डायरेक्टर प्रोड्यूसर एकता कपूर के टीवी सीरियल में चपरासी, वार्ड बॉय, झाड़ू लगाने वाले का रोल भी हैंडसम लड़कों को ही मिलता था। मैं तो बिल्कुल गया गुजरा था। जो हीरो जैसा दिखता, उसको जब वार्ड बॉय का रोल मिलता, तो सोचता कि मुझे किस तरह का रोल मिलेगा।
3 हजार से ज्यादा ऑडिशन देने के बाद भी न तो किसी फिल्म और न ही सीरियल में काम मिला। मैंने बोरिया बिस्तर समेट लिया था। अपनी एक्टिंग की दुकान बंद कर ली थी, पर घर वालों ने सभी को बता दिया था कि मेरा बेटा मुंबई हीरो बनने गया है। इसलिए वापस नहीं लौट सकता था।
अंदर से पूरी तरह टूट चुका था। लग रहा था कि अब तो एक्टर बनने का सपना खत्म हो गया। खुद पर संदेह होने लगा कि वाकई में मैं एक्टिंग कर भी पाता हूं या नहीं? ये कई सालों तक चलता रहा।
2011 में फूलन देवी पर आधारित सीरियल ‘फुलवा’ में काम मिला। 5 हजार लोगों के ऑडिशन होने के बाद मुझे पिता का रोल मिला था। 6 साल के संघर्ष के बाद एक पिता का कैरेक्टर… अब आप इस दर्द को समझ सकते हैं।
एक्टर सुशील बौंठियाल उर्मिला मातोंडकर की ‘तिवारी’ वेब सीरीज की शूटिंग के लिए भोपाल में हैं। वो अपनी कहानी कहते हुए संघर्ष के दिनों में लौटते हैं।
अर्जुन बताते हैं, लोअर मिडिल क्लास फैमिली में पैदा हुआ। हमलोग उत्तराखंड के रहने वाले हैं। पापा लखनऊ में नौकरी करते थे, तो यहीं शिफ्ट हो गए। वे पहले चपरासी थे, फिर प्रमोट होकर क्लर्क बने।
स्कूल में मैं एवरेज स्टूडेंट था। 5वीं क्लास में मुझे प्रार्थना के लिए चुना गया था। उसके बाद नाटक जैसे कल्चरल प्रोग्राम में पार्टिसिपेट करने लगा। नाटक और कव्वाली करता था। मुझे याद है कि एनुअल डे के दिन लड़की का रोल प्ले किया था। जिसके बाद नाटक करने में मजा आने लगा।
12वीं में जबरदस्ती साइंस लेना पड़ा। मैं मन से एक्टर बन चुका था, लेकिन घरवालों ने मैथ्स, फिजिक्स, केमिस्ट्री में उलझा दिया।
तो आपने किसी को नाटक के बारे में नहीं बताया?
अर्जुन कहते हैं, मां से नाटक में जाने के बारे में बताता था, क्योंकि पापा से डरता था। लखनऊ के मंच कृति थिएटर में नाटक करने लगा। शुरुआत में तो 2 साल तक कोई स्टेज परफॉर्मेंस का मौका नहीं मिला। चाय-पानी पिलाने, दरी बिछाने का काम करता था।
एक डेढ़ साल के बाद नाटक में नारद का एक छोटा सा रोल मिला, जिसे वहां के लोगों ने खूब पसंद किया। इधर घर वालों को दिखाने के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन भी कर रहा था। ये बात 1997 की है।
उस वक्त नाटक करने के पैसे नहीं मिलते थे। चाय-समोसे मिल गए, अखबार में थोड़ा-बहुत छप गया, बस इतना ही, लेकिन लखनऊ दूरदर्शन में नाटक के पैसे मिलते थे। यहां मुझे एक हजार रुपए मिले। जब पापा को दिया, तो उन्होंने चौंकते हुए कहा, नाटक-नौटंकी के भी पैसे मिलते हैं?
