पंथबैल मरने पर सिर मुंडवाते हैं, मृत्युभोज देते हैं:एक बैल की कीमत 5 लाख तक; बॉडी बिल्डर्स वाली प्रोटीन डाइट, क्या है जल्लीकट्टू

मदुरई, तमिलनाडु3 महीने पहलेलेखक: मनीषा भल्ला
  • कॉपी लिंक

तमिलनाडु के लोग बैल को भगवान शिव का वाहन मानते हैं। उसकी पूजा करते हैं। उनके लिए बैल भाई-बाप की तरह है। उसके मरने के बाद रिश्तेदारों को शोक संदेश भेजते हैं। उसका मृत शरीर फूलों से सजाते हैं। इंसानों की तरह जनाजा निकालते हैं और पवित्र जगह पर दफनाते हैं।

घर लौटने के बाद अपना सिर मुंडवाते हैं। गांव के लोगों को मृत्यु भोज देते हैं। कुछ दिनों बाद उस बैल का मंदिर भी बनाते हैं और हर साल उसकी पूजा करते हैं।

करीब 2500 सालों से बैल तमिलनाडु के लोगों के लिए आस्था और परंपरा का हिस्सा रहा है। यहां के लोग हर साल खेतों में फसलों के पकने के बाद मकर संक्रांति के दिन पोंगल त्योहार मनाते हैं। तमिल में पोंगल का मतलब ऊफान या उबलना होता है।

इसी दिन वे नए साल की शुरुआत करते हैं। तीन दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के आखिरी दिन बैलों की पूजा होती है। उन्हें सजाया-संवारा जाता है। फिर शुरू होता है जल्लीकट्टू।

पोंगल के तीसरे दिन जल्लीकट्टू खेल की शुरुआत होती है।
पोंगल के तीसरे दिन जल्लीकट्टू खेल की शुरुआत होती है।

'जल्लीकट्टू' तमिल शब्द है। यह 'कालीकट्टू' से बना है। 'काली' का मतलब कॉइन (Coin) यानी सिक्का और 'कट्टू' का मतलब बांधना होता है। पहले बैलों के सींग पर सिक्कों की पोटली बांध दी जाती थी और जीतने वाले को इनाम में वहीं पोटली मिलती थी। इसमें एक एंट्री गेट से बैलों को छोड़ा जाता है। जो शख्स 15 मीटर के दायरे में बैल को पकड़ लेता है, वह विजेता हो जाता है।

पंथ सीरीज में इसी जल्लीकट्टू परंपरा को समझने मैं पहुंची चेन्नई से 462 किलोमीटर दूर मदुरई…

मदुरई से 15 किलोमीटर दूर वरचुर गांव। जल्लीकट्टू की तैयारियां जोरों पर हैं। बैलों की दौड़ वाले जगह का रिनोवेशन चल रहा है। मंदिर सजाए जा रहे हैं। कोई बैलों को दौड़ा रहा है। कोई बैलों को खिलाने में जुटा है, तो कोई जाली के बाहर से बैलों को अटैक करने की ट्रेनिंग दे रहा है। ब्रूसली, जेट ली, राजा, रामू, सवलई, रुद्रा, राणा ये सब बैलों के नाम हैं।

इन बैलों को पिछले दो महीने से बॉडी बिल्डर्स की तरह प्रोटीन की स्पेशल डाइट दी जा रही है।
इन बैलों को पिछले दो महीने से बॉडी बिल्डर्स की तरह प्रोटीन की स्पेशल डाइट दी जा रही है।

वीराना प्रकाश इन बैलों को जल्लीकट्टू के लिए तैयार कर रहे हैं। वे बताते हैं, ‘जल्लीकट्टू की तैयारियां दो महीने पहले से शुरू हो चुकी हैं। बैल स्पेशल डाइट पर हैं। हम उन्हें खाने में प्रोटीन पाउडर, खजूर, मेवे और कॉर्न पाउडर दे रहे हैं। इसके अलावा कॉटन सीड, राइस सीड, वीट सीड, उड़द और तुअर की मिक्स भिगोई हुई दाल भी बैलों को खिलाते हैं। क्योंकि जल्लीकट्टू पावर और स्टेमिना का खेल है।

