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महिंदा राजपक्षे। 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे और अब प्रधानमंत्री हैं। राजपक्षे को देश में तीन दशकों से जारी गृहयुद्ध को खत्म करने का श्रेय दिया जाता है। लेकिन, राजपक्षे के ही दौर में श्रीलंका सबसे ज्यादा कर्ज के बोझ में दब गया।
राजपक्षे के कार्यकाल में श्रीलंका की भारत से दूरी और चीन से नजदीकियां बढ़ीं। इन नजदीकियों का फायदा श्रीलंका ने कम और चीन ने ज्यादा उठाया। राजपक्षे के राष्ट्रपति रहते ही श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ। इस प्रोजेक्ट के लिए 2007 से 2014 के बीच श्रीलंकाई सरकार ने चीन से 1.26 अरब डॉलर का कर्ज लिया। ये कर्ज एक बार में नहीं बल्कि 5 बार में लिया गया।
हम्बनटोटा बंदरगाह पहले से ही चीन-श्रीलंका मिलकर बना रहे थे। इसे चीन की सबसे बड़ी सरकारी कंपनी हार्बर इंजीनियरिंग ने बनाया है। जबकि, इसमें 85% पैसा चीन के एक्जिम बैंक ने लगाया था।
लगातार कर्ज लेने का नतीजा ये हुआ कि श्रीलंका पर विदेशी कर्ज बढ़ता गया। ऐसा माना जाता है कि कर्ज बढ़ने की वजह से श्रीलंका को दिसंबर 2017 में हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर देना पड़ा। बंदरगाह के साथ ही श्रीलंका को 15 हजार एकड़ जमीन भी उसे सौंपनी पड़ी। ये जमीन भारत से 150 किमी दूर ही है।
इस पूरे वाकये को एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है कि कैसे चीन पहले छोटे देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कर्ज देता है। उसे अपना कर्जदार बनाता है। और फिर बाद में उसकी संपत्ति को कब्जा लेता है।
इस पूरे वाकये के जिक्र का कारण नेपाल है। क्योंकि, कुछ दिनों पहले ही नेपाल ने नया नक्शा जारी किया, जिसमें उसने लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को अपना हिस्सा बताया। जबकि, ये तीनों ही भारत का हिस्सा हैं। जानकार मानते हैं कि इन सबके पीछे भी चीन का ही हाथ है। क्योंकि, चीन नेपाल को आर्थिक मदद कर रहा है।
इसे कहते हैं 'डेट-ट्रैप डिप्लोमेसी'
इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के नाम पर पहले कर्ज देना और फिर उस देश को एक तरह से कब्जा लेना, इसे 'डेट-ट्रैप डिप्लोमेसी' कहते हैं। ये शब्द चीन के लिए ही इस्तेमाल होता है। इस पर चीन तर्क देता है कि इससे छोटे और विकासशील देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत होगा। जबकि, उसके विरोधी मानते हैं कि चीन ऐसा करके छोटे देशों को कब्जा रहा है।
अमेरिकी वेबसाइट हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की रिपोर्ट बताती है कि, चीन शुरू से ही छोटे देशों को कर्ज देता रहा है। 1950 और 1960 के दशक में चीन ने बहुत से छोटे-छोटे देशों को कर्ज दिया। ये ऐसे देश थे, जहां कम्युनिस्ट सरकारें थीं।
जर्मनी की कील यूनिवर्सिटी ने वर्ल्ड इकोनॉमी पर जून 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसके मुताबिक, 2000 से लेकर 2018 के बीच देशों पर चीन की उधारी 500 अरब डॉलर से बढ़कर 5 ट्रिलियन डॉलर हो गई। आज के हिसाब से 5 ट्रिलियन डॉलर 375 लाख करोड़ रुपए होते हैं।
इन सबके अलावा भी हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की रिपोर्ट कहती है कि चीन की सरकार और उसकी कंपनियों ने 150 से ज्यादा देशों को 1.5 ट्रिलियन डॉलर यानी 112 लाख 50 हजार करोड़ रुपए का लोन भी दिया है। इस समय चीन दुनिया का सबसे बड़ा लेंडर यानी लोन देने वाला देश है। इतना लोन तो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक ने भी नहीं दिया। दोनों ने 200 अरब डॉलर (15 लाख करोड़ रुपए) का लोन दिया है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दुनियाभर की जीडीपी का 6% बराबर कर्ज चीन ने दूसरे देशों को दिया है।
