एकनाथ शिंदे ने शिवसेना से विधायकों को तोड़कर भाजपा के समर्थन से सरकार जरूर बना ली है, लेकिन सरकार बनाए रखने और शिवसेना पार्टी पर दावा जीतने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के सामने जीती जानी है। शिवसेना में दो-फाड़ की स्थिति है, अब शिंदे गुट ने आखिरकार चुनाव आयोग को लिखकर शिवसेना पार्टी पर अपना दावा ठोका है। चुनाव आयोग ही फैसला करेगा कि शिवसेना पार्टी का नाम, निशान और संपत्ति किसे मिलेगी?
शिवसेना के विधायकों और सांसदों दोनों का बहुमत शिंदे के पास दिख रहा है। शिवसेना के 55 विधायकों में से करीब 40 का समर्थन शिंदे को हासिल है, वहीं अब 19 में से 12 सांसद भी शिंदे के साथ खड़े दिख रहे हैं। उद्धव गुट बैकफुट पर है, हालांकि पार्टी स्ट्रक्चर में अब भी उद्धव की पकड़ कायम बताई जा रही है। चुनाव आयोग ही तय करेगा कि शिवसेना उद्धव गुट है या शिंदे गुट। हमने पूर्व चीफ इलेक्शन कमिश्नर एसवाई कुरैशी से बात की और समझा कि अभी जो हालात हैं उस हिसाब से चुनाव आयोग किस गुट को ‘मुख्य पार्टी’ का दर्जा देने का फैसला कर सकता है।
पार्टी दो धड़ों में बंटने की स्थिति में चुनाव आयोग मुख्य पार्टी का फैसला किन पैमानों पर करता है?
पार्टी में गुटबाजी के बाद चुनाव आयोग दावों को परखते हुए दो पैमानों पर फैसला करता है। पहला, विधायक और सांसद का बहुमत किस गुट के पास है। दूसरा, पार्टी के सांगठनिक ढांचे में बहुमत किसकी तरफ है। दोनों पक्षों के दावों को इन दोनों पैमानों पर तौला जाता है। आयोग देखता है कि विधायकों और सांसदों के साथ पार्टी के स्ट्रक्चर में बहुमत किस गुट का है। चुनाव आयोग दोनों पक्षों के दावों में बहुमत सिद्धांत लागू करके ही एक गुट को ‘मुख्य पार्टी’ घोषित करने का फैसला करता है।
पार्टी के विवादों में चुनाव आयोग किन नियमों के तहत फैसला करता है?
चुनाव आयोग ये फैसला सिंबल्स ऑर्डर 1968 के तहत करता है। इसके पैरा 15 के तहत इलेक्शन कमीशन अपनी संतुष्टि के आधार पर ही सिंबल और पार्टी के नाम का फैसला करता है। ये अलग-अलग गुटों की स्थिति, ताकत, विधायक-सांसद के आंकड़ों के आधार पर तय होती हैं। चुनाव आयोग का फैसला सभी वर्गों और गुटों पर बाध्यकारी होता है, मतलब सभी गुटों को ये फैसला मानना ही होगा।
अगर चुनाव आयोग शिंदे गुट को मुख्य पार्टी घोषित करती है, तो उद्धव गुट क्या करेगा?
अगर उद्धव गुट अल्पमत में रह जाता है तो उसे नई पार्टी के तौर पर रजिस्टर कराना होगा। उद्धव गुट के विधायकों और सांसदों को नई पार्टी का सदस्य माना जाएगा।
मौजूदा स्थिति में शिंदे गुट के पास विधायकों और सांसदों का बहुमत है, लेकिन पार्टी की कार्यकारिणी में स्थिति साफ नहीं है। ऐसी स्थिति में किस गुट का पलड़ा भारी दिखता है?
ये चुनाव आयोग के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति है। इस स्थिति में चुनाव आयोग का काम कठिन हो गया है, लेकिन चुनाव आयोग की कोशिश दोनों गुटों में बहुमत का आंकड़ा पता लगाने की होगी।
पार्टी के सांगठनिक ढांचे में किस गुट का बहुमत है? इसका फैसला चुनाव आयोग कैसे करेगा, क्या चुनाव आयोग ग्राउंड पर जाकर चेक करेगा?
नहीं, चुनाव आयोग ग्राउंड पर जाकर कोई परीक्षण नहीं करेगा। चुनाव आयोग पार्टी के रिकॉर्ड और दोनों गुटों के दावों का परीक्षण करेगा। मसलन दोनों गुट अपने-अपने दावों के समर्थन में नेताओं की साइन की हुई लिस्ट देंगे। चुनाव आयोग दोनों के दावों को साबित करने के लिए कह सकता है।
क्या पार्टी का नाम, सिंबल, संपत्ति और फंड को भी गुटों के बीच बांटा जा सकता है?
इसमें सुप्रीम कोर्ट का भी एक ऑर्डर है। आम तौर पर किसी फैमिली प्रॉपर्टी के केस में कोर्ट बंटवारे का आदेश देता है, लेकिन पार्टियों के मामलों में इस तरह से नहीं होता। जिस भी गुट को चुनाव आयोग ‘मुख्य पार्टी’ घोषित करेगा, उसी के पास पार्टी का नाम, सिंबल और संपत्ति तीनों जाएगी।
क्या चुनाव आयोग पार्टी सिंबल को फ्रीज करके दोनों गुटों को नए पार्टी सिंबल देने का भी फैसला कर सकता है?
अगर कुछ ही दिनों में चुनाव होने वाले हैं तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग मुख्य पार्टी का सिंबल फ्रीज कर लेता है। इसके बाद दोनों गुटों को चुनाव लड़ने के लिए नए पार्टी सिंबल दिए जाते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में 2-3 साल तक चुनाव नहीं होने वाले हैं। ऐसे में पार्टी सिंबल फ्रीज करने की कोई जरूरत ही नहीं है। चुनाव आयोग को यही तय करना है कि किस गुट का बहुमत है।
अगर उद्धव पार्टी के स्ट्रक्चर पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं और शिंदे पार्टी के पदाधिकारियों में सेंध नहीं मार पाते हैं तो क्या होगा?
ऐसी स्थिति चुनाव आयोग के लिए पेचीदगी से भरी होगी। आम तौर पर ज्यादा अहम सांसदों और विधायकों का बहुमत ज्यादा अहम माना जाता है, लेकिन अगर पार्टी का ढांचा काफी बड़ा है और वो दूसरे गुट के बिल्कुल खिलाफ है, तो वो एक अलग परिस्थिति है, लेकिन विधायकों और सांसदों का बहुमत अहम होगा।
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