• Hindi News
  • Db original
  • Deepak Parwani Of Bhopal Selected In NDA But Board Out Due To Injury,now Serving As Manager In Infosys

खुद्दार कहानी:आर्मी ऑफिसर बनने का सपना था, NDA में सिलेक्शन भी हुआ, लेकिन चोट के चलते बोर्ड आउट हो गए; आज मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर हैं

नई दिल्ली2 वर्ष पहलेलेखक: इंद्रभूषण मिश्र
  • कॉपी लिंक

मध्य प्रदेश के भोपाल में रहने वाले दीपक पारवानी के पिता आर्मी ऑफिसर थे। आतंकियों के साथ मुठभेड़ में उन्हें गोली भी लगी थी। उस वक्त दीपक की उम्र 6-7 साल रही होगी। तभी से दीपक भी अपने पिता की तरह आर्मी ऑफिसर बनने का सपना संजोने लगे थे। उनके सपनों को पंख लगे और उड़ान भी भरी, लेकिन दुर्भाग्य से दीपक हादसे का शिकार हो गए और मंजिल की दहलीज पर पहुंचने के बाद भी मुकाम हासिल करने से चूक गए।

दरअसल 2000 में दीपक ने NDA का टेस्ट दिया था। सफलता नहीं मिली। अगले साल फिर कोशिश की। ये उनका लास्ट अटेंप्ट था। इस बार कामयाबी मिल गई। तब वे इंजीनियरिंग कर रहे थे। तीसरे सेमेस्टर की पढ़ाई छोड़कर वे ट्रेनिंग के लिए पुणे चले गए।

शुरुआत के तीन-चार महीने शानदार रहे। इसी बीच एक दिन रनिंग के दौरान उनके कंधे में चोट लगी। हालांकि कुछ ही दिनों में उन्होंने रिकवर कर लिया, लेकिन चोट लगने का सिलसिला थमा नहीं। एक के बाद एक वे कई बार चोटिल हुए। जुनून ऐसा रहा कि हर बार उन्होंने कमबैक भी किया, लेकिन 2003 में आखिरकार वे आर्मी के लिए अनफिट करार दिए गए और उन्हें बोर्ड आउट कर दिया गया।

दीपक पारवानी के पिता कर्नल नारायण पारवानी (सबसे दाएं) आर्मी ऑफिसर रह चुके हैं। अभी वे रिटायरमेंट के बाद भोपाल में रहते हैं।
दीपक पारवानी के पिता कर्नल नारायण पारवानी (सबसे दाएं) आर्मी ऑफिसर रह चुके हैं। अभी वे रिटायरमेंट के बाद भोपाल में रहते हैं।

दीपक ने वर्षों से जिस सपने को जिया था वो अब टूट चुका था। उनके लिए यह सबसे बड़ा सेटबैक था। उन्हें खाली हाथ घर भेज दिया गया। न कोई डिग्री, न ही जॉब या करियर के लिए कोई सपोर्ट। तब दीपक 19 साल के थे। उम्र और अनुभव दोनों के लिहाज से कोई खास मैच्योर नहीं थे। वे लौटकर फिर उसी दहलीज पर खड़े थे जहां से उन्होंने चलना शुरू किया था। कुछ महीने अपसेट रहने और ट्रीटमेंट के बाद दीपक को उनके पिता और परिवार ने संभाला। और उन्हें वापस इंजीनियरिंग करने के लिए प्रेरित किया।

लोगों को लगता था कि इसमें ही कोई कमी रही होगी
दीपक जब वापस इंजीनियरिंग करने अपने कॉलेज पहुंचे तो उनके साथ के बच्चे फाइनल सेमेस्टर में थे। जबकि दीपक को तीसरे सेमेस्टर से पढ़ाई करनी थी। उनके लिए यह चैलेंजिग टास्क तो था ही साथ ही कई लोगों के ताने भी सुनने पड़े।