एक दर्जन देशों पर उनकी जीडीपी का 20% से ज्यादा कर्ज चीन ने दिया
सबसे ज्यादा कर्ज अफ्रीकी देशों को
कर्ज देने के लिए चीन की पहली पसंद अफ्रीकी देश हैं। इसका कारण है कि ज्यादातर अफ्रीकी देश गरीब और छोटे हैं और विकासशील भी।
अक्टूबर 2018 में आई एक स्टडी बताती है कि हाल के कुछ सालों में अफ्रीकी देशों ने चीन से ज्यादा कर्ज लिया है। 2010 में अफ्रीकी देशों पर चीन का 10 अरब डॉलर (आज के हिसाब से 75 हजार करोड़ रुपए) का कर्ज था। जो 2016 में बढ़कर 30 अरब डॉलर (2.25 लाख करोड़ रुपए) हो गया।
अफ्रीकी देश जिबुती, दुनिया का इकलौता कम आय वाला ऐसा देश है, जिस पर चीन का सबसे ज्यादा कर्ज है। जिबुती पर अपनी जीडीपी का 80% से ज्यादा विदेशी कर्ज है। इसमें भी जितना कर्ज जिबुती पर है, उसमें से 77% से ज्यादा कर्ज अकेला चीन का है। हालांकि, कर्ज कितना है? इसके आंकड़े मौजूद नहीं है।
सिर्फ कर्ज ही नहीं, इन्वेस्टमेंट भी कर रहा है चीन
हमारे पड़ोसियों को भी कर्ज तले दबा रहा है चीन
2013 से चीन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। इस प्रोजेक्ट का मकसद एशिया, यूरोप और अफ्रीका को सड़क, रेल और समुद्री रास्ते से जोड़ना है। इस पूरे प्रोजेक्ट पर 1 ट्रिलियन डॉलर यानी 75 लाख करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। चीन के इस प्रोजेक्ट को जो देश समर्थन दे रहा है, उनमें से ज्यादातर अब चीन के कर्जदार बन गए हैं।
चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर या सीपीईसी भी इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है। इस पर चीन और पाकिस्तान दोनों मिलकर काम कर रहे हैं। ये कॉरिडोर चीन के काशगर प्रांत को पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ता है। इसकी लागत 46 अरब डॉलर (करीब 3.50 लाख करोड़ रुपए) है। इसमें भी करीब 80% खर्च अकेले चीन कर रहा है। नतीजा-पाकिस्तान धीरे-धीरे चीन का कर्जदार बनता जा रहा है। आईएमएफ के मुताबिक, 2022 तक पाकिस्तान को चीन को 6.7 अरब डॉलर चुकाने हैं।
इसी तरह नेपाल भी चीन के इस प्रोजेक्ट का समर्थन कर रहा है। पिछले साल अक्टूबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दो दिन के दौरे पर नेपाल गए थे। ये 23 साल बाद पहला मौका था, जब चीन के किसी राष्ट्रपति ने नेपाल का दौरा किया। इस दौरे में जिनपिंग ने नेपाल को इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के लिए 56 अरब नेपाली रुपए (35 अरब रुपए) की मदद देने का ऐलान किया था।
पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका की तरह बांग्लादेश भी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट का हिस्सा है। जनवरी 2019 तक चीन और बांग्लादेश के बीच 10 अरब डॉलर का कारोबार हो रहा था। ऐसा अनुमान है कि 2021 तक दोनों देशों के बीच 18 अरब डॉलर का कारोबार होने लगेगा। बांग्लादेश का चीन के प्रोजेक्ट का हिस्सा बनना इसलिए भी चिंता का कारण है क्योंकि ये कोलकाता के बेहद करीब से गुजरेगा।
क्या भारत पर भी चीन का कर्ज?
वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, दिसंबर 2019 तक भारत पर 40 लाख 18 हजार 389 करोड़ रुपए का विदेशी कर्ज है। हालांकि, किस देश का कितना कर्ज है? इसके आंकड़े नहीं मिल सके हैं।
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