28 फरवरी 2002 की सुबह दाहोद के रंधीकपुर गांव की एक बस्ती खाली हो चुकी थी। बूढ़े-बच्चे, औरत-मर्द सब बदहवासी और डर की हालत में काम भर का सामान लेकर खेतों-जंगलों के रास्ते भाग रहे थे। पीछे एक भीड़ थी। हाथों में कुल्हाड़ी, हंसिया और तलवारें लिए।
करीब 96 घंटे तक 5 महीने की प्रेग्नेंट बिलकिस बानो, 9 महीने की प्रेग्नेंट शमीम, 7 साल का सद्दाम और उसकी मां अमीना खेतों-जंगलों में रुकते-भागते रहे।
3 मार्च 2002 को इस भीड़ ने आखिरकार उन्हें पत्थलपाणी के जंगल में घेर लिया। बिलकिस समेत 6 औरतों का गैंगरेप हुआ। शमीम की एक दिन की बच्ची और बिलकिस की ढाई साल की बेटी भी मार दिए गए 13 लोगों में शामिल थे।
फिलहाल इस मामले में 11 दोषी रिहा हो गए हैं। गुजरात सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। भास्कर हर उस जगह गया, जहां बिलकिस 28 फरवरी से 3 मार्च के दौरान रुकी थी, पढ़िए उन 96 घंटों की कहानी…
पड़ोसी ही दंगाई बन गए, भागते नहीं तो क्या करते
27 फरवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात आ रही साबरमती एक्सप्रेस के दो कोच में आग लगा दी गई। इसमें 59 तीर्थयात्री मारे गए। गुजरात में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा भड़क गई। गोधरा से करीब 50 किलोमीटर दूर दाहोद का रंधीकपुर गांव भी इसकी चपेट में आ गया।
बिलकिस अपने ससुराल देवघर बारिया से यहां अपने परिवार के साथ ईद मनाने आई थीं। बस्ती में रहने वाले याकूब बताते हैं, हमारे बाप-दादा यहीं के हैं। हमारी जमीन-जायदाद सब यहां है। वे सब (दंगाई) हमारे पड़ोसी हैं। उस दिन पता नहीं क्या हुआ उन सबको?
27 फरवरी 2002 की शाम थी। बस्ती के भीतर एक भीड़ घुस आई। हमारे लाख समझाने पर भी वे नहीं समझे। हम समझ चुके थे, अगर यहां रहे तो जिंदा नहीं बचेंगे।
शाम से ही बस्ती खाली होने लगी, जो जहां था वहीं से निकल गया। करीब 120 लोगों की एक टोली मेरे साथ थी। बिलकिस का पति भी मेरे साथ था। हम खुशकिस्मत थे कि 3 दिन तक भटकने के बाद हमें प्रोटेक्शन मिल गई और हम गोधरा रिलीफ कैंप तक सही सलामत पहुंच गए।
बिलकिस और उसके साथ के 15 लोग हमसे अलग हो गए। वे देवघर बारिया पहुंचने के शॉर्टकट के लिए जंगल के रास्ते निकल गए थे। भीड़ ने उन्हें इसी जंगल में घेर लिया।
बिलकिस के पति याकूब रसूल कहते हैं, हमें प्रोटेक्शन देने वाली टीम ने भरोसा दिया था कि बाकी लोगों को भी वह जल्द खोजकर कैंप में पहुंचा देंगे, लेकिन बिलकिस मुझे 15 दिन बाद मिली। वह बिल्कुल टूटी हुई थीं। मुझे पता चल चुका था कि उसके साथ क्या हुआ।
मैं उन बातों का जिक्र कर उसे और मायूस नहीं करना चाहता था। याकूब रसूल रुके और फिर कहा- मेरी बेटी शेहला उनके साथ नहीं थी। उन 15 लोगों में से सिर्फ दो लोग बचे थे। एक 7 साल का बच्चा सद्दाम और बिलकिस।
सुलेमान का पछतावा और बूढ़ी आंखों का दुख
5 महीने की प्रेग्नेंट बिलकिस बानो अपनी ढाई साल की बेटी का हाथ थामे समतल, पहाड़, नदी पार करते हुए एक गांव में पहुंची। गांव का नाम था कुआंजर। उस वक्त गांव के सरपंच थे सुलेमान। सुलेमान का नौकर शंकर इस केस में कोर्ट में गवाह बना।
सुलेमान उस दिन यानी 28 फरवरी को याद कर अब तक पछताते हैं। उनकी बूढ़ी आंखों में ये दुख बार-बार नजर आता है। बिलकिस को न रोक पाने का दुख, किसी को मौत से न बचा पाने का दुख।
सुलेमान लड़खड़ाती आवाज में बताते हैं, माहौल खराब होने लगा था। मेरे गांव में हिंदू ज्यादा और मुसलमान कम हैं। पुलिस को शायद लगा कि माहौल बिगड़ सकता है, तो वे मुझे गांव से दूर ले गए। घर पर मेरा नौकर शंकर था। उसने मुझ तक खबर पहुंचाई कि रंधीकपुर गांव से कुछ लोग हमारे घर आए हैं।