फिर NSD (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) में कैसे सिलेक्शन हुआ?
अर्जुन बताते हैं, उस वक्त बहुत कम ऐसे स्टूडेंट्स होते थे, जिनका फर्स्ट अटेम्प्ट में सिलेक्शन होता था। सौभाग्य से मेरा हो गया। नहीं होता तो शायद कभी एक्टर नहीं बन पाता। पापा कहते- बहुत हो गया नाटक-नौटंकी, अब नौकरी करो।
उस वक्त ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’ शो आता था। रघुवीर यादव एक्टर थे, जिनकी हाइट कम थी। उतने अच्छे दिखते भी नहीं थे। ये सारे उदाहरण मैं मां को बताता था। उनसे पूछता था कि जब ये एक्टर बन सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं।
NSD में सिलेक्शन तो हो गया, लेकिन एक लाख का बॉन्ड भरने के लिए पापा के पास पैसे नहीं थे। ये पैसा सरकार को देना होता है कि यदि कोई स्टूडेंट बीच में ही कोर्स छोड़ देता है, तो उसे पूरी फीस भरनी होती है।
पापा के ऑफिस के चेयरमैन को जब ये बात पता चली, तो उन्होंने पापा को समझाया। तब पापा को लगा कि हां… बेटा ने कुछ अच्छा किया है। उस चेयरमैन की बेटी का NSD में सिलेक्शन नहीं हुआ था।
NSD का कोई किस्सा?
पूछते ही अर्जुन एक नाटक का जिक्र करते हैं। बताते हैं, हम लोगों ने तीसरे साल एक नाटक किया था। गुलजार साहब को इसके गीत लिखने थे। उनके आने में लेट हो रहा था।
मोहन आगाशे इस नाटक के डायरेक्टर थे। उन्होंने ग्रुप के सभी स्टूडेंट्स से गाने लिखने को कहा। मैंने भी बेमन से एक गीत लिखा।
NSD पासआउट होने के बाद 2002-05 तक दिल्ली में ही थिएटर करता रहा। उस वक्त नाटक में उतने पैसे नहीं मिलते थे। अब पैसों की भी जरूरत थी। इसी दौरान फरहान अख्तर की फिल्म ‘लक्ष्य’ को लेकर दिल्ली में ऑडिशन चल रहा था। काम तो नहीं मिला, लेकिन कुछ लोगों से कॉन्टैक्ट हुए और मैं मुंबई चला आया।
एक्टर अर्जुन उन दिनों के संघर्ष को याद करते हैं। कहते हैं, मुंबई में गरीब घर से आने वालों के लिए संघर्ष सिर्फ एक्टिंग का नहीं, रोटी-कपड़ा-मकान का भी होता है। जिसके पास किराए देने तक के पैसे नहीं हैं, वो स्पा और मसाज कहां से करवा लेगा। यहां सुंदरता का भी खेल है। मुंबई जाने के लिए टैलेंट तो होना ही चाहिए।
पैसे इतने थे नहीं कि 4 वक्त का खाना खाता। दिनभर में सिर्फ एक बार दाल-चावल और अचार खाता। किसी दिन रोटी खानी है, तो खरीदकर ले आता। दो रुपए की एक रोटी मिलती थी। एक कमरे में चार-चार लड़के रहते थे। सभी एक्टर बनने की ख्वाहिश लेकर मुंबई आए हुए थे।