खाना खिलाने के बाद बैलों को एक्सरसाइज कराई जाती है। उन्हें कई घंटे पैदल चलाया जाता है। तालाब में तैरने के लिए छोड़ दिया जाता है। इससे बैल फिट रहते हैं और उनकी भूख भी बढ़ती है। हर दिन वेटरनरी डॉक्टर यहां आते हैं और बैलों का मेडिकल टेस्ट करते हैं। अगर बैल बीमार होता है या अनफिट होता है, तो उसे खेल से निकाल दिया जाता है।’

जल्लीकट्टू में आमतौर पर पुलीकोलम, कांगेअम, उपड़ाचेरी, आलमबाड़ी नस्ल के बैलों का इस्तेमाल होता है। इनमें सबसे मंहगी नस्ल पुलीकोलम है। इन बैलों की कीमत डेढ़ लाख रुपए लेकर पांच लाख रुपए तक होती है। ये बैल करीब 15 साल तक जिंदा रहते हैं और अपनी अंतिम सांस तक जल्लीकट्टू खेलते हैं।

खाना खिलाने के बाद बैलों को एक्सरसाइज कराई जाती है। उन्हें कई घंटे पैदल चलाया जाता है।
खाना खिलाने के बाद बैलों को एक्सरसाइज कराई जाती है। उन्हें कई घंटे पैदल चलाया जाता है।

वीरापांडी गांव के रहने वाले विनोद राज तमिलनाडु पुलिस में हेड कॉन्स्टेबल हैं। आज कल दिन-रात बैलों की सेवा में जुटे हैं।

वे बताते हैं, ‘जल्लीकट्टू में हिस्सा लेने वाले बैल कोई और काम नहीं करते हैं। इनका इस्तेमाल सिर्फ खेल के लिए ही होता है। बाकी पूरे साल ये आराम करते हैं। हमारे लिए ये घर के सदस्य की तरह हैं। हम इनके साथ खेलते हैं, टाइम स्पेंड करते हैं।

मैंने सोचा था बेटा होगा तो उसका नाम ब्रूसली रखूंगा, लेकिन नहीं हुआ। फिर मैंने अपने बैल का नाम ही ब्रूसली रख लिया। आखिर ये भी तो हमारा बेटा ही है। उसी तरह दूसरे बैल का नाम जेटली रखा है।

मेरे पास अभी 16 बैल हैं। इनमें से जेटली को मैंने दो साल पहले 95 हजार रुपए में खरीदा था। वह 20 बार जल्लीकट्टू जीत चुका है। अब इसकी कीमत 5 लाख रुपए हो गई है। लोग मुंह मांगी कीमत देने को तैयार हैं।’

जल्लीकट्टू में भाग लेने वाले बैल खेती का काम नहीं करते हैं। वे सिर्फ जल्लीकट्टू के लिए ही इस्तेमाल किए जाते हैं।
जल्लीकट्टू में भाग लेने वाले बैल खेती का काम नहीं करते हैं। वे सिर्फ जल्लीकट्टू के लिए ही इस्तेमाल किए जाते हैं।

विनोद कहते हैं, ‘इन बैलों को साधना आसान नहीं होता है। आप मेरे किसी भी बैल को हाथ नहीं लगा सकती हैं। अगर लगाएंगी तो वह आपको अपने सींग से दूर पटक देगा। उसे सिर्फ मैं ही हाथ लगा सकता हूं। हर बैल के साथ ऐसा ही है। उसके मालिक के अलावा कोई और हाथ नहीं लग सकता।

इसी वजह से हर साल जल्लीकट्टू में तीन से चार मौतें हो जाती हैं। इसलिए मैं नए खिलाड़ियों को बैलों को साधने की ट्रेनिंग देता हूं।’

वीराना प्रकाश बताते हैं, ‘तमिलनाडु में तीन दिन का पोंगल होता है। पहले दिन भगवान इंद्र की पूजा की जाती है। अच्‍छी बरसात के लिए प्रार्थना की जाती है। इस दिन सभी अपने घर से पुराने कपड़े इकट्ठे करते हैं और शाम में जला देते हैं।

वीराना प्रकाश बताते हैं कि इन बैलों की कीमत डेढ़ लाख रुपए लेकर पांच लाख रुपए तक होती है।
वीराना प्रकाश बताते हैं कि इन बैलों की कीमत डेढ़ लाख रुपए लेकर पांच लाख रुपए तक होती है।

