने लगा कि ऐसे लोगों के लिए एक घर होना चाहिए। जहां इनका इलाज हो सके। जहां से उन्हें कोई निकाल न सके। हालांकि मेरे लिए यह फैसला लेना आसान नहीं था। फिर तय किया कि जितना रास्ता पता है, उतना तो चलना शुरू करूं, बाकी बाद में देखेंगे। इसके बाद मैंने केमिस्ट की दुकान पर बैठना बंद कर दिया। सारा दिन डिप्रेशन के शिकार और मानसिक रोगियों के साथ रहने लगा। मैं पत्नी से जेब खर्च लेता और दूसरों पर भी खर्च करता।
एक दिन तो सारे रिश्तेदार मेरे खिलाफ जमा हो गए और मुझे फर्ज पूरा करने को कहने लगे। मैंने जवाब दिया- तुम लोग साल-साल भर का गेंहू घर में जमा कर लेते हो। पता है कि कितने लोग भूखे मर रहे हैं। नानक ने भी तो छोटी उम्र में घर छोड़ दिया था। मेरे पास उनके हर सवाल का जवाब था।
इसके बाद मैं चंडीगढ़ के जाने माने साइकाइट्रिस्ट डॉ. चावन से मिला। मेरे पास तब करीब 25 मानसिक रोगी थे। मैंने डॉक्टर से कहा कि आप इनका इलाज कर दो। डॉक्टर ने मुझे सौ तरह की सरकारी दिक्कतें बताते हुए इलाज से इनकार कर दिया। मैं निराश लौट आया।
अब मैंने चंडीगढ़ में सेक्टर 44 में किराए पर दो कमरे लिए और कुछ मानसिक रोगियों को वहां रखा। मैं खुद ही उनकी देखभाल और इलाज करता। उनसे बातें करता। उनके साथ वक्त बिताता। इसी तरह चौराहों से मानसिक रोगियों को पकड़-पकड़ कर उन्हें नहलाता-धुलाता।
इसी दौरान कुलदीप सिंह नाम के एक सज्जन को मेरे काम के बारे में पता लगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मोहाली के खरड़ में उनका प्लॉट है। वो वहां घर बनाने जा रहे हैं तो मैं उनका प्लॉट ले लूं। उनकी बहुत जिद पर मैंने वो प्लॉट ले लिया और इन लोगों के लिए एक घर बनाया।
इस बीच किसी ने इस बारे में डॉ. चावन को बताया। लगभग तीन साल बाद वो यहां विजिट करने आए। हैरानी से बोले- अरे तुमने शुरू कर दिया। मैंने कहा कि नहीं, शुरू नहीं किया, बस हो गया। उसके बाद डॉ. चावन ने हमारी इतनी मदद कि मैं बता नहीं सकता। वक्त बीतता रहा। हमने और बड़ा घर बना लिया।
आज हमारे यहां करीब 400 लोग रहते हैं। इनमें घर से निकाले हुए बुजुर्ग हैं, रेप विक्टिम औरतें हैं, मानसिक रोगी हैं। घर के बाहर एक पालना लगा है। वहां लोग रात में चुपके से बेटियों को छोड़ जाते हैं। हर दिन यह देखकर लगता है कि समाज बहुत प्रदूषित हो चुका है। यहां हर किसी की दिल दहला देने वाली कहानियां हैं। डरावनी कहानियां हैं। मुझे लगता है कि इंसानियत का अकाल पड़ चुका है।
एक दिन हमें किसी ने बताया कि फलां जगह चले जाओ। एक बुजुर्ग जमीन पर लेटा है। बहुत बीमार है। जनवरी की घने कोहरे वाली शाम थी। वहां जाने के बाद मैंने देखा कि एक बुगुर्ज गन्ने के सूखे छिलकों पर सिकुड़ा है। उस पर पतला सा कंबल है। मैंने उसे पुकारा तो बोला कि खबरदार अगर मेरे पास आए तो, मैं बहुत गंदा हूं, सात दिन से पेशाब-लैट्रीन यहीं कर रहा हूं।
मैंने उन्हें समझाया और किसी तरह उनके पास गया तो वो कहने लगे कि मुझे यहां गड्ढा खोदकर जिंदा गाड़ दो। मैं अस्पताल नहीं जाऊंगा। या तो अपने साथ ले जाओ या मार दो। किसी तरह हम उन्हें अपने सेंटर में लेकर आए। नहलाया-धुलाया। कुछ दिन के बाद वे ठीक होने लगे।
