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बात बराबरी की:औरत कितना भी खुद को साबित करे, लेकिन मर्द शक करना नहीं छोड़ते; उनका मानना है कि पाबंदियां लगाने से ही औरत सही रास्ते पर चलेगी

नई दिल्लीएक वर्ष पहलेलेखक: मृदुलिका झा
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कभी ईरान की राजधानी तेहरान जाने का मौका मिले तो वहां की एक खास डिश जरूर आजमाइएगा। कश्क-ए-बदेमजान नाम की सब्जीनुमा-चाट वहां लगभग हर जगह दिखती है। गोश्त से भरे मेन्यू में चुनिंदा शाकाहारी चीजों में से एक है ये डिश। ऐसी चटपटी और मसालेदार कि इसे तेहरानी जायका भी कहा जाने लगा। यानी उस शहर की फिजा में जो चटपटापन है, लज्जत है, वह कहीं और नहीं। यहां की सड़कों पर हरबिरंगी लड़कियां दिखेंगी। इत्र-फुलेल की दुकानों पर मुंडियां भिड़ाकर मोलभाव करती हुईं। दावतों में हंसी की घंटियां बजातीं। और दफ्तरों में मर्दाना आवाजों के बीच जनाना आवाज बुलंद करतीं, लेकिन जल्द ही ये सब गायब हो जाएगा। हंसती-खिलखिलाती लड़कियां एलबमों में सजेंगी या फिर यादों में।

दरअसल ईरान की सरकार ने ब्रॉडकास्टिंग कंपनियों को आदेश दिया है कि टीवी या फिल्मों पर खास तरह के दृश्य न दिखाए जाएं। सेंसरशिप उन दृश्यों पर जहां रेस्त्रां में वेटर पुरुष, कस्टमर स्त्री को खाना परोसता दिखे। या दफ्तर में महिलाओं को पुरुष चाय सर्व करते हों। सेंसरशिप उन दृश्यों पर, जहां स्त्री पारदर्शी गिलास में कम दूध वाली चाय या कॉफी पी रही हो, क्योंकि इससे शराब का भ्रम होता है।

इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान ब्रॉडकास्टिंग (IRIB) को सैंडविच खाती औरतें भी खास पसंद नहीं। ये मॉडर्न होती हैं, अधपकी चीजें खाकर अधपके विचार उगलती हैं। लिहाजा सैंडविच भकोसती लड़कियां भी अब पर्शियन फिल्मों का हिस्सा नहीं रहेंगी। ईरान में सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर हल्ला शुरू हो गया, लेकिन सरकारी फरमान जैसे शक्की मर्द का मिजाज बन चुका है। बीवी चाहे जितना कह ले, शक छूटता ही नहीं। उसे यकीन है कि मोटी-सोटी सेंसरशिप से ही पर्शिया की बिगड़ती पीढ़ी रास्ते आएगी।

एक और देश है, सउदी अरब। धनकुबेरों के इस देश में वैसे तो औरतों के पास हर किस्म की आजादी है, लेकिन तभी तक, जब वे घर के भीतर उड़ान भरें। बाहर निकलते ही वे औरत रह जाती हैं, जिनका शरीर ही उनकी पहचान है। कुछ सालों पहले सउदी सरकार ने रेस्त्रां में महिलाओं और पुरुषों के लिए डायनिंग यानी भोजन का बंदोबस्त अलग-अलग कर दिया।

वहां ‘नैतिक शिक्षा’ देने वाली सरकारी कमेटी CPVPV की दलील ये थी कि खाते वक्त महिलाओं को गैर-मर्दों के सामने परदा हटाना पड़ता है, जिससे बड़ा कुफ्र कुछ नहीं। ये भेद खुलते ही खाने के छुटपुट ठिकाने से लेकर बड़े-बड़े होटल तक दनादन महिला-पुरुषों के अलग-अलग कोने बनाने लगे। ऐसे रेस्त्रां में अकेली युवती चिंगारी की तरह थी। उन्हें एंट्री ही नहीं मिलती थी। डर था कि छुट्टा डोलती ये औरतें परदा हटाकर बैठ जाएंगी, सिगरेट फूंकने लगेंगी या मोबाइल पर ठहाके लगाने लगेंगी। ऐसे में परदेदारी का माहौल खराब होते देर नहीं लगेगी।