उस टोली में ज्यादातर औरतें और बच्चे ही थे। बिलकिस 5 महीने की प्रेग्नेंट थीं, लेकिन शमीम 9 महीने की प्रेग्नेंट थी। शंकर ने उन्हें समझाया कि यहीं रुक जाएं। उनके लिए इस हालत में ज्यादा चलना ठीक नहीं।
उन लोगों को डर था कि कहीं उनका पीछा करते-करते भीड़ यहां न आ जाए। 4-5 घंटे रुककर वे लोग चले गए। शमीम पूरे महीने की प्रेग्नेंट थीं। शंकर ने उनके साथ दाई भी भेज दी, डिलीवरी किसी भी घड़ी हो सकती थी।'
सुलेमान कहते हैं, 'मैं अगर उस दिन होता तो शायद यह हादसा ही न होता। बिलकिस बच जातीं। एक दिन की वह बच्ची भी बच जाती। सब बच जाते।'
गांव के लोग बताते हैं कि रंधीकपुर से कुआंजर गांव के लिए अब एक सड़क जाती है। उस वक्त कच्चा-पक्का रास्ता था। बिलकिस डरी हुई थीं कि सड़क से जाएंगे तो शायद हमलावर उन्हें ढूंढ लेंगे। इसलिए वह जंगल के रास्ते निकलीं। बिलकिस छिपते-छिपाते अपने ससुराल पहुंचने की कोशिश में थीं।
जीवन, हिंसा, मौत: सुलेमान और अबेसी खाट का साझा दुख
बिलकिस और उनका परिवार कुआंजर से पैदल-पैदल एक-डेढ़ किलोमीटर चलकर पत्थनपुर गांव पहुंचे। पत्थनपुर आदिवासी गांव है। जंगल के बीचों-बीच बसे इस गांव में रास्ता थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है। हमने बहुत कोशिश की, लेकिन हिंदी बोलने वाला कोई नहीं मिल सका। यहां आदिवासी भाषा को मिलाकर गुजराती बोली जाती है।
हम उस वक्त के सरपंच अबेसी खाट के घर पहुंचे। वे बताते हैं, '14 नहीं, बल्कि करीब 100 लोग यहां आए थे। एक कुएं की तरफ इशारा कर वे कहते हैं, सबने यहां से पानी पिया। हमने उन्हें कुछ खिलाया-पिलाया। काफी लोग निकल गए, लेकिन 14 लोग यहीं रुक गए। करीब ही मौजूद एक घर में हमने उन्हें रुकवाया। एक औरत को बच्चा होने वाला था, उसका दर्द बढ़ता जा रहा था।
कुछ ही घंटों में उस औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। हमने उन्हें जरूरत की सारी चीजें दीं।
तीसरे दिन सुबह यानी 3 मार्च 2002 को वे लोग यहां से चले गए। हमने उन्हें बहुत रोका। बिलकिस भी गर्भ से थीं। एक दिन पहले बच्ची पैदा हुई थी, जो अभी पूरे दो दिन की भी नहीं थी और भी छोटे-छोटे बच्चे उनके साथ थे।
हम नहीं चाहते थे कि वे लोग यहां से जाएं, लेकिन वे देवघर बारिया पहुंचना चाहते थे। हमने गांव के कुछ लोगों से कहा, इन्हें डैम तक छोड़ आओ। गांव से करीब एक किलोमीटर दूर एक डैम है। जब तक उन्हें वहां छोड़ा गया, सब सलामत थे।'
अबेसी हमें उस घर तक भी ले गए, जहां वो बच्ची पैदा हुई थी। ये घर किसी नायक का था। वह उस घटना से आज तक इतने सदमे में है कि बोलने में लड़खड़ा रहे थे। उन्होंने कैमरे के सामने आने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, 'हमें डर लगता है कि हम कुछ बोले तो हमारे साथ कुछ हो जाएगा।'
हालांकि अबेसी खाट ने बाद में चलते वक्त हमसे कहा- मैं नहीं डरता। जहां चाहो आज भी गवाही ले लो। मैं झूठ नहीं बोलूंगा। उनकी आंखें निडर थीं। सुलेमान की बूढ़ी आंखों का दुख अबेसी के चेहरे पर भी साफ नजर आता है।
मां के सामने एक दिन की बच्ची को पत्थर पर पटककर मार डाला
अब मैं उस जगह पहुंचने वाली थी, जहां घटी क्रूरता पर भरोसा करना मुश्किल जान पड़ता है। पत्रकार हूं, लेकिन उससे भी पहले एक औरत। इस क्रूरता के बारे में जो भी सुना-पढ़ा, अब सब सामने था। एक मां, जो अभी प्रसव पीड़ा से उबर भी नहीं पाई थी, जिसने एक दिन पहले बच्ची को जन्म दिया था। उसका गैंगरेप किया गया। उसके सामने ही पत्थर पर पटक कर बच्ची की जान ले ली गई।
