मई 2004 में 14वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम आया। 8 साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद एक बार फिर से कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला। हर किसी को लग रहा था कि अब सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन, 22 मई को देश हैरान रह गया जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। 10 जनपथ में जब मनमोहन सिंह का नाम तय हो रहा था तो हालात किसी फिल्म की कहानी की तरह थे। आज इस स्टोरी में स्टेप-बाय-स्टेप उनके प्रधानमंत्री बनने की कहानी जानते हैं...
2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने समय से 5 महीने पहले ही चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। वजह थी चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का बेहतर प्रदर्शन। कांग्रेस की हालत खराब थी और इधर अटल बिहारी वाजपेयी की छवि साफ सुथरी बनी हुई थी। ऐसे में भाजपा को लग रहा था कि आसानी से सरकार बना लेगी। भाजपा ने ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड’ का नारा दिया।
इसके बाद 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में चुनाव हुए। 13 मई को जब परिणाम आया तो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA के पास बहुमत नहीं रहा। यहां से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की कहानी की शुरुआत होती है…
चुनाव से पहले: पहली बार बना यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (UPA)
लोकसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि वो गठबंधन बनाकर चुनाव में उतरेगी। दरअसल, तीसरे मोर्चे की राजनीति की वजह से 8 साल तक सत्ता से दूर रहने के बाद कांग्रेस इस बार कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहती थी। चुनाव में लड़ाई आमने-सामने की हो गई।
कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते सोनिया गांधी के कंधे पर सबको एकजुट करने की जिम्मेदारी थी। उन्होंने पार्टी के फैसलों के उलट जाकर भी काम किया। 1998 में मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में कांग्रेस की सालाना वर्किंग कमेटी की मीटिंग हुई। इसमें तय हुआ कि पार्टी अब क्षेत्रीय दलों से गठबंधन नहीं करेगी।
2004 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने इस बात को किनारे रख दिया। इसके बाद सोनिया ने छोटे दलों से गठबंधन करने के लिए कई अहम भूमिका निभाई। जैसे- सोनिया खुद राम विलास पासवान के घर जाकर मिलीं। राजीव गांधी की हत्या की जांच वाली जैन कमीशन की रिपोर्ट में तमिलनाडु के CM करुणानिधि का नाम था।
इसके बावजूद सोनिया गांधी ने DMK से गठबंधन किया। बिहार में लालू यादव ने कहा कि हम कांग्रेस को राज्य की 40 में से बस चार सीट देंगे। कांग्रेस पार्टी के सीनियर नेता इसके खिलाफ थे। राजद से गठबंधन बनाने के लिए सोनिया गांधी ने इसे भी मान लिया।
इसी तरह सोनिया ने महाराष्ट्र में NCP से गठबंधन किया और जम्मू में PDP को भी साथ ले लिया। कोशिश UP में बसपा और सपा को साथ लाने की हुई मगर यहां बात नहीं बनी। इसके बाद पहली बार कांग्रेस के नेतृत्व में UPA यानी यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस बना। इसकी चेयरपर्सन बनीं सोनिया गांधी।
कांग्रेस कैंपेन का नारा था “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ”। यह नारा "इंडिया शाइनिंग" से आगे निकल गया। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि भाजपा का नारा अंग्रेजी में था और शहरी वर्ग तक ही पहुंच सका।
चुनाव के दौरान: कांग्रेस के खिलाफ BJP का नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट
जब कांग्रेस पार्टी UPA के जरिए गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। इधर BJP पहले से ही छोटे दलों से गठबंधन में थी। उनके फ्रंट का नाम था नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (NDA)। तमाम सर्वे और आकलन NDA को चुनाव जिता रहे थे। दरअसल, अटल बिहारी की सरकार में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया था। सरकारी सेक्टर में काफी सारे लोगों को नौकरियां मिली थीं। भाजपा सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने को भी मुद्दा बनाई।
इन सब के बीच भाजपा ने अपने आप को हिंदुत्व वाली नीतियों से थोड़ा दूर किया और फील गुड फैक्टर पर सवार हो कर आगे बढ़ी। चुनाव आयोग ने 20 अप्रैल 2004 से चार चरण में चुनाव कराने का ऐलान किया। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले NDA को 544 में से 181 सीटें ही मिल सकीं, जबकि UPA को कुल 218 सीटें मिलीं।
चुनाव के बाद: विदेशी मूल का मुद्दा और राहुल गांधी की मनाही
सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की अटकलें तेज होने लगीं। हालांकि, सोनिया गांधी ने खुद को चुनाव के दौरान PM उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया था। मगर गठबंधन में स्थिति मजबूत और साफ रहे इसके लिए कांग्रेस ने पहले ही कहा था कि अगर UPA की सरकार बनती है तो उसका नेतृत्व कांग्रेस करेगी।
सोनिया गांधी कांग्रेस संसदीय दल यानी CPP की नेता थीं, इसके बावजूद वो सरकार बनाने के दावे के साथ राष्ट्रपति कलाम से नहीं मिलीं।
इधर कांग्रेस को बहुमत मिलते ही चौराहों तक पर चर्चा होने लगी कि सोनिया गांधी अब देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। इसी में भाजपा सोनिया के विदेशी मूल के होने का जिन्न फिर से बाहर ले आई। सुषमा स्वराज ने कहा, ‘अगर मैं संसद में जाकर बैठती हूं तो हर हालत में मुझे सोनिया गांधी को माननीय प्रधानमंत्री जी कहकर संबोधित करना होगा, जो मुझे गंवारा नहीं है। मेरा राष्ट्रीय स्वाभिमान मुझे झकझोरता है। मुझे इस राष्ट्रीय शर्म में भागीदार नहीं बनना।’ अब देश भर में सवाल था कि आगे क्या होगा?
