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हिरण के बच्चे को अपना दूध पिला रही ये महिला बिश्नोई समाज की है। ये तस्वीर ही उस दस्तूर की बानगी है, जिसमें बिश्नोई समाज का जानवरों के प्रति अटूट प्रेम दिखता है।
बिश्नोई। यह बीस और नौ शब्द से बना है। जिसका मतलब होता है 29 नियमों का पालन करने वाला एक पंथ। जिसमें से एक है जानवरों पर दया करना। जहां-जहां बिश्नोई बसाहट है वहां हिरण, मोर और काले तीतर के झुंड मिलेंगे। इनकी रक्षा के लिए यह पंथ अपनी जान तक दे देता है और इन्हें बचाने के लिए किसी की जान ले भी सकता है।
बिश्नोई समाज को प्रह्लादपंथी कहा जाता है। यह भगत प्रह्लाद को मानते हैं। इसलिए होलिका दहन के दिन शोक मनाते हैं। उस दिन इनके घर में खिचड़ी बनती है।
इसी तरह इस समाज में पेड़-पौधे को काटना मना है। इसलिए मरने के बाद इन्हें जलाया नहीं जाता, बल्कि मिट्टी में दफना दिया जाता है। हर घर के आगे खेजड़ी का पेड़ होना भी जरूरी है।
पंथ सीरीज में 48 डिग्री पारे में, कांटों भरे कीकर के जंगल से होते हुए मैं बिश्नोई समाज की प्रह्लादपंथियों की परंपराएं देखने निकली हूं-
हरियाणा के हिसार में गांव बड़ोपल से कुछ दूरी पर संकरी सड़क के दोनों ओर दूर तक जंगल है। आसपास कंटीली झाड़ियां और कुछ कोस पर कीकर और खेजड़ी के पेड़ हैं। बालू पर हमारी गाड़ी धीरे-धीरे रेंग रही है।
कार से उतर कर मैं इस जगह को एक्सप्लोर करना चाहती हूं। गर्म बलुई मिट्टी पर मेरे पांव जूते पहने होने के बावजूद जल रहे हैं। बालू में न दिखाई देने वाले छोटे-छोटे कांटे जूतों से अंदर चले गए।
इस तरह मैं ब्लैक बक सेंचुरी पहुंचती हूं। नील गाय हमें देखते ही इधर-उधर भाग रही हैं। हिरण तो हमें देखते ही एक सेकेंड में वहां से दौड़ लिया। फिर कुछ दूरी पर जाकर खड़े होकर हमें देखने लगा। जैसे सोच रहा हो आज हमारे जंगल में ये कौन आ गया।
इस झुलसा देने वाली गर्मी में एक आदमी हिरण और नील गाय के लिए एक हौज में पानी भर रहा है। यहां हर दिन बिश्नोई समाज के लोग भाखड़ा नहर का ठंडा पानी इन हौज में भरते हैं ताकि जानवरों की प्यास बुझ सके। इसी जंगल में इनके लिए स्पेशल चारा भी उगाया जाता है।
इस सेंचुरी में केंद्र सरकार का 40,000 करोड़ रुपए का टाउनशिप का एक प्लान बिश्नोई समाज के लोगों ने लंबी लड़ाई लड़कर शिफ्ट करवाया है। इस जंगल में हिरण, सांप, नील गाय समेत अनेक जीव और खेजड़ी के पेड़ हैं।
इस बारे में बिश्नोई रत्न कुलदीप बिश्नोई बताते हैं, ‘गुरु जम्भेश्वर ने हमें 29 नियमों का मंत्र दिया था। उन्हीं को मानते हुए आज भी हम वन्यजीव और वन बचाने के लिए वचनबद्ध हैं। इसके लिए युवाओं की प्रबंधन कमेटियां बनाई गई हैं। बिश्नोइयों के इलाके में कोई शिकारी या लकड़ी तस्कर आने की हिम्मत नहीं करते।'
बिश्नोई समाज के जीव प्रेमी अनिल खिच्चड़ मंगाली बताते हैं, ‘यह हमारे लिए ये सब सामाजिक नहीं धार्मिक काम है। हिरण के लिए हम ज्यादा संवेदनशील है। इसकी वजह यह है कि यह सबसे ज्यादा निरीह और कमजोर है। इस वजह से इसके इंसान भी दुश्मन हैं और दूसरे जानवर भी।
अबोहर और राजस्थान में बिश्नोई समाज के घरों में आमतौर पर हिरण आ जाते हैं। हिरण के छोटे बच्चे को महिलाएं अपना दूध पिलाकर बड़ा करती हैं।’
बिश्नोइयों को प्रहलाद पंथी क्यों कहते हैं? मैं यह जानना चाहती थी। जवाब मिलता है कि भक्त प्रहलाद को भगवान विष्णु ने वचन दिया था कि वो कलयुग में उन जीवों का उद्धार करने के लिए आएंगे जो सतयुग में रह गए हैं। बिश्नोई समाज गुरु जम्भेश्वर को भी विष्णु का अवतार मानता है।
ज्यादातर बिश्नोई जाट समाज से इस पंथ में आए हैं। इस समाज को मानने वाले राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में रहते हैं।
इस पंथ के बारे में और ज्यादा जानने के लिए मैं हिसार शहर से 40 किलोमीटर दूर आदमपुर के गांव सदलपुर पहुंचती हूं। यह बिश्नोई बहुल समाज का गांव है।
शाम के 6 बजने वाले हैं। यहां के बिश्नोई मंदिर में पूजा का समय हो गया है। मंदिर में गुरु जम्भेश्वर के सिवा कोई और मूर्ति नहीं है।