दीपक कहते हैं कि उस दौरान कुछ स्टूडेंट्स मेरा मजाक उड़ाते थे तो कुछ को लगता था कि ये काबिल ही नहीं है, इसे भगा दिया गया है। कोई सच सुनने और समझने के लिए तैयार ही नहीं होता था। मुझे तकलीफ तो बहुत होती थी, लेकिन क्या कर सकता था। बाद में मैंने तय कर लिया कि मुझे आगे बढ़ना है और किसी को कोई क्लैरीफिकेशन नहीं देना है। जिसे यकीन करना है करे, जिसे मेरी आलोचना करनी है करे, मुझे सिर्फ करियर पर फोकस करना है।

चोट लगने के बाद भी दीपक ने हार नहीं मानी। उन्होंने खुद को फिट रखने की कोशिश जारी रखी। वे अपने कॉलेज की तरफ से स्पोर्ट्स में हिस्सा लेते थे।
चोट लगने के बाद भी दीपक ने हार नहीं मानी। उन्होंने खुद को फिट रखने की कोशिश जारी रखी। वे अपने कॉलेज की तरफ से स्पोर्ट्स में हिस्सा लेते थे।

एकेडमिक गैप की वजह से कंपनियां सीवी शॉर्टलिस्ट नहीं करती थीं
लेकिन, इतना जल्दी सबकुछ ट्रैक पर कहां लौटने वाला था। दीपक ने मेहनत के दम पर इंजीनियरिंग तो कर ली, लेकिन दो साल का गैप होने की वजह से कोई कम्पनी उनकी सीवी शॉर्टलिस्ट ही नहीं करती थी। इससे दीपक थोड़ा बहुत मेंटली परेशान हुए।

वे कहते हैं कि मैं चाहता था कि कंपनियों को अपनी आपबीती बताऊं, लेकिन कोई मौका ही नहीं मिल रहा था। सीवी देखकर तो लोगों को यही लगता था कि फेल हो गया होगा। हालांकि अंत में TCS ने उनका सीवी शॉर्टलिस्ट कर लिया। इंटरव्यू के दौरान जब उन्होंने अपनी स्टोरी बताई तो प्लेसमेंट ऑफिसर्स उनसे प्रभावित भी हुए। और उनको जॉब भी मिल गई।

दीपक ने 2006 से 2008 तक TCS में नौकरी की। इसके बाद आगे पढ़ाई का मन बनाया और सिंबायोसिस कॉलेज पुणे से MBA की डिग्री हासिल की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कई बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में काम किया। उन्होंने टीम लीडर और मैनेजर की भी भूमिका निभाई। बेहतर काम के लिए उन्हें कई बार अवॉर्ड भी मिले हैं। अब पिछले 5 साल से वे इंफोसिस में हैं। अभी बतौर सीनियर कंसल्टेंट काम कर रहे हैं। पोजिशन और पैकेज दोनों बढ़िया है।

दीपक पिछले पांच साल से इंफोसिस में काम कर रहे हैं। 2019 में वे कंपनी के क्लाइंट्स को ट्रेनिंग दे रहे थे तब की तस्वीर है ये।
दीपक पिछले पांच साल से इंफोसिस में काम कर रहे हैं। 2019 में वे कंपनी के क्लाइंट्स को ट्रेनिंग दे रहे थे तब की तस्वीर है ये।

हर दिन वर्कआउट किया, पसीना बहाया ताकि फिट रह सकूं
दीपक जब बोर्ड आउट हुए थे तब उन्हें 30% डिसेबल करार दिया गया था। वे अपने हाथ से 250 ग्राम वजन भी नहीं उठा पा रहे थे। इसके बाद उन्होंने एक ट्रेनर की मदद से खुद को इससे उबारा। वे हर दिन वर्क आउट करते थे। घंटों जिम में पसीना बहाते थे। अब वे पूरी तरह फिट हैं। अपने कॉलेज की तरफ से स्पोर्ट इवेंट में पार्टिसिपेट भी करते थे। वे कहते हैं कि आखिर एक ही चीज को पकड़कर कब तक रोया जाए। कुछ ख्वाब टूटने से जिंदगी तो खत्म नहीं होती न। इसलिए जो हुआ उसे लाइफ का एक पार्ट मानकर आगे बढ़ता गया।

