क्या आपने कभी सोचा है की मिट्टी और पीतल से बनी कोई चीज सोने की कीमत में भी बिक सकती है? अगर नहीं, तो आज की पॉजिटिव खबर में बात करते हैं छत्तीसगढ़ के झारा आदिवासियों की अनोखी शिल्पकारी की। जिनकी कारीगरी ने न सिर्फ इस समुदाय की दुनिया भर में पहचान दिलाई, बल्कि इनकी लाइफस्टाइल को भी बदल दिया।
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर से लगभग 17 किमी दूर एक गांव एकताल बसा है। यहां करीब 30 आदिवासी परिवार रहते हैं। ये आदिवासी शिल्पकारी में माहिर हैं। इनके अलावा सारंगढ़ से सटे बैगनढीह में भी इस आदिवासी समुदाय के कुछ लोग रहते हैं जो ये बेशकीमती शिल्पकारी कर रहे हैं।
दरअसल, ये आर्ट पीस पीतल से बनता है। इस आर्ट के जरिए आदिवासी समुदाय अपना कल्चर भी उकेरते हैं। ये समुदाय डिजाइनर पत्ते, जानवर, सुंदर बेल-बूटियों से लेकर भगवान की तस्वीर को पीतल के ऊपर बेहद बारीकी से बनाते हैं। ये आर्ट पीस किसी सामान से टकराता है तो इससे घंटी जैसी आवाज आती है, इसीलिए इस आर्ट पीस को ‘बेल मेटल आर्ट’ कहते हैं।
सबसे ज्यादा आदिवासी समुदाय अपने आर्ट में माड़ी-माड़िया, जो इनके भगवान हैं, उनकी तस्वीर बनाते हैं। इसके अलावा ये आदिवासी समुदाय मिट्टी के बने कास्ट पर बैलगाड़ी, म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स, गीत-संगीत गाते-बजाते हुए लोगों की आकृति, मछली-कछुआ और नाव जैसी चीजों को इस आर्ट के जरिए खूबसूरत रूप देते हैं।
आदिवासी समुदाय के भोगीलाल झारा बताते हैं, यदि हमें किसी पेड़ की एक डाल बनानी है तो इसके लिए सबसे पहले हम पेड़ की डाल का एक ढांचा मिट्टी से तैयार करते हैं, फिर इसे सुखाते हैं। इस दौरान हम एक विशेष प्रकार का वैक्स यानी मोम के तार बनाते हैं।
उसके बाद मिट्टी से बने ढांचे पर मोम की परत चढ़ाते हैं। एक बार जब ये ढांचा पूरी तरह से मोम के तारों से ढंक जाता है, तब इस पर दोबारा मिट्टी की एक लेयर चढ़ाई जाती है। इसे सूखने के लिए छोड़ देते हैं।
इसके बाद आग की दो भट्टियां चालू की जाती हैं। एक भट्टी में पीतल को पिघलाया जाता है। इसके लिए जरूरी पीतल को या तो बाजार से खरीदा जाता है या पुराने बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। वहीं, दूसरी भट्ठी में सूख चुके मिट्टी के कास्ट को डाला जाता है। जब ये पक जाता है तो अंदर का सारा मोम पिघल चुका होता है।
मिट्टी के कास्ट में ऊपर की तरफ एक खाली जगह पहले ही छोड़ दी जाती है। इसके जरिए पिघले हुए पीतल को कास्ट के अंदर डाल दिया जाता है। इसके बाद कास्ट पर पीतल की परत चढ़ जाती है।
आखिर में इसकी सफाई की जाती है। इसे बफिंग कहते हैं। कास्ट पर निखार लाने के लिए इसे ऑयल से फिनशिंग की जाती है। एक आर्ट पीस को तैयार होने में करीब 8 दिन का समय लगता है। ये पूरा काम हाथ से किया जाता है। इसमें किसी भी मशीन का प्रयोग नहीं होता है।
बाजार तक कैसे पहुंचता है झारा आर्ट
साल 1981-82 से इस आर्ट की प्रदर्शनी छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले समेत अन्य शहरों और महानगरों में लगाई जा रही है। देशभर में इसकी बहुत अधिक डिमांड है।
ये आर्ट 42 साल पुराना है। इस आर्ट पीस की कीमती का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि अब तक भारत में जितने भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति हुए हैं, उन सभी को ये आर्ट पीस खास मौकों पर गिफ्ट किया जाता रहा है। इसके अलावा फिल्म इंडस्ट्री के हाई प्रोफाइल लोगों भी ये आर्ट गिफ्ट किया जाता है। देश के अलावा विदेशों में भी इन आदिवासियों द्वारा बनाए जा रहे आर्ट पीस की डिमांड है। सालाना लाखों का कारोबार है।
इन आदिवासी समुदाय की आमदनी का ये मुख्य सोर्स है। इसकी मदद से आदिवासी सालाना लाखों रुपए तक कमाई कर रहे हैं। हालांकि, बारिश के मौसम में आज भी इन्हें तंगी का सामना करना पड़ता है। इस समुदाय के कई शिल्पकारों को केंद्र सरकार सम्मानित कर चुकी है। ये आर्टिस्ट अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड से सम्मानित किए जा चुके हैं।
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