लक्ष्मण सिंह अस्सी के दशक में नौकरी की तलाश में राजस्थान के उदयपुर से अहमदाबाद आए। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, 9वीं भी पास नहीं कर सके थे। गांव के लड़कों की मदद से उन्हें वहां एक होटल में काम मिला। जहां वे बर्तन धोते थे, टेबल-चेयर साफ करते थे। उसके बाद उन्होंने दूसरे होटल का रूख किया। वहां भी उन्होंने साफ-सफाई का काम किया। इस तरह लंबे समय तक एक अलग-अलग होटलों में वे काम करते रहे। इसके बाद उन्होंने खुद की एक दुकान खोली। बाद में यह दुकान भी उनकी बिक गई।
हालांकि इसके बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और कोशिश जारी रखी। आज देश के कई शहरों में उनके 50 से ज्यादा फूड आउटलेट्स हैं। सालाना 70 करोड़ रुपए का कारोबार है। इसके जरिए एक हजार लोगों को उन्होंने रोजगार से भी जोड़ा है। आज की खुद्दार कहानी में पढ़िए लक्ष्मण सिंह के संघर्ष और कामयाबी के सफर के बारे में...
9वीं में फेल हुए, पढ़ाई छोड़नी पड़ी
लक्ष्मण सिंह कहते हैं कि मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी। पिता जी रिक्शा चलाते थे। उसी से जैसे-तैसे हमारा गुजारा चल रहा था। इसी बीच मैं 9वीं में फेल हो गया। यानी पढ़ने-लिखने की उम्मीदें भी टूट गईं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। फिर पता चला कि गांव के कुछ लड़के अहमदाबाद में काम करते हैं। मैंने उनसे कॉन्टैक्ट किया और फिर काम के सिलसिले में उदयपुर से अहमदाबाद चला गया। यहां काफी हाथ-पैर मारने के बाद एक होटल में काम मिला।
वे बताते हैं कि उस होटल में मुझे खाने बनाने में मदद करने से लेकर बर्तन धोने और साफ-सफाई का काम मिला। कुछ दिनों तक काम करने के बाद मैंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वे दूसरे होटल में चले गए। जगह तो बदल गई, लेकिन काम नहीं बदला। यहां भी उन्हें साफ-सफाई का ही काम मिला। इस दौरान उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। खैर घर-परिवार की जरूरतों के लिए काम करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था। करीब एक साल तक उन्होंने यहां काम किया।
एक के बाद एक नौकरी बदली, होटलों सफाई का काम किया
लक्ष्मण कहते हैं कि एक साल तक होटल में काम करने के बाद मैंने फिर से नौकरी बदलने का इरादा किया। होटल भी छोड़ दिया, लेकिन कहीं कुछ खास काम नहीं मिला। इसके बाद मैंने एक गेस्ट हाउस को जॉइन कर लिया। यहां उसकी देखभाल और मैनेज करने का काम मिला। करीब एक साल तक यहां भी काम किया। होटल और गेस्ट हाउस से मन भर जाने के बाद लक्ष्मण सिंह ने साल 1997 में एक प्राइवेट कंपनी में काम ढूंढ लिया। यहां उनका मन लगा और अच्छी खासी कमाई भी की।
साल 2008 में जब लक्ष्मण सिंह के पास कुछ सेविंग्स हो गई तो उन्होंने एक दुकान खोली। जहां वे पिज्जा बेचते थे। हालांकि यहां उन्हें सफलता नहीं मिली। जिस उम्मीद से उन्होंने दुकान शुरू की थी, उसके मुताबिक उन्हें कामयाबी नहीं मिली। करीब दो साल काम करने के बाद लक्ष्मण सिंह ने उस दुकान को भी बेच दिया।
साल 2010 में शुरू किया अनलिमिटेड पिज्जा की दुकान
वे कहते हैं कि दुकान बेचने के बाद मैंने तय किया कि अब बड़े लेवल पर काम करना है। साल 2010 में मैंने नौकरी भी छोड़ दी और अहमदाबाद में रियल पेपरिका नाम से नया आउटलेट खोला। कुछ दिनों बाद कंपनी भी रजिस्टर कर ली। फिर नई रणनीति के तहत बिजनेस को जमाना शुरू किया। यहां मैंने अनलिमिटेड पिज्जा का मॉडल शुरू किया। हालांकि शुरुआत में इसमें भी कामयाबी नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने अपनी दुकान की लोकेशन बदल ली, लेकिन एक बार फिर से निराशा हाथ लगी। उन्होंने फिर दुकान की लोकेशन बदली। इस तरह 4 अलग-अलग लोकेशन उन्होंने बदले।
एक हजार से ज्यादा कर्मचारी, 50 से अधिक आउटलेट्स
लगातार मेहनत के बाद आखिरकार लक्ष्मण को कामयाबी मिली। इस दुकान को लोग पसंद करने लगे। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। इसके बाद उन्होंने अपना मॉडल और अधिक एडवांस किया। अलग-अलग वैराइटी के पिज्जा उन्होंने बनाना शुरू किया। इस तरह कुछ ही सालों में उनका कारोबार अच्छा खासा जम गया। फिर उनके भाई ने भी अपनी नौकरी छोड़कर उनके बिजनेस को जॉइन कर लिया।
इसके बाद उन्होंने अपना दायरा बढ़ाना शुरू किया। अहमदाबाद के बाद गांधीनगर, भरूच, भवनगर सहित गुजरात के कई शहरों में अपना आउटलेट शुरू किया। फिलहाल देशभर में उनके 50 से ज्यादा आउटलेस्ट हैं। जहां करीब एक हजार लोग काम करते हैं।
लक्ष्मण बताते हैं कि वे अलग-अलग शहरों में फ्रेंचाइजी मॉडल पर अपना आउटलेट शुरू कर रहे हैं। इसमें दो तरह के मॉडल हैं। एक में अलग-अलग वैराइटी के अनलिमिटेड पिज्जा और दूसरे मॉडल में कॉपी, शेक, सॉफ्ट ड्रिंक, पास्ता और सालाद जैसे आइटम्स हैं।
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राजस्थान के बाड़मेर जिले की रहने वाली रूमा देवी, नाम जितना छोटा काम उतना ही बड़ा, जिसके सामने हर बड़ी उपलब्धि छोटी पड़ जाए। 4 साल की थीं तब मां चल बसीं, पिता ने दूसरी शादी कर ली और चाचा के पास रहने के लिए छोड़ दिया। गरीबी की गोद में पल रही रूमा को हंसने-खेलने की उम्र में खिलौनों की जगह बड़े-बड़े मटके मिले, जिन्हें सिर पर रखकर वो दूर से पानी भरकर लाती थीं। 8वीं में पढ़ाई छूट गई और 17 साल की उम्र में शादी।
पहली संतान हुई वो भी बीमारी की भेंट चढ़ गई। लेकिन उन्होंने हौसले को नहीं टूटने दिया। खुद के दम पर गरीबी से लड़ने की ठान ली और घर से ही हैंडीक्राफ्ट का काम शुरू किया। आज वे अपने आप में एक फैशन ब्रांड हैं। देश-विदेश में ख्याति है और 22 हजार महिलाओं की जिंदगी संवार रही हैं। (पढ़िए पूरी खबर)
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