कहते हैं कि मुसीबत अपने साथ चुनौती लाती है और उसके साथ ही कई बेहतर अवसर भी। जिसने चुनौती को पार कर अवसर का फायदा उठा लिया, उसे आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। कुछ ऐसा ही मुश्किल भरा बचपन रहा माउंटेन गर्ल शीतल का। शीतल उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से हैं। उनका जब जन्म हुआ, तब उनकी दादी बेटी पैदा होने पर दुखी हुईं।
पिता ड्राइव थे, घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। उनकी मां एक साधारण ग्रामीण महिला थीं, जिन्हें देश-दुनिया की ज्यादा खबर नहीं थीं। ये शीतल का हौसला ही था, जो तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने दम पर वे आगे बढ़ीं। सिर्फ परिवार का ही नहीं, बल्कि अपने राज्य और देश का भी नाम रोशन किया। इस पहाड़ी लड़की को पहाड़ों से कुछ ऐसा प्रेम हुआ कि दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट को फतह कर लिया। शीतल दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा पर चढ़ने वाली सबसे कम उम्र की युवा महिला भी बनीं। उन्होंने अपनी उपलब्धियों को ‘गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में दर्ज कराया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ‘तेनजिंग नोर्गे अवाॅर्ड’ से सम्मानित कर, उनके साहस को सलाम किया है।
आज की खुद्दार कहानी में जानेंगे शीतल की अदम्य साहस की अद्भुत कहानी, जिसने अपनी सोच, साहस और जज्बे से इतिहास रच दिया।
बचपन पहाड़ों और चुनौतियों में बीता
शीतल का जन्म 1995 में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के सल्लोड़ा गांव में हुआ। उनका बचपन आम बच्चों से अलग काफी चुनौतीपूर्ण रहा। जब जन्म हुआ तब उनकी दादी बहुत दुखी हुईं, बेटी जो घर जन्मी थी। शीतल के पिता उमाशंकर टैक्सी ड्राइवर हैं और मां सपना देवी गृहिणी।
शीतल बताती हैं, “मेरे घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। मां ने केवल दसवीं तक ही पढ़ाई की थी। पिता का अधिकांश समय एक जगह से दूसरी जगह सवारियों को लाने-छोड़ने में चला जाता था। पापा घर पर ज्यादा समय नहीं दे पाते थे, लेकिन मां का हमेशा से बहुत सपोर्ट मिला। मैं बचपन से ही मां के साथ उनकी मदद के लिए जंगल जाती थी। हम दोनों जंगल से घास काट कर लाते थे। आज मैं जो भी हूं, उसमें मेरी मां का बहुत बड़ा रोल है। वे चाहती थीं कि मैं पढूं-लिखूं और जिंदगी में आगे बढ़ती जाऊं। मेरी बचपन की कठिनाइयों ने ही मुझे साहस दिया माउंटेनियरिंग को चुनने का।
हाइट छोटी थी, नहीं मिला परेड में शामिल होने का मौका
शीतल को पहाड़ों पर चढ़ने में दिलचस्पी तो थी, लेकिन उन्हें इसके बारे में कुछ ज्यादा पता नहीं था। अपने शहर के सतशिलिंग इंटर कॉलेज और एलएसएम पीजी काॅलेज पिथौरागढ़ से इंटर और ग्रेजुएशन की पढ़ाई की। वे कॉलेज के दिनों से एनसीसी (NCC) से जुड़ी थीं और माउंटेनियरिंग का मौका भी वहीं से मिला।
शीतल बताती हैं, “मैं NCC की रिपब्लिक डे की परेड में भाग लेना चाहती थी। मेरी छोटी हाइट के कारण मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ। इस बात से मैं बहुत दुखी थी और उसी दौरान मुझे माउंटेनरिंग की ट्रेनिंग का ऑफर आया। मैं बिना देर किए ऑफर को स्वीकार लिया। पहली बार मैंने उत्तराखंड के रुद्र गैरा माउंटेन की चढ़ाई की। किसी माउंटेन पर चढ़ने का एहसास बहुत ही अद्भुत था। इस तरह मैंने तय किया कि माउंटेनरिंग ही मेरा करियर है।”
कंचनजंघा पर चढ़ना था WOW मोमेंट था !
