मेरी आंखों के सामने जवान बेटा-बेटी तड़प कर मर गए। सास-ससुर की जान चली गई। अभी एक जवान बेटा और एक बेटी हैं, लेकिन उन्हें न नौकरी मिल रही, न ही कोई उनसे शादी कर रहा है। मैं बीमार रहती हूं। पति की भी सांस फूलती है, दम घुटता है, लेकिन रोजी-रोटी चलाने के लिए चक्की पीसना पड़ता है।
दवाइयां इतनी महंगी हैं कि हम खरीद नहीं पाते। समझ नहीं आता जिंदगी कैसे कटेगी।
मैं लीलाबाई, भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने के सामने जेपी नगर में रहती हूं। हमारे मोहल्ले में एक भी घर ऐसा नहीं होगा, जहां से होकर मौत न गुजरी हो, दुखों के पहाड़ न हों। हर घर ने उस हादसे में कुछ न कुछ खोया है। इसकी बड़ी वजह यह है कि जेपी नगर ठीक यूनियन कार्बाइड कारखाने के सामने है।
मुझे उस काली रात का सब कुछ जस का तस याद है। 2 दिसंबर 1984, रात के 10-11 बजे की बात होगी। हम लोग बेफिक्र होकर घर में सो रहे थे। अचानक आंखें जलने लगीं। ऐसा लग रहा था कोई आंखों में सूखी मिर्च डाल रहा हो। सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। दम घुट रहा था।
मैं कमरे से बाहर निकली, तो देखा कि बच्चों का भी दम घुट रहा है। सर्द रात होने के बावजूद पति, देवर और सास पसीने से भीग चुके थे। मैंने बाहर निकलकर देखा तो चारों तरफ धुंआ-धुंआ फैला था। चीख-पुकार मची थी। लोग भाग रहे थे। समझ नहीं आ रहा था अचानक क्या हो गया।
फिर हम सभी एक ही कमरे में जमा हो गए। देवर ने कहा कि कोई बाहर नहीं जाएगा। हमने चारों तरफ से दरवाजे-खिड़की बंद कर लिया। खुद को रजाई से ढंक लिया। पूरी रात खांसते रहे। ऐसा लग रहा था अब जान निकल जाएगी। जैसे-तैसे करके हमने सुबह होने का इंतजार किया।
सुबह जब मैं बाहर निकली तो देखा कि पूरा मोहल्ला खाली हो गया था। सारे लोग घर छोड़कर चले गए थे। आगे बढ़ी तो देखा रास्ते में जहां तक नजर जा रही थी, सिर्फ लाशें ही लाशें नजर आ रही थीं। बच्चे, जवान, बुजुर्ग सबकी लाशें। वो सीन इतना खौफनाक था कि मैं कई दिनों तक सो नहीं पाई। आज भी जब वो सीन याद आता है, तो कांपने लगती हूं।
मैं भगवान-भगवान कर रही थी कि बच्चों की जान बच गई। उधर कारखाने का सायरन लगातार बज रहा था। डॉक्टर और सरकारी अधिकारी बार-बार कह रहे थे कि घर का कोई भी सामान खाना नहीं है। हर चीज में जहर फैल गया है।
तब तक हमें पता नहीं था कि ऐसा क्यों हुआ है, ये त्रासदी कहां से आई है, कौन इसका जिम्मेदार है। बाद में पता चला कि यूनियन कार्बाइड कारखाने से जानलेवा गैस का रिसाव हुआ है। उसी वजह से ये तबाही मची है।
मेरे ससुर पास में ही कपड़ा मिल में काम करते थे। उस रात उनकी नाइट ड्यूटी थी। वह मिल से सुबह-सुबह पैदल ही घर आ रहे थे। मैंने देखा कि उनकी आंखें सूज गई थीं। आंखें खुल ही नहीं रही थीं। कुछ देर बाद उन्हें दिखना बंद हो गया। वे दोबारा काम पर नहीं जा सके।
उन्हें सांस की बीमारी हो गई। चलना-फिरना भी लगभग बंद हो गया। दिन भर बेड पर पड़े रहते थे। इधर बेटी और बेटा की हालत भी दिन-ब-दिन खराब होती जा रही थी। उनका शरीर फूलने लगा था। ठीक से सांस नहीं ले पा रहे थे। हमीदिया अस्पताल से उनका इलाज चल रहा था। एक साल बाद ससुर की मौत हो गई।
बेटा-बेटी जिंदा थे, लेकिन दवाई के बल पर। एक दिन भी वे बिना दवाई के नहीं रहते थे। कमाई बंद पड़ी थी और सारा पैसा दवाई में खर्च हो रहा था। ऊपर से लगातार अस्पताल आते-जाते मैं परेशान हो गई थी। एक दिन भी चैन से घर पर नहीं रही। जैसे-तैसे करके पति चक्की पीस कर घर चला रहे थे।
