गुवाहाटी के सबसे व्यस्त इलाके गणेशगुरी का राजधानी अपार्टमेंट, सेकेंड फ्लोर पर 25-26 साल की उम्र के कुछ नौजवान लैपटॉप पर अपने काम में जुटे हैं। इस ऑफिस में जो कारोबार होता है, वह अपने आप में अनोखा है। अब इसे दुनिया भर में ले जाने की तैयारी है। 4 साल पहले 20 लाख रुपए से शुरु हुई यह कंपनी, अब 40 करोड़ रुपए की हो गई है। अगले साल तक इसे 100 करोड़ तक ले जाने का टारगेट है।
इस कंपनी का नाम है जिरंड मैन्युफैक्चरिंग प्राइवेट लिमिटेड, जहां ईको-फ्रेंडली ईंटे बनाई जाती हैं। यह ईंटे बहुत खास हैं, क्योंकि यह लाल वाली परंपरागत ईंटों से पतली हैं, उसके मुकाबले 15% सस्ती हैं और घर को ठंडा भी रखती हैं।
खास बात यह कि ये वेस्ट मटेरियल यानी फ्लाई ऐश ( कोयले की राख), सीमेंट, चूना और प्लास्टिक से बनती हैं। इसमें 70% वेस्ट मटेरियल का इस्तेमाल होता है।
कंपनी के डायरेक्टर डेविड गोगोई दिखने में सामान्य युवा हैं, लेकिन जुनून की हद यह है कि तीन साल पहले जब इनके पास चावल खरीदने तक के पैसे नहीं थे, बार-बार प्रोडक्ट को रिजेक्ट किया जा रहा था, तब भी अपने काम में जुटे थे।
डेविड कहते हैं कि मैं और मेरे दो दोस्त मौसम तालूकदार और रूपम चौधरी सिविल इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स थे। हमने कॉलेज में ही तय कर लिया था कि नौकरी करने के बजाय अपनी कंपनी खड़ी करेंगे।
आगे डेविड कहते हैं कि हमारे एक प्रोफेसर का कहना था कि कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में इनोवेशन बहुत कम हो रहा है। बिल्डिंग मटेरियल या कंस्ट्रक्शन मटेरियल को लेकर कुछ इनोवेटिव करने का सोचो, जिसमें वेस्ट मटेरियल का इस्तेमाल किया जा सके। इसके बाद हमने ईंटों के बारे में सोचा। 6 महीने कॉलेज की लैब में इस पर काम किया। उसके बाद मनमाफिक प्रोडक्ट हमारे हाथ आ गया। बस वहीं से तय किया कि पढ़ाई पूरी करने के बाद इसी का बिजनेस करेंगे।
वे कहते हैं, 'हम जानते थे कि ईंटों का मार्केट है और यह कभी खत्म भी नहीं होगा, क्योंकि घर, दुकान या इमारतें तो बनती ही रहेंगी। दूसरा हम एन्वायर्नमेंट के लिए भी काम करना चाहते थे। हम अपने प्रोडक्ट के जरिए कार्बन फुटप्रिंट को कम करना चाहते थे।'
30 बार रिजेक्ट हुआ था हमारा प्रोडक्ट
डेविड कहते हैं कि साल 2018 से लेकर 2019 के अंत तक हमारी आर्थिक हालत काफी खराब थी। तब तीनों दोस्तों के पास एक किराए का स्कूटर हुआ करता था और तीनों उसी से चलते थे। सिग्नल आने पर एक दोस्त उतर जाता था और वो सिग्नल पैदल पार करता था। फिर सिग्नल के उस पार से दोबारा स्कूटर पर बिठा लेते थे।
सबसे बड़ी दिक्कत थी फंड्स की। हम तीनों मिलकर महज 75 हजार रुपए ही जुटा पाए थे। हमने कई जगहों पर फंड के लिए अप्रोच किया, लेकिन बार-बार रिजेक्ट हो जा रहे थे। हालांकि हम भी जिद्दी थे। तय कर लिया था कि पैसे जुटाकर ही रहेंगे। आखिरकार 30 बार रिजेक्ट होने के बाद हमें गुवाहाटी के ही एक वेंचर फंड्स से 20 लाख रुपए फंड मिला। हमने उस वेंचर को अपनी कंपनी में शेयर दिया और उसे यह समझाने में कामयाब रहे कि इस बिजनेस का स्केल ऊपर जाएगा। हमारे प्रोडक्ट की बंपर सेल होगी।
दो विजिटिंग कार्ड बनवाए, एक डायरेक्टर और दूसरा सेल्समैन का
