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पिछले लोकसभा चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक तस्वीर वायरल हुई थी। इसमें प्रधानमंत्री एक गुफा के अंदर बैठे ध्यान करते हुए दिख रहे थे। तस्वीर उत्तराखंड के केदारनाथ की थी। जिस गुफा में मोदी बैठे थे, वह कभी संन्यासियों की हुआ करती थी। केदारनाथ के विधायक मनोज रावत बताते हैं कि करीब बीस साल पहले तक भी इस गुफा में एक माई रहती थीं, जो सांसारिक जीवन त्याग चुकी थीं।
अब यह पूरा इलाका ऐसे बाजार में बदल चुका है, जहां इस गुफा की भी एडवांस बुकिंग होने लगी है। इस गुफा में अब बिजली की व्यवस्था है, बिस्तर लगा है। गर्म पानी के लिए गीजर है और साथ ही एक अटैच टॉयलेट-बाथरूम भी बना दिया गया है। प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर वायरल होने के बाद से इस गुफा में रहने वाले पर्यटकों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि लोग दो-दो महीने पहले ही इसकी बुकिंग करवाने लगे हैं। हिमालय के केदारनाथ जैसे ऊंचे पर्वतीय इलाकों में इस तरह के निर्माण और इंसानी दखल खतरनाक है। लेकिन, ऐसे निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे हैं।
ऋषिगंगा जैसी त्रासदी के लिए चारधाम जैसे प्रोजेक्ट जिम्मेदार
चमोली की ऋषिगंगा में आई तबाही के बाद पहाड़ों पर ऐसे निर्माणों को लेकर सवाल उठ रहे हैं। सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है - चारधाम प्रोजेक्ट। इस प्रोजेक्ट के तहत उत्तराखंड के केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को जोड़ने वाली सड़क का चौड़ीकरण हो रहा है।
इसकी शुरुआत 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। इस योजना पर पर्यावरणविद् शुरू से सवाल उठाते रहे हैं। चमोली की ऋषिगंगा नदी में आई आपदा के बाद पर्यावरण कार्यकर्ता प्रोफेसर रवि चोपड़ा ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में कहा गया है कि चमोली में आई आपदा के पीछे कहीं न कहीं चारधाम जैसे प्रोजेक्ट भी जिम्मेदार हैं। रवि चोपड़ा उस हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष भी हैं, जिसका गठन सुप्रीम कोर्ट ने चारधाम परियोजना की वजह से होने वाले पर्यावरणीय व सामाजिक प्रभावों के आकलन के लिए किया था।
इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं, 'हिमालय और प्रकृति के प्रति हमारे पूर्वज हमसे कहीं ज्यादा दूरदर्शी और जागरूक थे। आज से हजारों साल पहले, जब आधुनिक मशीनों का निर्माण नहीं हुआ था, उन्होंने तब 12 हजार फीट की ऊंचाई पर केदारनाथ जैसा विशाल मंदिर बना दिया। जब मंदिर बन सकता था और भी निर्माण किए जा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मंदिर आस्था का केंद्र था और लोग पैदल वहां दर्शन के लिए पहुंचा करते थे। और, आज हमने केदारनाथ मंदिर के आसपास पूरा बाजार बना दिया है। मंदिर तक पहुंचने के लिए सीधे हेलिकॉप्टर तैनात हैं। यह बताता है कि हम हिमालय की संवेदनशीलता को नहीं समझते। चारधाम परियोजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।’'
EIA असेसमेंट से बचने के लिए चारधाम परियोजना को 53 टुकड़ों में बांटा गया
पर्यावरण कार्यकर्ताओं का आरोप है कि चारधाम परियोजना को पूरा करने के लिए सरकार ने तमाम नियम-कायदों की अनदेखी की है। इसमें सबसे बड़ा आरोप यह है कि EIA यानी एन्वॉयरनमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट से बचने के लिए इस एक परियोजना को कई छोटी-छोटी परियोजनाओं में दिखाया गया है।
100 किलोमीटर से लंबी किसी भी परियोजना के लिए EIA अनिवार्य होता है। EIA के नियम पारिभाषित नहीं हैं, बल्कि इसके तहत केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय विशेषज्ञों द्वारा यह जांच करवाता है कि किसी बड़ी परियोजना का पर्यावरण पर क्या असर पड़ सकता है। EIA के बाद अगर पर्यावरण मंत्रालय अनुमति देता है, तभी ऐसी कोई परियोजना शुरू की जा सकती है।
चारधाम परियोजना कुल 889 किलोमीटर की है, लेकिन इसके बावजूद इस परियोजना का EIA नहीं हुआ। वह इसलिए कि सरकार ने इस पूरी परियोजना को 53 अलग-अलग ‘सिविल प्रोजेक्ट्स’ में बांट दिया जो कि सभी 100 किलोमीटर से छोटे थे। लिहाजा EIA के प्रावधान को ही बाईपास कर दिया गया।
इस परियोजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए यह मुद्दा याचिकाकर्ताओं ने भी उठाया था। इसके जवाब में सरकार का तर्क था कि यह पूरी परियोजना पुरानी सड़कों के ही चौड़ीकरण की है और इस पर लोक निर्माण विभाग अलग-अलग टुकड़ों में काम करेगा इसलिए ऐसा किया गया है। हालांकि, सरकार के इस तर्क के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पावर कमेटी गठित कर दी। जिसे इस परियोजना से होने वाले संभावित दुष्प्रभावों पर रिपोर्ट तैयार करनी है।