5 महीने की प्रेग्नेंट बिलकिस की ढाई साल की बच्ची का हाथ छुड़ाकर उसे खाईं में फेंक दिया गया। उसके साथ गैंगरेप हुआ और पेट में पल रहा बच्चा भी नहीं बच सका। उसने एक दिन में दो बच्चे खो दिए। बिलकिस की मां हलीमा और उनकी दो बहनों का भी गैंगरेप हुआ। अमीना के हाथ से उनके 6-7 साल के बच्चे सद्दाम को छुड़ाकर खाई में फेंक दिया, फिर उस पर एक पत्थर रख दिया गया।
मैं केसरबाग के उस जंगल पत्थलपाणी में खड़ी थी। यहां कोई गवाही देने वाला नहीं था। मैं उस नदी के करीब गई, जिसके पास ये क्रूरता हुई, उन पत्थरों से भी गुजरी, जहां पटक-पटक कर बच्चों की जान ले ली गई। देर तक सोचती रही कि ये हिंसा और क्रूरता कैसे की गई होगी। तलवारों के जख्म झेल रहीं औरतें और बच्चे कितने चीखे होंगे।
परिवार जो खत्म हो गए, बच्चे जो बड़े नहीं हो पाए
बिलकिस के साथ निकले 14 लोगों में उनकी दो बहनें थीं। एक उनसे कुछ बड़ी और एक 13 साल की। 45 साल की उनकी मां हलीमा और पिता भी थे। उनकी चचेरी बहन शमीम थी, जो 9 महीने की प्रेग्नेंट थी और उसने ही पत्थनपुर में बच्ची को जन्म दिया था।
सद्दाम की मां अमीना भी बिलकिस की रिश्ते में बहन ही थी। ये एक परिवार की कहानी थी, जो खत्म हो गया। उन बच्चों की कहानी, जो कभी बड़े नहीं हो पाए। एक तो पैदा ही नहीं हो पाया।
बिलकिस केस में दोषी 11 लोगों के रिहा होने के बाद से एक बार फिर रंधीकपुर की ये बस्ती 2002 की ही तरह वीरान हो गई है। पहले 28 फरवरी 2002 को ये बस्ती वीरान हुई थी और आज 20 साल बाद फिर ये बस्ती सुनसान है। डर पसरा हुआ है।
बिलकिस की कहानी ही सुप्रीम कोर्ट में सबसे मजबूत सबूत बनी
बिलकिस का केस लड़ने वालीं एडवोकेट शोभा गुप्ता बताती हैं- बिलकिस की ये कहानी ही थी, जो सुप्रीम कोर्ट के लिए सबसे बड़ा सबूत बनी। गुजरात पुलिस ने इस कहानी को डाउटफुल बताते हुए क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी थी।
सिर्फ बिलकिस की ये कहानी थी, जो उसने डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर, NHRC, कई गैरसरकारी संगठन और सबसे अहम उस कैंप में भी दर्ज कराई थी, जहां इस घटना के बाद उसे ले जाया गया था। इन्हीं सबको हमने आधार बनाया, हमारे फैक्ट इतने मजबूत थे कि केस दोबारा खुलवाने में जरा भी दिक्कत नहीं आई।
साल 2003 में CBI इन्वेस्टिगेशन का ऑर्डर हो गया था। CBI ने भी बढ़िया काम किया और वहां तक पहुंच गई, जहां शवों को छिपा दिया गया था। चार्जशीट इतनी मजबूत थी कि 6 पुलिसवाले और 2 डॉक्टर्स भी दोषी पाए गए थे। ऐसा बहुत कम होता है कि पुलिस और डॉक्टर को भी अपराधी माना जाए।
इनपुट: राजू सोलंकी
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होश आया तो अम्मी मर चुकी थीं, उनके तन पर एक भी कपड़ा नहीं था
'मैं जब होश में आया तो अम्मी की छाती पर तलवारों के घाव थे। उनके तन पर एक भी कपड़ा नहीं था। मैं जोर-जोर से चिल्लाया, अम्मी उठो-अम्मी उठो, पर वे नहीं उठीं। वे मर चुकीं थीं', कांपती आवाज में सद्दाम शेख ये बताते हैं।
सद्दाम उस दिन बिलकिस की टोली में थे। उनकी मां अमीना रिश्ते में बिलकिस की बहन लगती थीं। सद्दाम अब 27 साल के हैं, लेकिन उस दिन का मंजर बताने के दौरान डरे-घबराए 6-7 साल का वह बच्चा ही नजर आते हैं, जिसके सामने उसकी अम्मी की लाश पड़ी है। पढ़ें पूरी खबर...
(इस सीरीज की अगली कड़ी में पढ़िए, एक बार फिर क्यों खाली हो गई रंधीकपुर की बस्ती। दोषियों के परिवार इस पूरे केस को कैसे देखते हैं और कितनी मुश्किल रही बिलकिस की न्याय की लड़ाई।)
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