डेविड बताते हैं कि जब हमारे पास काम नहीं था, क्लाइंट नहीं थे तो हम सोचते थे कि आखिर क्या करें। हमने तीनों ने अपने दो-दो विजिटिंग कार्ड छपवाए। एक डायरेक्टर वाला और एक सेल्समैन वाला। इसके बाद खुद ही स्कूटर पर ईंट लेकर सेल करने लगे।
इससे पता चला कि हमारे पास क्लाइंट लीड कम थी। हमने अपनी क्लाइंट लीड बढ़ाई। इसके बाद हम रेगुलर प्लानिंग करने लगे कि कहां-कहां सेल के लिए बात करनी है, कहां-कहां कंस्ट्रक्शन हो रहा है। कौन सी कंपनी कितना ईंट खरीदेगी। हमारे पास अभी कितना बजट है और आगे कहां से कितने पैसे मिलने हैं। इस तरह प्लानिंग और उसके मुताबिक काम करते-करते हमारा कारोबार आगे बढ़ा।
डेविड की टीम को पहला बड़ा ऑर्डर 22 लाख 500 रुपए का मिला। वे कहते हैं कि हम अपना प्रोडक्ट लेकर आर्किटेक्ट और स्ट्रक्चरल इंजीनियर्स के पास जाया करते थे। उन्हीं में से एक स्ट्रक्चरल इंजीनियर ने हमें यह ऑर्डर दिलवाया। उसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
अभी हमारी कंपनी 40 करोड़ की हो चुकी है और जिस हिसाब से हमारे पास ऑर्डर हैं, अगले साल यह सौ करोड़ की हो जाएगी। जल्द ही हम दिल्ली और पुणे में भी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने जा रहे हैं।
48 घंटे में ईंट बनकर तैयार हो जाती है?
डेविड कहते हैं कि हमने वेस्ट से ईंट तैयार करने के लिए अपना एक फॉर्मूला बनाया है। इसका हमें पेटेंट भी मिल चुका है। इसके लिए प्लास्टिक वेस्ट से पाउडर बनाते हैं। फिर थर्मल पावर प्लांट से निकले वेस्ट को उसमें मिलाते हैं। इसके बाद सीमेंट और कुछ केमिकल मिलाते हैं। सबको मिलाकर एक तय शेप में हम ईंट को ढाल लेते हैं। करीब 48 घंटे में ईंट बनकर तैयार हो जाती है। हमने कई NGO और थर्मल पावर प्लांट से टाइअप किया है, जहां से वेस्ट आसानी से मिल जाता है।
एक ईंट की लंबाई 6 नॉर्मल ईंट के बराबर, लेकिन वजन आधा
जहां तक इसकी खासियत की बात है तो यह पूरी तरह ईको-फ्रेंडली है। इसकी प्रोसेस से एनवायर्नमेंट को कोई नुकसान नहीं होता है। यह ईंट नॉर्मल ईंट के मुकाबले अधिक मजबूत और टिकाऊ है। यह वाटर, क्रैक और अर्थक्वेक रेसिस्टेंट है। एक ईंट की लंबाई 6 नॉर्मल ईंट के बराबर है, जबकि वजन इसका आधा, यानी तीन ईंट के बराबर है। साथ ही यह नॉर्मल ईंट के मुकाबले 15% सस्ती भी है। इसे इंस्टॉल करना और इससे घर बनाना भी आसान है।
भूटान की कंपनी को लाइसेंस देने की तैयारी
विशेष तकनीक से बनाई जा रही इन ईंटों की तकनीक देशभर में सिर्फ इनके ही पास है। अब उन्होंने इस तकनीक के लिए लाइसेंस देना शुरू किया है। जिसमें एक बार में भारी भरकम लाइसेंस फीस ली जाएगी। सबसे पहला लाइसेंस भूटान की एक कंपनी को दिया जा रहा है।
डेविड कहते हैं कि हम लोग गुवाहाटी में बैठकर दिल्ली और मुंबई की कंपनियों से इन्वेस्ट करवा रहे हैं। इसके अलावा नॉर्थ-ईस्ट डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन, एनआरएल रिफाइनरी, माय असम स्टार्टअप आईडी ने भी हमारी कंपनी में इन्वेस्ट किया है।
वे बताते हैं कि अगर प्रोडक्ट सेल हो रहा होता है तो इन्वेस्टमेंट के लिए कंपनियां खुद ऑफर करती हैं। अब तो हमें कहीं जाना भी नहीं पड़ता है। सब कुछ वीडियो कॉल पर हो जाता है।
चलते-चलते आपके काम की बात...
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