अपने बनाए नियम ही भूल गई सरकार
सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई हाई पावर कमेटी के सदस्य हेमंत ध्यानी कहते हैं, 'इस परियोजना के लिए सरकार ने सिर्फ एक यही चालाकी नहीं की। 2018 में सड़क एवं परिवहन मंत्रालय ने ही सर्कुलर जारी किया था कि पहाड़ों में सड़कों के डामर वाला हिस्सा (ब्लैक-टॉप) 5.5 मीटर से ज्यादा चौड़ा नहीं होना चाहिए, लेकिन चारधाम परियोजना में इस नियम को भी तोड़ दिया गया और सड़क के ब्लैक-टॉप की चौड़ाई दस मीटर तक कर दी गई।'
इतनी चौड़ी सड़क बनाने के लिए दुनिया की सबसे ऊंची और सबसे नई पर्वत शृंखला में पहाड़ों और पेड़ों को बड़ी मात्रा में काटा जा रहा है। इसके लिए अब तक 56 हजार से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं और 36 हजार के करीब पेड़ मार्क किए गए हैं, जिन्हें और काटा जाना है। जानकार मानते हैं कि असल में काटे गए पेड़ों की संख्या इससे काफी ज्यादा है क्योंकि इसमें वे पेड़ शामिल नहीं हैं, जो पहाड़ काटने के दौरान उसके साथ गिर गए या इस परियोजना के कारण हुए भूस्खलन की चपेट में आ गए।
हेमंत ध्यानी बताते हैं, 'इस परियोजना के तहत बन रहे तीन हाईवे में 161 जगह जमीन दरक चुकी है। इसका ट्रीटमेंट सालों तक होता रहेगा, फिर भी पहाड़ों का दरकना बंद नहीं होगा। चारधाम प्रोजेक्ट के चलते हो रहा लैंडस्लाइड कई लोगों की जान भी ले चुका है। इसमें तीन लोग तो एक ही परिवार के थे, जिनका घर ऋषिकेश के पास हुए लैंडस्लाइड के मलबे में दब गया। इसी प्रोजेक्ट के कारण रुद्रप्रयाग के चंडीधार में भी आठ लोग एक साथ मलबे की चपेट में आने से मौत के मुंह में चले गए थे। इनमें उमा देवी भी शामिल थीं जो इस परियोजना के खिलाफ खुद एक याचिकाकर्ता थीं।
चारधाम परियोजना की मौजूदा स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके तहत बन रही सड़क के ब्लैक-टॉप को 5.5 मीटर तक ही चौड़ा रखने के निर्देश दिए हैं, लेकिन इस निर्देश के आने तक पहले चरण में बन रही कुल 662 किलोमीटर सड़क में से 537 किलोमीटर सड़क को 12 मीटर चौड़ा बनाने के लिए काटा जा चुका था। अब सरकार इसी बात को आधार बनाकर बाकी बची सड़क भी उतनी ही चौड़ी रखने की मांग कर रही है।
दूसरी तरफ, पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि खुद सड़क-परिवहन मंत्रालय के सर्कुलर के अनुसार इतनी चौड़ी सड़क पर आठ हजार वाहन प्रतिदिन जा सकते हैं और भारी से भारी वाहनों के लिए यह पर्याप्त है। इन लोगों का कहना है कि जहां सड़क का कटान हो भी चुका है, वहां भी ब्लैक-टॉप 5.5 मीटर ही रखा जाए और बाकी जगह पर पेड़ लगाए जाएं और फुटपाथ बनाए जाएं। चारधाम यात्रा के लिए कई लोग पैदल आते हैं, जिनके चलने के लिए फिलहाल कोई अलग जगह नहीं है।
हेमंत ध्यानी कहते हैं, 'चारधाम की अपनी अहमियत है। लोगों के लिए इन धामों के दर्शन सुलभ होने चाहिए। इसके लिए सरकार को यह करना चाहिए था कि इन धामों को जोड़ने वाली सड़क जहां संकरी थी या जहां मरम्मत की जरूरत थी, वहां काम किया जाता, लेकिन पूरी 900 किलोमीटर की सड़क के लिए पहाड़ों को एकतरफा काट देना हिमालय से खिलवाड़ है।' वे आगे कहते हैं, 'जब सड़क इस पैमाने पर चौड़ी की जाती है या नई बनती है तो उसके लिए बड़े-बड़े स्टोन क्रशर और हॉट मिक्स प्लांट भी लगते हैं। इस तरह के हॉट मिक्स प्लांट कई ऐसी जगह भी लगा दिए गए हैं, जो ग्लेशियर्स के बहुत नजदीक हैं। इनका प्रदूषण ग्लेशियर्स को कितना नुकसान पहुंचा रहा है, इसका तो अभी आकलन भी नहीं किया गया है।'
पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं, 'ये पहाड़-पर्वत और ये धाम उत्तराखंड के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह हैं। सरकार मुर्गी को मारकर सारे अंडे एक साथ निकाल लेने की सोच रही है। ये संवेदनशील इलाके हैं, जिनकी अपनी क्षमताएं हैं। इन पर बांध भी बनाए जा रहे हैं, पेड़ और पहाड़ भी काटे जा रहे हैं। जिन बुग्यालों में रात को कैम्पिंग के लिए छोटे-छोटे टेंट तक लगाने की मनाही है, वहां सरकार बड़े-बड़े पूंजीपतियों को शादी के शामियाने लगाने की अनुमति दे रही है। मुनाफा कमाने के लिए प्रकृति को ताक पर रख दिया गया है। ये परियोजना असल में चार-धाम परियोजना नहीं, बल्कि चार-दाम परियोजना है।'
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