शीतल का माउंटेनियरिंग का सफर 2013 से शुरू हुआ। 2015 में उन्होंने ‘हिमालयन इंस्टीट्यूट आफ माउंटेनियरिंग, दार्जिलिंग’ और फिर ‘पर्वतारोहण संस्थान, जम्मू से माउंटेनियरिंग का एडवांस कोर्स किया। 2015 में ही उन्होंने 7,120 मीटर ऊंची त्रिशूल पीक पर चढ़ाई की। इसके बाद 2017 में 7,075 मीटर फंची सतोपंथ पर पहुंचकर उन्होंने तिरंगा फहराया।
शीतल कहती हैं, “मैं 2013 से ही माउंटेनियरिंग कर रही थी, लेकिन मेरे लिए बड़ा दिन तब आया, जब मैंने 21 मई 2018 की सुबह दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा (8,586 मीटर) पर देश का झंडा फहराया। मैंने कंचनजंघा पर चढ़ने वाली सबसे कम उम्र की महिला बन गई। उस वक्त मेरी उम्र 22 साल थी। मैं चोटी पर 3 बजे भोर में पहुंच गई थी तो मुझे उस लम्हे को कैमरे में कैद करने के लिए सुबह तक का इंतजार करना पड़ा। इसके बाद मैंने यूरोप की सबसे ऊंची चोटी माउंट एल्ब्रुस पर भी चढ़ाई किया।
कई अवॉर्ड और पुरस्कार से नवाजी गईं शीतल
शीतल के साहस और जज्बे के लिए उन्हें कई खिताब दिए गए हैं। शीतल को उत्तराखंड सरकार ने वीर बाला तीलू रौतेली के नाम पर दिए जाने वाले अवॉर्ड ‘स्त्री शक्ति तीलू रौतेली पुरस्कार’ से सम्मानित किया।उन्हें उत्तराखंड राज्य के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान का ब्रांड एंबेसडर भी बनाया है। राज्य में साहसिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए शीतल, ‘क्लाइंबिंग बियॉन्ड द सम्मिट्स’ की को-फाउंडर बनीं। आज वे बतौर माउंटेन गाइड भी काम कर रही हैं। शीतल को लैंड एडवेंचर के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ‘तेनजिंग नोर्गे अवॉर्ड’ दिया है।
शीतल का कहना है, “मैं अपनी कामयाबी का श्रेय पूरी तरह से अपने माता-पिता और अपने ट्रेनर को देती हूं। उन्होंने मुझे यहां तक का सफर तय करने में मदद की है। मेरी प्रेरणा पर्वतारोही चंद्रप्रभा ऐतवाल हैं। उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है। मुझे खुशी है कि मैं उन चुनिंदा लड़कियों में शामिल हूं जिसे परिवार, समाज और देश ने कुछ अलग करने के लिए बहुत सपोर्ट किया। मेरे लिए जिंदगी का सबसे खूबसूरत वो पल था, जब मुझे राष्ट्रपति भवन में अवॉर्ड मिला था। मेरा माता- पिता के लिए प्राउड मोमेंट था।”
पर्वतों की चोटियों पर जान ले लेती है छोटी-सी गलती
माउंटेनियरिंग चुनने के बारे में पूछे जाने पर शीतल का कहना था कि माउंटेनियरिंग को चुनने के लिए एक तरह का पागलपन होना जरूरी है। ये ऐसा कोई खेल नहीं, जिसमें गिरने पर आपके हाथ-पैर टूटेंगे। यहां एक छोटी-सी गलती से आपकी जान चली जाती है।
शीतल आगे कहती हैं, “माउंटेनियरिंग फिल्मी पर्दे पर जितना एक्साइटिंग और एडवेंचरस दिखता है, असल में वह उतना ही रिस्की है। इसे करने के लिए दृढ़ निश्चय और अदम्य साहस चाहिए। कई बार ऊपर चढ़ने के बाद आपकी हालत खराब हो जाती है, कई बार मौसम भी मुश्किल भरा होता है। ऐसे में आपका विश्वास और साहस ही आपको आगे लेकर जाता है।”
शीतल का मानना है कि जिन लड़कियों को पहाड़ आकर्षित करता है, उन्हें माउंटेनियरिंग जरूर करनी चाहिए। लड़कियां लड़कों से ज्यादा ताकतवर होती हैं। बस, कई बार उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता। जिस दिन इसका एहसास होता है तो वे इतिहास रच जाती हैं।
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