कोई किसी को ऑडिशन के लिए नहीं बताता था। चुपके से सभी तैयार होते थे। पूछने पर हर कोई एक-दूसरे से बहाना बनाता था, लेकिन ऐसा भी होता था कि चारों किसी एक ऑडिशन में ही मिल जाते थे। किसी को काम मिल जाता, तो किसी को नहीं…
15 साल के एक्सपीरिएंस के बाद कह सकता हूं कि एक्टर बनने के लिए टैलेंट से पहले लुक और लक का होना जरूरी है।
जब 4 साल तक कोई काम नहीं मिला, तो मैं नाटक और स्क्रिप्ट राइटिंग का काम करने लगा। सोचता था कि घर वालों से लड़कर मुंबई आया था एक्टर बनने और कर क्या रहा हूं।
मिडिल क्लास फैमिली की ये भी सबसे बड़ी दिक्कत है कि कोई भी चीज हम अपने लिए नहीं करते हैं। हर बच्चा मां-बाप और उनके बनाए समाज के लिए करता है। उस पर खरा उतरने की कोशिश करता है।
विदेशों में यदि कोई बच्चा फोटोग्राफर बनना चाहता है, तो घर वालों को कोई ऐतराज नहीं होता है, लेकिन हमारे यहां घर वाले कहीं भेजने से पहले ही कहते हैं, ‘सुनो कुछ करना तो ढंग का करना। सभी की तुमसे आस है।’
मेरे गांव के लोग ताना मारते हुए पापा से कहते थे, ‘इनका लड़का भी तो हीरो बनने गया है, लेकिन किसी फिल्म में दिखा नहीं अभी तक।’
पापा फोन करके कहते थे, ‘गांव वाले, रिश्तेदार पूछते रहते हैं कि आपका बेटा टीवी पर दिखता तो है नहीं।’ मैं कहता था, हां… ऑडिशन दिया हूं। पापा कहते थे, ‘अरे! इतने साल हो गए। कब दिखोगे।’
अब बताइए, कोई व्यक्ति कितना प्रेशर झेलेगा? शारीरिक संघर्ष से ज्यादा मानसिक संघर्ष हमें तोड़ता है। यदि इसको जीत गए, तभी कुछ कर सकते हैं।
स्वास्तिक प्रोडक्शन हाउस से 'फुलवा' के पिता के ऑडिशन के लिए बुलाया गया। मैंने उनसे कहा- सभी बोलते हैं कि मैं अच्छी एक्टिंग करता हूं, लेकिन कोई रोल नहीं देता। फर्स्ट राउंड, सेकेंड राउंड में ऑडिशन क्लियर हो जाता है। तीसरे राउंड में किसी और को मौका मिल जाता है। मैं नहीं आऊंगा।
ऐसा कहा जाता है कि इस रोल के लिए अनु कपूर, विजय राज, रघुवीर यादव जैसे बड़े एक्टर्स को भी अप्रोच किया गया था। 5 हजार ऑडिशन हो चुके थे। मैंने कहा, जब 5 हजार लोगों का नहीं हुआ, तो मेरा क्या होगा?
खैर… इसमें मुझे काम तो मिल गया, लेकिन पिता के रोल को लेकर मैं खुश नहीं था। हालांकि, फूलन के पिता का किरदार निभाने के बाद लोगों ने जानना शुरू कर दिया। सड़क पर निकलता, तो घेर लेते। पहली बार अपने जीवन में स्टारडम को देखा।
फिल्मों में कब ब्रेक मिला?
