मुझे लड़के नहीं, लड़कियां पसंद हैं:16 पन्नों का लेटर लिखकर पापा को बताई अपनी आइडेंटिटी, मुझे एक्सेप्ट करने में मां को भी लगे 4 साल

9 महीने पहलेलेखक: नीरज झा
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2017-18 का साल था। मैंने पापा को मुंबई में एक चाय की टपरी पर बुलाया। उन्हें 16 पन्नों का एक लेटर दिया। लेटर में मैंने अपनी आइडेंटिटी के बारे में लिखा था।

पापा को लेटर देते हुए कहा, ‘यह बात याद रखिएगा कि मैं आपकी बेटी हूं...। वो शॉक्ड थे कि पता नहीं लेटर में मैंने ऐसा क्या लिख दिया। चाय पीते हुए उन्होंने पन्ने पलटने शुरू किए। कुछ पन्नों से गुजरने के बाद वो रोने लगे। वो एक नजर मुझे निहारते, तो एक नजर से पन्नों में लिखे अक्षर पढ़ते।'

राजस्थान के जोधपुर की अंकिता मेहरा ​​​​ने 23 साल की उम्र में दुनिया को बता दिया कि वो LGBTQ+ कम्युनिटी से हैं।

अंकिता फिलहाल बेंगलुरु में रहती हैं। वो अपनी इस पहचान पर शर्म नहीं, गर्व महसूस करती हैं। कहती हैं- बड़ी हिम्मत के बाद दुनिया को VOOT पर आए एक टीवी शो के जरिए बताया था कि मैं लेस्बियन हूं। मुझे लड़के नहीं, लड़कियां पसंद हैं।

इसी आइडेंटिटी के साथ जीना चाहती थी। मुझे एक्सेप्ट करने में मां को 4 साल लग गए। हालांकि, पापा और बहन ने पूरा सपोर्ट किया।

दरअसल, समलैंगिकों (समान जेंडर के प्रति आकर्षण) की समुदाय को LGBTQ+ कम्युनिटी कहते हैं। LGBTQ+ का मतलब है- लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समेत बाकी अलग ओरिएंटेशन वाले लोग।

इस तस्वीर में अंकिता मेहरा अपनी मां के साथ हैं। अंकिता जब छोटी थीं तो रिश्तेदार उनकी सेक्सुअलिटी को लेकर मजाक उड़ाते थे।
इस तस्वीर में अंकिता मेहरा अपनी मां के साथ हैं। अंकिता जब छोटी थीं तो रिश्तेदार उनकी सेक्सुअलिटी को लेकर मजाक उड़ाते थे।

अंकिता कहती हैं, मैं भी सामान्य बच्चों की तरह ही पैदा हुई थी। लेटर पढ़ने के बाद पापा ने गले लगा लिया। कहा, तुम जैसी भी हो, मेरी बेटी हो। वो एयरफोर्स में थे। हर दो-तीन साल पर उनका ट्रांसफर होता रहता था।

अपनी आइडेंटिटी के साथ पिछले 6 साल से बेंगलुरु की एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रही हूं। लोगों को अपनी कम्युनिटी के बारे में अवेयर करती हूं। अलग-अलग कंपनियों में अब तक 300 से ज्यादा सेशन एड्रेस कर चुकी हूं।

अंकिता ​बचपन के दिनों में लौटती हैं।​ कहती हैं- बचपन में सीरियल या सिनेमा देखती तो एक्टर से ज्यादा एक्ट्रेस पसंद आती थीं। सोचती थी, धीरे-धीरे ये सामान्य हो जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। स्कूल जाने का बिल्कुल मन नहीं करता था। पूरा वक्त खुद को पहचानने में ही गुजर जाता था कि मैं क्या हूं? मेरी पहचान क्या है?