गुरु जम्भेश्वर की मूर्ति के सामने कुछ भी नहीं रखा हुआ है। हिंदू मंदिरों से तुलना करे तो बेहद सादा है यहां सब कुछ। शाम का हवन शुरू हो चुका है। हवन में गाय के उपलों को जलाकर उस पर सूखे नारियल की गिरियां पहले डाली गईं। उस पर शुद्ध घी, सौंफ, तिल और हवन सामग्री डाली जा रही है।
गुरु जम्भेश्वर वचन का पाठ हो रहा है। हवन के बाद आरती होती है।
आरती की थाली गुरु जम्भेश्वर की मूर्ति की ओर नहीं रखी जाती। जो व्यक्ति आरती कर रहा है उसकी पीठ मूर्ति की ओर रहती है।
इसकी वजह भगत राम बताते हैं, ‘गुरु जम्भेश्वर का कहना था कि मैं जोत में हूं जिसका मुंह चारों ओर है। इसलिए आरती उनकी मूर्ति को न दिखाकर चारों ओर दिखाई जाती है।’
आरती के बाद वहीं गांव में हम खाना खाने गए। घर के आंगन में मोर हाथ से दाने चुग रहा है।
गुरु जम्भेश्वर के भक्त घर या मंदिर में सुबह और शाम सिर्फ हवन करते हैं। गुरु जम्भेश्वर का कहना है कि कोई मूर्ति पूजा नहीं करनी है। घर में सुबह-शाम हवन करना है।
बिश्नोई समाज में बच्चे का जन्म और शादी के रीति-रिवाज भी अलग होते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद 29 दिन बच्चे और उसकी मां को अलग रखा जाता है।
30वें दिन हवन होता है और पाल-पानी रखा जाता है। गुरु जम्भेश्वर के 120 शब्दवाणी से इसे मंत्रित किया जाता है। इस पाल को बच्चे को पिलाया जाता है जिसे पीने से वह बिश्नोई हो जाता है। उसके बाद वह घर के अंदर आकर बाकी परिवार के साथ सामान्य जीवन जीता है।
दरअसल पाल एक मंत्र फूंका हुआ पानी होता है जिसे यह लोग गंगाजल की तरह पवित्र मानते हैं। बिश्नोई समाज में शादी के रीति-रिवाज भी अलग हैं। इनके यहां फेरे नहीं होते हैं।
बल्कि दूल्हा और दुल्हन को दो अलग-अलग पीढ़े पर बैठा देते हैं। उनके सामने गुरु जम्भेश्वर की शब्दवाणी पढ़ी जाती है। पाल की कसम खिलाई जाती है। बस शादी हो गई।
बिश्नोई समाज पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखता है। उसका मानना है कि कर्म के हिसाब से जो है इसी जन्म में है। इनकी पूजा इबादत जो है वह पर्यावरण से ही जुड़ी है इसलिए यह मरने के बाद शव को जलाते नहीं हैं बल्कि उसे दफनाते हैं।
बीते साल जोधपुर के गांव में शैतान सिंह ने एक शिकारी के चंगुल से एक हिरण को बचाने के लिए अपनी जान दे दी।
इन लोगों के लिए जीव जंतु इतने अहम हैं कि मरने के बाद यह लोग इंसानों की ही तरह से पशु पक्षियों का दाह संस्कार करते हैं।
बिश्नोई समाज के लोग होली भी नहीं मनाते हैं। वह होली के त्योहार को काला दिन मानते हैं, क्योंकि इस दिन होलिका भक्त प्रह्लाद को दहन करने के लिए अपनी गोद में लेकर बैठी थी। बिश्नोई समाज के लोग इस दिन सूतक रखते हैं।
ये लोग इस दिन एक दूसरे के घर जाते हैं। अफसोस करते हैं। गुरु जम्भेश्वर और भक्त प्रह्लाद की बातें करते हैं। शाम को जल्दी खाना खाकर सो जाते हैं। इस दिन वह बहुत ही सादा खाना खिचड़ा खाते हैं। कोई किसी से हंसी-मजाक नहीं करता है।
इस दिन किसी के बच्चा हो जाए तो खुशी नहीं मनाई जाती है। सारे शुभ काम टाल दिए जाते हैं। होली के अगले दिन जब देखा जाता है कि भक्त प्रह्लाद जले नहीं हैं भगवान विष्णु ने उन्हें बचा लिया है तब खुशी मनाते हैं।
खेजड़ी के पेड़ बचाने के लिए 363 बिश्नोइयों ने अपने सिर कटवा दिए थे
खेजड़ी इनका धार्मिक पेड़ है। हर बिश्नोई के घर के बाहर यह पेड़ आपको मिलेगा। इसके पीछे एक कहानी हैI आज से लगभग 300 साल पहले की बात है। राजा अभय सिंह ने अपने महल के दरवाजे बनवाने के लिए हरे पेड़ों की लकड़ी कटवाने का आदेश दिया। उन्हें पता लगा कि बिश्नोई बहुल इलाके में सबसे ज्यादा पेड़ मिलेंगे। जब उनकी सेना वहां पेड़ काटने के लिए गई तब वहां बिश्नोई समाज की महिला ‘माता अमृता देवी’ ने इसका विरोध किया। जब उनकी बात नहीं सुनी गई तो उन्होंने अपना शीश कटा दिया।
शीश कटवाने से पहले माता अमृता देवी ने उनसे कहा, ‘सिर सांटे रूख रहे, तो भी सस्तो जाणिये।’
कहने का मतलब है- अगर सिर कटवा देने से एक पेड़ भी बच जाता है तो यह मेरे लिए सस्ता सौदा है। इसके बाद से खेजड़ी के पेड़ की पूजा शुरू हो गई। उस वक्त 363 बिश्नोइयों ने भी अपना सिर कटवा दिया था।
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