दूसरे दिन को नए चावल से विशेष प्रकार की खीर बनाई जाती है। यही खीर भगवान सूर्य को भोग लगाई जाती है। तमिलनाडु के लोग मानते हैं कि सूर्य की कृपा से ही उनकी फसल अच्छी होती है। इस दिन वे खीर का भोग लगाकर सूर्य को धन्यवाद देते हैं।

तीसरे दिन बैलों को अच्छे से नहलाया जाता है। उनके शरीर की मालिश की जाती है। उनकी पूजा की जाती है। इसे मट्टू पोंगल कहते है। तमिल परंपरा के लोगों की मान्यता है कि बैलों की वजह से ही उनके घर में अन्न और खुशहाली है।

कुछ इस तरह पोंगल के तीसरे दिन बैलों की पूजा की जाती है।
कुछ इस तरह पोंगल के तीसरे दिन बैलों की पूजा की जाती है।

इसके पीछे तमील लोगों की एक मान्यता भी है…

मट्टू नाम का बैल भगवान शिव का वाहन है। एक बार शिव जी ने उसे धरती पर भेज दिया और कहा कि वह इंसानों से जाकर कहे कि बेहतर जिंदगी के लिए लोग हर दिन तेल लगाकर स्नान करें, लेकिन मट्टू पूरी बात भूल गया। उसने धरती पर आकर लोगों से कह दिया कि वे लोग उसे हर दिन तेल लगाकर स्नान कराएं। इससे शिव क्रोधित हो गए।

उन्होंने मट्टू को श्राप दिया कि वह अब धरती पर ही रहे। तब से मट्टू धरती पर ही रह गया और खेतों की जुताई में करने लगा। बाद में वहीं से बैलों से खेत जोतने की परंपरा की शुरुआत हुई। ट्रैक्टर के आने के बाद भी तमिलनाडु में कई किसान आज भी खेती के लिए बैलों का इस्तेमाल करते हैं।

एंट्री गेट से इसी तरह बैल बाहर निकलता है और खिलाड़ी उसे काबू करने की कोशिश में जुट जाते हैं।
एंट्री गेट से इसी तरह बैल बाहर निकलता है और खिलाड़ी उसे काबू करने की कोशिश में जुट जाते हैं।

बैल की पूजा करने के बाद जल्लीकट्टू का खेल शुरू हो जाता है। इसके लिए एक खास जगह तय की जाती है। खेल के लिहाज से उसका रिनोवेशन कराया जाता है। खेल में भाग लेने वाले बैलों को एक बाड़े में रखा जाता है। उस बाड़े के बाहर एक एंट्री गेट होता है। इसी एंट्री गेट के जरिए एक-एक करके बैल छोड़े जाते हैं।

बैल को एंट्री पॉइंट पर रूमाल दिखाया जाता है। बाहर बड़ी संख्या में खिलाड़ी रहते हैं। बैल के निकलते ही खिलाड़ी उसे काबू में करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। कोई बैल को पीछे से पकड़ने की कोशिश करता है तो कोई उसकी गर्दन पकड़कर काबू करने की कोशिश करता है।

इसके लिए 15 मीटर का दायरा फिक्स होता है। अगर कोई खिलाड़ी 15 मीटर के भीतर बैल को अपने काबू कर लेता है। यानी 15-20 मिनट तक बैल को रोक कर रखता है, तो वह विजेता हो जाता है। उसे कमेटी की तरफ से इनाम मिलता है। अगर इस दौरान बैल आगे निकल जाता है, तो बैल को विनर घोषित कर दिया जाता है। जीतने वाले बैल को भी इनाम मिलता है।'

अगर कोई खिलाड़ी 15 मीटर के भीतर बैल को अपने काबू में कर लेता है, तो वह विजेता घोषित हो जाता है।
अगर कोई खिलाड़ी 15 मीटर के भीतर बैल को अपने काबू में कर लेता है, तो वह विजेता घोषित हो जाता है।

पोंगल के बाद जल्लीकट्टू की शुरुआत हो जाती है, जो मई तक चलती है। इस दौरान अलग-अलग मौकों पर इसका आयोजन होता रहता है।

जल्लीकट्टू के दिन तमिलनाडु के लोग या तो मैदान में होते हैं या घरों में टीवी से चिपके होते हैं

सालों से जल्लीकट्टू को करीब से देखने वाले राम कुमार बताते हैं, ‘जल्लीकट्टू में भाग लेने वाले बैल हमारे लिए शान का प्रतीक हैं। जैसे आप महंगी गाड़ी खरीदते हैं, नया घर खरीदते हैं, वैसे ही हम अच्छी नस्ल का और मजबूत बैल खरीदते हैं।