अब अगले प्रधानमंत्री के लिए 5 दिनों तक हुई बैठक में क्या हुआ स्टेप-बाय-स्टेप जानिए…
13 मई को चुनाव का रिजल्ट घोषित हुआ और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक हुई। यहां सोनिया गांधी के लीडरशिप और भूमिका के लिए तालियां बजीं, खुशी जाहिर की गई, मगर नेतृत्व के मुद्दे पर चुप्पी रही।
थोड़ी देर बाद बैठक आगे बढ़ी तो सोनिया गांधी ने खुद ही यह कहकर सबको चुप करा दिया कि PM पद का मुद्दा पार्टी के सांसद और सहयोगी दल के नेताओं के साथ मिलकर सुलझाया जाना ठीक होगा।
रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस बैठक के बाद सोनिया गांधी ने अपने बच्चों के साथ चर्चा की और राहुल गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से मना किया। नटवर सिंह ने इस बात का जिक्र अपनी किताब ‘वन लाइफ इज नॉट इनफ’ में भी किया है।
इसके बाद सोनिया ने तय कि वह 14 मई को होने वाली CPP की बैठक में प्रधानमंत्री न बनने के अपने फैसले को सार्वजनिक करेंगी। मगर बैठक की तारीख 15 मई तय हुई।
गठबंधन के नेताओं से घर-घर जाकर मिलती रहीं सोनिया, मगर भनक नहीं लगने दी
14 मई का दिन सोनिया गांधी ने नेताओं से मिलने के लिए रखा। मगर उन्होंने इस दिन एक संकेत दे दिया। सोनिया गांधी सुबह उठीं, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को साथ लिया और बिना SPG सुरक्षा लिए राजीव गांधी की समाधि पर चली गईं।
इसके बाद वो सबसे पहले शरद पवार से मिलीं और उनका समर्थन तय किया। उन्होंने पवार के सामने नेतृत्व का मुद्दा नहीं उठाया और ना ही अगली सरकार के स्ट्रक्चर पर ही कोई चर्चा की। कहा जाता है कि पवार पहले नेता थे, जिन्हें उनकी मंशा पर शक हुआ, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं दिखाया।
इसके बाद वो लालू यादव, राम विलास पासवान, फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता देवव्रत विश्वास और सीताराम येचुरी से मिलीं। सभी ने सोनिया को समर्थन देने का वादा किया और माना कि वो देश की भावी PM से बात कर रहे हैं। सोनिया गांधी ने इन लोगों से भी PM पद का कोई जिक्र नहीं किया।
सबको डिनर पर बुला कर समर्थन पक्का किया मगर PM पद पर कोई चर्चा नहीं
15 मई को कांग्रेस ने सोनिया गांधी को CPP यानी कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुन लिया। सोनिया ने यहां भी अपने भाषण में नई भूमिका को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने औपचारिक रूप से सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राष्ट्रपति के पास जाने से भी इनकार कर दिया।
आधिकारिक कारण यह बताया कि कम्युनिस्ट पार्टी ने अभी तक अपने समर्थन का पत्र नहीं दिया है। कांग्रेस नेताओं को लगता रहा कि वो इमोशनल दबाव बना कर सोनिया गांधी को राजी कर लेंगे।
खैर, सोनिया गांधी ने नवनिर्वाचित सांसदो को डिनर पर बुलाया। यहां समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह, CPI (M) नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ बिन बुलाए आए और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने का वादा किया।
सात कांग्रेसियों के सामने क्लोज मीटिंग में तय हुआ मनमोहन सिंह का नाम
16 मई सोनिया गांधी ने सीनियर और अपने विश्वस्त कांग्रेसियों की एक क्लोज मीटिंग बुलाई। उसमें नटवर सिंह भी थे। अपनी किताब में इस मीटिंग का जिक्र करते हुए नटवर सिंह लिखते हैं, ‘इस मीटिंग में मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शिवराज पाटिल, गुलाम नबी आजाद, एम.एल. फोतेदार मौजूद थे। मनमोहन सिंह को छोड़कर और किसी को नहीं मालूम था कि यह मीटिंग क्यों बुलाई गई है। यहां सोनिया गांधी ने कहा कि उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने को कहा है। मनमोहन सिंह ने तुरंत कहा, “मैडम, मेरे पास बहुमत नहीं है।’’
नटवर सिंह आगे लिखते हैं, ‘जब थोड़ी देर तक कोई नहीं बोला तो मैंने मनमोहन सिंह से कहा कि जिसके पास बहुमत है वो उसे आपको सौंप रहा है।