कुछ साल बाद बेटी की शादी कर दी। बेटी ससुराल गई तो वहां लोगों ने उसकी दवाई छुड़वा दी। उनका कहना था कि तुम किस बीमारी की रोज दवा खाती हो, तुम रोगी हो क्या। बीमारी छुपाने के लिए बेटी ने दवा छोड़ दी। इसका असर ये हुआ कि उसकी हालत खराब होती गई।
फिर मैंने उसे अपने पास बुला लिया। फिर से दवा देना शुरू किया, लेकिन तब तक काफी देर हो गई थी। मुझे आज भी याद है, उस वक्त वह प्रेग्नेंट थी। काफी देखभाल के बाद उसने बेटे को जन्म दिया। वह बहुत खुश भी थी, लेकिन उसकी यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही। एक साल बाद ही उसकी मौत हो गई। उसके ससुराल वालों ने बच्चा भी हमें दे दिया।
बेटी की मौत के बाद ही यकीन हो गया था कि बेटे की जान नहीं बचेगी। उसकी तबीयत लगातार गिरती जा रही थी। ज्यादातर टाइम वह अस्पताल में ही रहता था। उसकी किडनी खराब हो चुकी थी। उसे डायलिसिस पर रखना पड़ता था। मैं सारा दिन उसी के साथ रहती थी। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि मेरे पास एक रुपया भी नहीं होता था। मैं पैदल ही अस्पताल से घर आती थी।
डॉक्टर बेटे के लिए बोल चुके थे कि वह ज्यादा नहीं जिएगा, पर कौन मां भला अपने बेटे को मरता देखना चाहेगी। खैर लाख कोशिश करके भी मैं बेटे को बचा नहीं पाई। 7 साल का था तब वह हादसे का शिकार हुआ था। उसकी सारी जिंदगी हमीदिया अस्पताल में ही बीती है। जवान बेटा मेरी आंखों के सामने घुट-घुटकर मर गया। तब वह बस 23 साल का था।
गैस लीक होने के बाद सरकार हमें हर महीने 200 रुपए देती थी। फिर 25 हजार रुपए मुआवजे का दिया, तो उसमें से हर महीने देने वाली राशि काट ली। इस तरह किसी को 10 हजार रुपए मिले तो किसी को 15 हजार रुपए। इतने कम रुपए में क्या होता है। क्या उस घाव की भरपाई इतने कम मुआवजे में की जा सकती है…
अभी सारा शोर मुआवजे को लेकर ही मचा है। कितने आराम से बोल दिया गया है कि पहले बहुत मुआवजा मिल चुका है। क्या मिला क्या है हमें ?
हमने कितने प्रदर्शन किए। दिल्ली तक गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हम बीमारियों से आज भी लड़ रहे हैं, घर में घबराहट होती है, दवा खाने का भी असर नहीं होता शरीर पर। यहां लोगों के घरों में जवान-जवान मौतें आज भी हो रही हैं। ये सब उसी त्रासदी का नतीजा है, पर अफसोस कोई देखने वाला नहीं है, सुनने वाला नहीं है।
पति की हालत खराब रहती है। उनकी आंखों की रोशनी चली गई है। शरीर साथ नहीं दे रहा है, लेकिन घर का खर्च चलाने के लिए चक्की पीसना पड़ता है। मेरी भी तबीयत ठीक नहीं रहती। पति की मदद करती हूं। पता नहीं कब तक हम ऐसे जी पाएंगे।
घर में जवान बेटा है, लेकिन कमाकर हमें खिलाना पड़ रहा है। उसकी शादी भी नहीं हो रही है। बेटी की तो शादी की उम्र भी निकल गई। हम रिश्ता लेकर कई जगह गए, लेकिन कोई शादी करने के लिए तैयार नहीं होता है।
लोग कहते हैं गैस पीड़ित की बेटी है। ज्यादा दिन नहीं जिएगी। अगर जिएगी भी तो इसके बच्चे विकलांग पैदा होंगे। बीमार पैदा होंगे। ऐसी लड़की से हम रिश्ता नहीं करेंगे। बताइए हम क्या करें। कैसे गुजारा करें।
लीलाबाई ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर की हैं...
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