हम बैलों का खेल देखकर और उनके साथ खेलकर ही बड़े हुए हैं। जिस दिन जल्लीकट्टू होता है, उस दिन तमिलनाडु के लोग या तो खेल वाली जगह के पास होते हैं या अपने घरों में टीवी से चिपके हुए। सड़कों पर सन्नाटा पसरा होता है। क्रिकेट की तरह लाइव कमेंट्री होती है। यहां के सभी चैनल जल्लीकट्टू ही दिखाते हैं। CM से लेकर बड़े-बड़े नेता-अभिनेता जल्लीकट्टू देखने आते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने जल्लीकट्टू पर फैसला सुरक्षित रखा है

जल्लीकट्टू विवादों में भी रहा है। इस पर राजनीति भी खूब हुई है। कुछ लोगों का मानना है कि इस खेल में बैलों के साथ ज्यादती की जाती है। इंसानों की भी जान जाती है। लिहाजा इस पर रोक लगनी चाहिए।

जल्लीकट्टू खतरनाक खेल है। इसमें कई लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। कुछ लोगों की जान भी चली जाती है।
जल्लीकट्टू खतरनाक खेल है। इसमें कई लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। कुछ लोगों की जान भी चली जाती है।

जानवरों की सुरक्षा करने वाली संस्था पेटा इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गई। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इसके बाद तमिलनाडु सरकार ने केंद्र से इस त्योहार को जारी रखने के लिए अध्यादेश लाने की मांग की।

2016 में केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की और कुछ शर्तों के साथ जल्लीकट्टू के आयोजन को हरी झंडी मिल गई। मसलन पूरी प्रतियोगिता की वीडियोग्राफी होगी। बैलों का मेडिकल टेस्ट होगा। मौके पर डॉक्टर्स की टीम, DC और SSP मौजूद रहेंगे।

इसके बाद फिर से सुप्रीम कोर्ट में इस पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की गई। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने जल्लीकट्टू पर सुनवाई की और फैसला सुरक्षित रख लिया है।

मदुरई के राजासेकरन बैलों की देखभाल में जुटे हैं। राजासेकरन वहीं व्यक्ति हैं जिन्होंने जलीकट्टू पर प्रतिबंध लगने के बाद उसे बहाल करने करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी।

राजासेकरन कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को लेकर जो नियम बनाए हैं, वह बैलों की सुरक्षा के लिए हैं। हम उन्हें फॉलो करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसके वेन्यू को भी कम किया है। अब यह राज्य में 350 जगहों पर ही होता है। पहले एक हजार से ज्यादा जगहों पर इसका आयोजन होता था।'

अब पंथ सीरीज की ये 2 कहानियां भी पढ़ लीजिए...

1. इंसान का मांस और मल तक खा जाते हैं अघोरी:श्मशान में बैठकर नरमुंड में भोजन, कई तो मुर्गे के खून से करते हैं साधना

कोई चिता के पास नरमुंड लिए जाप कर रहा, तो कोई जलती चिता से राख उठाकर मालिश, तो कोई मुर्गे का सिर काटकर उसके खून से साधना कर रहा है। कई ऐसे भी हैं, जो इंसानी खोपड़ी में खा-पी भी रहे हैं। इन्हें देखकर मन में सिहरन होने लगती है। ये अघोरी हैं। यानी जिनके लिए कोई भी चीज अपवित्र नहीं। ये इंसान का कच्चा मांस तक खा जाते हैं। कई तो मल-मूत्र का भोग करते हैं। (पढ़िए पूरी कहानी)

2. धर्म के नाम पर देह का शोषण: प्रेग्नेंट होते ही छोड़ देते हैं, भीख मांगने को मजबूर खास मंदिरों की देवदासियां

देवदासी। हम सभी ने ये नाम तो सुना ही होगा। किसी ने कहानी में तो किसी ने फिल्म में। देवदासी यानी देवों की वे कथित दासियां जिन्हें धर्म के नाम पर सेक्स स्लेव बनाकर रखते हैं। उम्र ढलते ही भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौंकिए मत। ये प्रथा राजा-महाराजाओं के समय की बात नहीं, आज का भी सच है। (पढ़िए पूरी रिपोर्ट)