साल 2016 में दीपक की मुलाकात अंकुर चतुर्वेदी से हुई। अंकुर भी NDA से बोर्ड आउट कैडेट हैं। वे पिछले कई सालों से बोर्ड आउट बच्चों की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके पास ऐसे 500 से ज्यादा बोर्ड आउट बच्चों की लिस्ट है। अब जो भी NDA से बोर्ड आउट होते हैं, उन्हें ऑफिशियली अंकुर चतुर्वेदी का फोन नंबर दे दिया जाता है। अंकुर उन्हें गाइड करते हैं, काउंसलिंग करते हैं और सही प्लेटफॉर्म पर पहुंचाने की कोशिश करते हैं।

NDA की तैयारी कर रहे बच्चों को मुफ्त में गाइड करते हैं दीपक
दीपक बताते हैं कि अंकुर चतुर्वेदी से कॉन्टैक्ट में आने के बाद लगा कि मुझे भी कुछ पहल करनी चाहिए। इसके बाद मैंने उन बच्चों को गाइड करना शुरू किया जो NDA में जाना चाहते थे। पहले फोन कॉल के जरिए करता था। धीरे-धीरे स्टूडेंट्स की संख्या बढ़ी तो ऑनलाइन और वॉट्सऐप ग्रुप के जरिए बच्चों को गाइड और मोटिवेट करने लगा। अभी अच्छी खासी संख्या में ऐसे बच्चे मुझसे जुड़े हैं। कई बच्चों का सिलेक्शन भी हुआ है। इसके साथ ही जो लोग बोर्ड आउट होते हैं, उन्हें भी सेटबैक टू कैमबैक करने में दीपक मदद करते हैं।

अपने परिवार के साथ दीपक पारवानी। दीपक की पत्नी भी पुणे में एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करती हैं।
अपने परिवार के साथ दीपक पारवानी। दीपक की पत्नी भी पुणे में एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करती हैं।

अभी जो बच्चे NDA और OTA से ट्रेनिंग के दौरान बोर्ड आउट हो जाते हैं उन्हें तो न कोई मेडिकल सपोर्ट मिलता है और न ही इनके बच्चे और परिवार को कोई सुविधा। पेंशन के नाम पर एक्स ग्रेशिया मिलता है जो डिसेबिलिटी के हिसाब से होता है। यह अमाउंट काफी कम होता है। 2015 में इसको लेकर एक कमेटी भी बनी। जिसमें सुझाव दिया गया कि एक्स ग्रेशिया का नाम बदल कर डिसेबिलिटी पेंशन कर दिया जाए, लेकिन कागजी कार्रवाई के आगे कुछ खास पहल इसके लिए नहीं हो सकी।

दीपक कहते हैं कि मैं तो जल्दी कमबैक कर गया। मुझे ज्यादा डिसेबिलिटी भी नहीं थी और आर्थिक रूप से भी कोई दिक्कत नहीं थी। पिता आर्मी ऑफिसर थे तो काफी सपोर्ट भी मिला, लेकिन ज्यादातर बच्चों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

कई बच्चों को तो पता ही नहीं होता कि उन्हें अब आगे करना क्या है? कोई गाइड करने वाला नहीं मिलता। खाली हाथ उन्हें घर लौटा दिया जाता है। कुछ बच्चों को तो इतनी गंभीर चोट लगी होती है कि वे शायद ही कभी अपने पैरों पर खड़े हो सकें। सरकार को ऐसे बच्चों को लेकर कोई ठोस और कारगर पहल करनी चाहिए। आखिर चोट लगने से टैलेंट तो खत्म नहीं हो जाता न।

खबरें और भी हैं...