अंकिता अपनी लाइफ में आगे दाखिल होती हैं। बताती हैं, बड़ी हुई तो एंग्जाइटी, डिप्रेशन में रहने लगी। हमेशा यही लगता था कि यदि ये बातें किसी को भी बताई, तो प्रॉब्लम हो सकती है। कुछ उम्मीद और साहस के साथ स्कूल के दोस्तों को अपनी बातें बताई भी, लेकिन उन्होंने बोला, ‘तुम्हें कोई दिक्कत है क्या, हमसे दूर रहो।’

अंकिता जब 14 साल की थीं, तब उन्होंने पहली बार अपनी बहन को खुद के बारे में बताया था।

आज भी कॉलेज के दिनों को याद कर सहम जाती हैं। कहती हैं, नासिक के एक कॉलेज में बी. कॉम कोर्स में एडमिशन लिया था। पहले दिन जब कॉलेज गई, तो लड़के मुझ पर भद्दे कमेंट करने लगे। मुझे बोलते थे- ‘कल से लड़की बनकर आना।’ हालांकि, कुछ दोस्त भी थे जिन्होंने मुझे समझा।

हमेशा मैं कॉलेज जाने से डरती थी। अपने 3 साल मैंने डर-डर के बिताए। कई बार सुसाइड करने की कोशिश भी की। फिर जब लगा कि मेरे दुनिया से चले जाने के बाद भी ये प्रॉब्लम खत्म नहीं हो सकती है। मेरी जैसी कई अंकिता होंगी। उनके बारे में सोचकर सोसाइटी में बदलाव लाने की सोची।

अंकिता कहती हैं, फिल्मों ने LGBTQ+ कम्युनिटी का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। हमारी इमेज को गलत तरीके से समाज में पेश किया है।
अंकिता कहती हैं, फिल्मों ने LGBTQ+ कम्युनिटी का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। हमारी इमेज को गलत तरीके से समाज में पेश किया है।

ऐसा नहीं है कि अंकिता की परेशानी कॉलेज तक ही सीमित रही। अपने पहले जॉब एक्सपीरिएंस को लेकर कहती हैं, जब इंटरव्यू देने के लिए जाती थी, तो लोग मुझे अलग तरीके से देखते थे। मेरे अलग तरह के पहनावे को देखकर अजीबोगरीब सवाल पूछते थे। पासआउट होने के बाद पहली नौकरी एक कॉल सेंटर में लगी थी।

वो एक वाक्या दोहराती हैं। कहती हैं, इंटरव्यू लेने वाले ने पूछा, ‘आपके बाल इतने छोटे क्यों हैं? क्या बचपन से ही आप ऐसे बाल रखती हैं?’ आज भी कई बार ऐसा होता है, जब मेरे साथ या मेरी कम्युनिटी के लोगों को अलग नजरिए से देखा जाता है।

अंकिता कहती हैं, ‘My sexuality is my identity, not my introduction (मेरी सेक्सुअलिटी मेरी आइडेंटिटी है, इंट्रोडक्शन नहीं)। आज मैं विक्टिम नहीं, चेंजमेकर हूं।

अंकिता आखिर में बताती हैं, एयरपोर्ट, मॉल्स समेत कई पब्लिक प्लेस पर मैं जेंडर न्यूट्रल वॉशरूम को लेकर कैंपेन कर रही हूं।

अंकिता अब बतौर पब्लिक स्पीकर जानी जाती हैं। कंपनियों में जाकर वो LGBTQ+ कम्युनिटी को लेकर अवेयरनेस फैलाती हैं।

कुछ जरूरी फैक्ट्स

  • सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने LGBTQ+ कम्यूनिटी के लिए अहम फैसला सुनाया था। कोर्ट ने 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया था, जिसके तहत समान जेंडर के लोगों के बीच के यौन संबंध को अपराध माना गया था।
  • रॉयटर्स की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में LGBTQ+ की पॉपुलेशन को लेकर कोई ऑफिशियल डेटा नहीं है। हालांकि, सरकार के मुताबिक समलैंगिक लोगों की कुल संख्या 25 लाख के करीब है।

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