यह बात कांग्रेसियों को ही नागवार गुजरने वाली थी। आखिरकार मनमोहन सिंह सिर्फ 14 साल से पार्टी में थे, जबकि अर्जुन सिंह जैसे नेता 50 सालों से पार्टी में थे। इसके इतर, सामान्य कांग्रेसी को एक गांधी से मतलब था।
नटवर सिंह अपनी किताब में लिखते हैं कि सोनिया गांधी ने उनसे कहा कि वो जाकर सहयोगी दलों को इस फैसले के बारे में बताएं। नटवर सिंह ने लिखा, ‘मुझसे वीपी सिंह, लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान से मिलने को कहा गया। लालू ने मुझे बिहार के अंदाज में फटकारा और कहा कि हमारी राय क्यों नहीं ली गई? हमें यह सूचना टीवी से क्यों मिल रही है? राम विलास ने यही बात थोड़ा कम तल्ख लहजे में कही। ’
इधर कुछ कांग्रेस नेता CPMमहासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के घर बातचीत के लिए पहुंचे। यहां अमर सिंह, लालू और रामविलास पहले से मौजूद थे। लालू ने कहा, ''जो हमारा निर्णय हुआ है हम उस पर कायम हैं। उसका आदर करके सोनिया जी को शपथ लेना चाहिए।'' दूसरी ओर रामविलास पासवान ने कहा, ''हमारा प्रयास रहेगा कि सोनिया गांधी ही PM बनें। अगर वो ये बात नहीं मानती हैं फिर सब लोग मिलकर सोचेंगे.''
सोनिया का फैसला सुनते ही 'नो-नो' चिल्लाने लगे कांग्रेसी, पूर्व सांसद ने दे दी आत्महत्या की धमकी
18 मई को शुरू हुई असली कहानी । इस दिन संसदीय दल की बैठक बुलाई गई और तब तक सबको अंदाजा लग गया था कि सोनिया PM नहीं बनना चाहती हैं।
यहां सोनिया ने कहा, ‘मैंने कई बार कहा है कि मेरा लक्ष्य PM बनना नहीं है।मैं हमेशा की तरह आज भी अपनी अंतरात्मा की आवाज के मुताबिक चलूंगी और मैं यह पद अस्वीकार कर रही हूं।’
इतने में कांग्रेसी सांसदों को मानो शॉक लग गया। वो खड़े होकर नो-नो चिल्लाने लगे। सोनिया ने अपनी बात पूरी की। कहा, 'मझे सत्ता का लालच नहीं है। चुनाव में सांप्रदायिक ताकतों पर जीत ही हमारा लक्ष्य है और वह पूरा हुआ है। पार्टी इसके लिए काम करती रहेगी।‘
इसके बाद सार्वजनिक किया गया कि सोनिया नहीं तो और कौन? मीडिया में आकर ज्योति बसु ने कहा कि सोनिया गांधी के पीछे हटने का कारण उनके बच्चे हैं। वो नहीं चाहते कि पिता की तरह मां को भी खोना पड़े।
नटवर सिंह ने इसका जिक्र करते हुए अपनी किताब में लिखा है, “राहुल को डर था कि दादी और पिता की तरह मां की भी जान न चली जाए। राहुल बात के पक्के हैं और उनकी बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता था। उन्होंने सोनिया को सोचने के लिए 24 घंटे का समय दिया। उस वक्त वहां मनमोहन सिंह, सुमन दूबे, मैं और प्रियंका गांधी मौजूद थे। सोनिया के लिए इसे इग्नोर करना संभव नहीं था। यह एक बड़ा कारण था कि सोनिया PM नहीं बनीं ‘
अपनी ओर से सोनिया ने खुद जाकर करुणानिधि, लालू और सुरजीत से मुलाकात की और मनमोहन सिंह के नाम पर सहमति ली। मनमोहन सिंह वफादार नेता थे, मगर सोनिया गांधी ने PM पद छोड़ते हुए भी सगंठन और CPP पर नियंत्रण बनाए रखा।
कांग्रेस का संविधान बदल कर अध्यक्ष सोनिया गांधी को दी गई ज्यादा पावर
पार्टी पर पकड़ बनाए रखने के लिए CPP (कांग्रेस संसदीय दल) के संविधान के खंड पांच में संशोधन किया गया। संशोधन के बाद पार्टी अध्यक्ष के पास यह अधिकार हो गया कि वो सरकार बनाने वाले नेता को बदल सकता है। इसका मतलब ये कि सोनिया गांधी के पास यह अधिकार था कि वो जब चाहें सरकार के नेता को बदल सकती हैं।
संसद के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री अपने ही सांसदों का मनोनीत नेता था न कि निर्वाचित। नेहरू के बाद पहली बार, कांग्रेस का अध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री से अधिक शक्तिशाली था।
खैर, अफरातफरी को विराम मिला और 22 मई 2004 को मनमोहन सिंह ने भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
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