अर्जुन कहते हैं, बतौर एक्टर नहीं, रोल के मुताबिक लोग पहचानने लगते हैं। जब मैंने पिता के रोल के लिए मना करना शुरू किया तो, काम ही मिलना बंद हो गया। 2 साल कोई काम नहीं मिला। घर की स्थिति खराब होने लगी, तो फिर से दो-तीन बड़े सीरियल्स में पिता का रोल करना पड़ा।
अर्जुन फिल्म में मिले मौके का दिलचस्प किस्सा बताते हैं। कहते हैं, इसी दौरान शाहरुख खान की एक फिल्म ‘बिल्लू’ आई थी। 15 दिन मेरी शूटिंग इरफान खान, राजपाल यादव, ओमपुरी जैसे एक्टर्स के साथ हुई। 4 सीन किए, लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई, तो मैं था ही नहीं।
तब पता चला कि सीरियल में जितनी शूटिंग होती है, वो दिखा दिया जाता है, लेकिन फिल्मों में ऐसा नहीं होता है। किसी फिल्म में कोई एक्टर कितना भी सीन क्यों न कर ले, जब तक फिल्म रिलीज न हो, तब तक कोई भरोसा नहीं।
उसके बाद गुलाब गैंग में मुझे शर्मा जी का रोल मिला। माधुरी दीक्षित और जूही चावला ने इस फिल्म के जरिए इंडस्ट्री में कमबैक किया था। मैंने पांच सीन किए थे। पहली बार ऐसा हुआ कि सभी सीन दिखाए गए। फिर वहां से लोगों ने जानना शुरू किया। ‘भारत’ में सलमान खान के साथ काम करने का मौका मिला।
अर्जुन कहते हैं, इंडस्ट्री की एक और दिक्कत है। टीवी के एक्टर पर फिल्म डायरेक्टर भरोसा नहीं करते हैं, लेकिन अब काम मिलने लगा है। अक्षय कुमार की फिल्म ‘सेल्फी’ में काम किया हूं, जो रिलीज होने वाली है। एक्टर पंकज त्रिपाठी के साथ कागज और कागज-2 वेब सीरीज में काम किया हूं। लोग अब धीरे-धीरे मुझे स्वीकार करने लगे हैं। जो टीवी एक्टर होने का टैग लगा था, वो हट चुका है।
‘द चार्जशीट’, ‘चाचा विधायक हैं हमारे’, ‘क्रैश कोर्स’ जैसी वेब सीरीज में भी काम किया हूं। अभी बिहार की पृष्ठभूमि पर आधारित ‘AK 47’ वेब सीरीज रिलीज होने वाली है। फिलहाल उर्मिला मातोंडकर की वेब सीरीज ‘तिवारी’ की शूटिंग चल रही है।
अर्जुन पंकज त्रिपाठी के साथ काम करने को अपना टर्निंग पॉइंट मानते हैं। कहते हैं, फिल्मों में काम करने के दो मायने हैं। एक तो ढंग का किरदार मिले और जो सीन कर रहा हूं, उसकी वैल्यू हो।
OTT (ओवर द टॉप) के आने के बाद से छोटे-छोटे एक्टर को भी मिल रहे मौके को लेकर अर्जुन कहते हैं, इंडस्ट्री में किसी का स्टारडम ब्रेक नहीं हुआ है। नए स्टार पैदा हो रहे हैं। पहले एक ही तरह की फिल्में दर्शकों के सामने परोसी जाती थीं। फिल्म बनाने का फॉर्मूला फिक्स था, लेकिन अब लोगों ने अपनी जिंदगी की कहानियां, आस-पास की चीजों को ऑन स्क्रीन देखना शुरू कर दिया है।
एक्टर अर्जुन बातचीत के अंतिम पड़ाव में बॉलीवुड की एक बड़ी खामी से भी रूबरू कराते हैं, जिसे कुछ महीने पहले एक्टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी उठाया था। वे कहते हैं, हिंदी फिल्मों में रोमन में लिखे स्क्रिप्ट से एक्टर्स को एक्टिंग में काफी दिक्कतें होती हैं।
यदि ‘तुम कहां जा रहे हो’ कहना है तो लिखा होता है, ‘TUM KAHAN JAA RHE HO’... यार! जब फिल्म हिंदी बना रहे हो, तो हिंदी में लिखो न? इंडस्ट्री में जिन लोगों का हिंदी से कोई वास्ता नहीं है। वो हिंदी फिल्में बना रहे हैं। शूटिंग सेट पर भी पूरी बातचीत इंग्लिश में होती है, लेकिन रीजनल सिनेमा में ऐसा नहीं है। यदि तमिल फिल्म है, तो वे लोग तमिल में ही बोलते-लिखते हैं।
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