एक दिन चमकौर साहिब से कुछ लोग आए तो उन्होंने उस बुजुर्ग को पहचान लिया। उन्होंने बताया कि वो तो उनके मोहल्ले के हैं। कुछ दिन बाद उनका बेटा लेने आया, लेकिन वो नहीं गए। कुछ दिनों बाद वह दोबारा आया तो भी वे बुजुर्ग उसके साथ नहीं गए। जब उनका बेटा तीसरी बार आया तो मैंने उनसे कुछ दिन बाद लौटने को कहा, तब जाकर वे जाने के लिए तैयार हुए।
हाल ही कि बात है। एक फोन आया कि मोहाली की एक कोठी से बहुत बदबू आ रही है। हम अपनी टीम के साथ उस कोठी में गए तो देखा एक बुजुर्ग पैरालाइज्ड पड़े हैं। वे फर्श पर लेटे हुए हैं और कई महीनों से पेशाब और लैट्रीन वहीं कर रहे हैं। उनके एक दोस्त ने उनके लिए टिफिन लगवाया हुआ था। टिफिन वाले ने बताया कि घर के अंदर से बदबू आ रही है। आसपास की कोठियों में जब उनके मल-मूत्र की बदबू फैलने लगी तो लोगों को पता लगा।
हम उन्हें अपने सेंटर लेकर आए तो वो कहने लगे कि मुझे जहर दे दो, लेकिन हमें घर मत भेजो। यह कहानी सिर्फ इस बुजुर्ग की नहीं है, ऐसी अनगिनत कहानियां हैं। एक सचिव स्तर की रिटायर महिला जो डिमेंशिया की शिकार थीं। मोहाली के एक चौराहे पर मिलीं। उनके परिवार को उनकी कोई चिंता नहीं थी। जब प्रशासन से भी कुछ लोग उस महिला तक पहुंचे तो कहने लगीं कि आप लोग बहुत देर से आए हैं।
मेरे यहां करीब एक 10-12 साल की लड़की ने बच्चे को जन्म दिया। उसका रेप हुआ था। कई दिनों तक बेहोश रही थी। उसका हाल देखकर मेरा कलेजा फट गया था। इसी तरह हमें एक 13 साल की बच्ची मिली। उसके साथ भी रेप हुआ था। उसने भी एक बच्चे को जन्म दिया था। मतलब हमारे पास एक दिन में 10 साल की रेप विक्टिम भी आई और 80 साल की रेप विक्टिम भी। आप ही बताओ न कि समाज कहां जा रहा है?
मैं हर दिन इंसानियत का जनाजा देखता हूं। हर कोई अपने बच्चों को ऑफिसर बनाना चाहता है, लेकिन कोई इंसान नहीं बनाना चाहता है। घरों में बुजुर्ग अकेले पड़े मर रहे हैं, उन्हें घरों से निकाला जा रहा है, किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है। हमारे यहां इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की टॉपर रही एक बुजुर्ग महिला है। उसका बेटा उसे बार-बार बोलता था कि तुमने हमारी जिंदगी खराब कर दी है, नरक कर दी है। तंग आकर बिना किसी को बताए उस महिला ने घर छोड़ दिया। उसे कभी किसी ने ढूंढा ही नहीं।
यहां बुजुर्ग जब मेरे सामने हाथ जोड़ते हैं कि मर जाएंगे, लेकिन घर नहीं जाएंगे तो मुझे लगता है कि कैसा समाज बना दिया है हम लोगों ने। समाज में अच्छा इंसान तैयार हो सके, हमने ऐसा कोई सिलेबस नहीं बनाया, हमने ऐसा सिलेबस बनाया है कि बच्चा ऑफिसर बन सके। धर्म, मीडिया, परिवार सब जगह से इंसानियत मर चुकी है। अपराध करने के लिए वातावरण तैयार हो रहा है।
जब पालने से बेटियों को उठाकर लाता हूं तो लगता है कि इंसान से अच्छे जानवर हैं। जानवर कभी अपने बच्चों को नहीं छोड़ता है। जानवर से इंसान की तुलना करना भी जानवर की बेइज्जती लगता है।
शमशेर सिंह ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर की हैं...
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