धीरे-धीरे पति, भाई या पिता के बगैर रेस्त्रां या सिनेमा-हॉल में घुसने वाली युवतियां घटती चली गईं। अब नियम में ढील मिल चुकी है, लेकिन औरतों को गुलामी की आदत लग चुकी है। चींटियां या कीड़े-भुनगे वहां आजाद घूम सकते हैं, पर औरतें नहीं।

पर्शिया की सेंसरशिप से होते हुए चलते हैं 1830 के अमेरिका में। वहां न्यूयॉर्क में डेलमॉनिको नाम से एक रेस्त्रां खुला, जो अपने अंदाज का पहला रेस्त्रां था। इससे पहले कहवाघर या चायघर होते, जहां शराब या चाय-कॉफी की कुछ खास किस्में और भुना हुआ मांस परोसा जाता। यहां लीडर आते, सैनिक आते, थके हुए बाबू आते और सफर कर रहे मर्द भी आते, जो रात का खाना-ठिकाना खोज रहे होते।

बस, यहां औरतें नहीं होती थीं। धीरे-धीरे वे आने लगीं। अमीर घरों की उकताई हुई औरतें। वे बग्घियों से उतरतीं तो हाथ थामने के लिए पति होते, लेकिन जैसा कि हम बता चुके हैं, औरतों के चेहरे सफेद और ऊबे हुए होते। वे घरों पर रहतीं, क्रोशिया के नए डिजाइन बनातीं और एक के बाद एक बच्चे पैदा करतीं। इन्हीं बीवियों को उनके उदार पति रेस्त्रां की सैर कराने लाने लगे, लेकिन अकेली युवतियां यहां भी ‘वेलकम’ नहीं थीं।

बाद में रेस्त्रां की तर्ज पर आइसक्रीम सलून खुले, जहां आइसक्रीम, चॉकलेट और चुटर-पुटर चीजें सर्व होतीं, वे चीजें जिन्हें जबरन महिलाओं की पसंद बना दिया गया। आगे चलकर डेलमॉनिको में ही एक कोना बना, जिसका नाम था ‘लेडीज ऑर्डिनरी’। ये उनके लिए था, जो अकेली और ऑर्डिनरी यानी आम थीं। अकेली स्त्री न तो खास होती है, न ही इज्जतदार। इज्जत उसी की है, जिसके पास पति या घरेलू पुरुष जैसा कोई पुछल्ला हो, जो रेस्त्रां या थिएटर में घुसते हुए सफेद दस्ताने वाले अपने सख्त हाथों से, गुलाबी दस्तानों वाले उसके उदास हाथों को थामे दिखे।

साल 1907 में किंग्सटन के हॉफमेन हाउस में दो महिलाएं घुसीं। रेस्त्रां मर्द ही मर्द से सजे हुए थे। ताजा कॉफी और सी-फूड की खुशबू तैर रही थी, तभी ‘टेबल फॉर टू’ की आवाज से जादू टूट गया। मर्दाना हाथ कौर लिए देखने लगे। होटल के स्टाफ ने तुरंत महिलाओं को बाहर निकाल दिया। हैरियट ब्लाच और हेती राइट ग्राहम नाम की इन ‘निकाली हुई’ औरतों ने एक कैंपेन शुरू किया। वे रेस्त्रां या होटलों में बगैर पुरुष जाने की इजाजत चाहती थीं। रेस्त्रां के मालिक अड़े थे कि खाने की ये जगह इज्जतदार औरतों के लिए है, अकेलियों के लिए नहीं।

बदलाव आने में 13 साल लगे। वह पहले विश्व युद्ध का दौर था। पुरुष और महिलाएं दोनों अपनी तरह से मोर्चे पर थे। तब जाकर लोगों को समझ आ सका कि डायनिंग रूम सबके लिए है, जैसे हवा में तैरती ऑक्सीजन या आसमान से बरसती बारिश।

अब दूसरे विश्व युद्ध को बीते भी अरसा हुआ। तीसरी जंग की आहट करीब खड़ी है। ये जंग दो देशों के बीच नहीं, बल्कि दो विचारों के बीच होगी। दो फर्कों के बीच होगी। तेहरान में ‘सैंडविच खाती स्त्री पर बैन’ इसी युद्ध का शंखनाद है। युद्ध खत्म होते-होते शायद औरत-मर्द के बीच का फासला भी खत्म हो सके।

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