पाएं अपने शहर की ताज़ा ख़बरें और फ्री ई-पेपर
Install AppAds से है परेशान? बिना Ads खबरों के लिए इनस्टॉल करें दैनिक भास्कर ऐप
औरतें राजनीति के बीहड़ों में क्यों नहीं घुसना चाहती, यह बताने के लिए क्या और सबूतों की जरूरत बाकी है ? कभी सरेआम किसी इमरती को आइटम घोषित कर देते हैं आप तो कभी सड़कों की क्वालिटी के पैमानों को समझाने की खातिर उन्हें हेमा मालिनी के गाल जैसा बताने से पहले सोचते तक नहीं कि मन के कैसे-कैसे मैल दिखला रहे हैं। राजनीति न हो गई मानो मर्द जाति की व्यक्तिगत बिसात हो गई जिस पर मुहरें चलने का जन्मसिद्ध अधिकार लेकर उनका अवतरण धरती पर हुआ है। हद है इस घटिया सोच पर जो 21वीं सदी के 20वें साल में भी कुछ बददिमागों पर भारी है।
संभल जाओ मर्दों, क्योंकि अब यह सूरत बदल रही है। भूल जाओ कि अब किसी जयाप्रदा को नचनिया कह दोगे तो सहमकर कोई नगमा या कंगना इस ओर आने की ख्वाहिश नहीं पालेगी। भूल जाओ अपनी मर्दवादी जिद को क्योंकि तुम्हारे लाख चाहने के बावजूद अरमानों और आकांक्षाओं की जमीन पर कुछ फूल मुस्कुराने लगे हैं। बेशक, हिंदुस्तान की राजनीतिक गलियां औरतों के लिए तंगदिल रही हैं।
और फिर जमाना भी उन्हें यही समझाता आया है कि हिंसा, अपराध और षड्यंत्रों की तिकड़ी को झेलने की कुव्वत ‘फेयर सेक्स’ में नहीं होती, तो भी जब पश्चिम बंगाल से किसी महुआ मोइत्रा की दहाड़ गूंजती है तो दूर तलक सुनाई देती है। सुखद खबर तो यह है कि राजनीति में दिलचस्पी और दखल रखने वाली महिलाएं सिर्फ राजनीतिक खानदानों से ही नहीं आ रहीं, बल्कि कितनी ही ऐसी हैं जिन्होंने अपने दम-खम पर अपनी राहगुजर खुद बनाई है।
उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जैसे कस्बाई इलाके से आने वाली एक दोस्त के साथ ‘इमरती प्रकरण’ पर चर्चा के दौरान मैंने उससे पूछा था कि क्या राजनीति में कॅरियर बनाना चाहोगी तो एक सेकंड भी गंवाए बगैर उसने साफ स्वीकार किया कि उसे कतई इनकार नहीं होगा ऐसा करने से। सरेराह दमदार आवाज में बोलने, अपने मन के जज्बातों को दो-टूक जाहिर करने, अपने हकों के लिए लड़ने और यहां तक कि सोशल मीडिया पर अपना रुतबा और लंबा-चौड़ा फॉलोअर्स बेस रखने वाली इस दोस्त का तर्क है कि हिंदुस्तान की राजनीति को उस जैसी कैंडिडेट्स की सख्त जरूरत है।
उसके फंडे एकदम साफ हैं, 'वाकई हमें चाहिए वो नई और दमदार आवाजें जो बदले जमाने में हमारी बदली हसरतों की नुमाइंदगी कर सकें, जो नौकरी-पेशा तबके से ताल्लुक रखती आई हों, जो संघर्षशील पृष्ठभूमि से उठी हों, जिनकी आंखों में सार्वजनिक जीवन में अपनी हैसियत बढ़ाने का सपना तैरता हो .... और मैं खुद इन कसौटियों पर एकदम खरी उतरती हूं।'
अगर पचास-साठ पहले तक देश की राजनीति में उन महिलाओं की उपस्थिति थी जो किसी राजनीतिक परिवार से थीं या राजघरानों से आती थीं तो अब इस तस्वीर को बदलने का वक्त है। साइंटिस्ट, रिसर्चर, सोशल वर्कर या जर्नलिस्ट क्यों नहीं आ सकती या क्यों नहीं पहुंचनी चाहिए संसद के गलियारों में? कॉलेज यूनियनों में अलकाओं, रागिनियों, शिवानी खारवालों तक की जीत से लेकर पंचायतों, नगर निगमों और विधायिकाओं में उनकी पिछली जीतों ने यह तो साबित कर ही दिया है कि काबिलियत के लिहाज़ से वे मर्दों से उन्नीस कतई नहीं हैं।
जिस देश में ट्रैक्टर को इंडिया गेट तक हांककर लाने वाली रेणुका चौधरी जैसी मिसाल मिलती हो, जिसके चुनाव अभियानों में औरतों की अच्छी-खासी भागीदारी दिखती हो,जहां वोटर टर्नआउट के मोर्चे पर मर्दों और औरतों के बीच फासला 2019 में महज़ 0.3% रह गया हो जबकि 1962 में 16.7% था, उससे उम्मीदें लगाना जायज है।
आज देश के 14 राज्यों की पंचायतों में 50-58% महिला प्रतिनिधित्व है। हैरत भले ही होती है यह सुनने में मगर सच है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में करीब बीस हजार यानी 34% महिला सरपंच हैं। और भी हैरान हो जाएंगे आप यह जानकर कि 1992 के बाद से यह अब तक का सबसे पिछड़ा आंकड़ा है!
बीते तीन दशकों के दौरान करोड़ों महिलाओं ने कितने ही निकायों के चुनावों में विजय दर्ज करायी है और ऐसे ठोस सबूत भी नहीं मिलते जो यह साबित कर सकें कि वे सब की सब ‘प्रॉक्सी’ या ‘डमी’ कैंडिडेट थीं। वे वाकई अपना दिमाग, अपनी सोच रखने वाली आज़ाद औरतें हैं जो अपनी मर्जी से राजनीति में उतनी हैं।
यों अब भी करने को बहुत कुछ बाकी है क्योंकि 2019 में संसद में सिर्फ 14 फीसदी महिला नेता जगह बना पाईं और यह आंकड़ा आजादी के बाद से अब तक सर्वाधिक है, जबकि आबादी में उनकी हिस्सेदारी करीब-करीब 50% है। बहुत जरूरी है सार्वजनिक जीवन में औरतों की सक्रियता बढ़ाना। हालांकि दिन ढलने के बाद सड़कों पर इक्का-दुक्का महिलाओं का रह जाना हमारी जमीनी सच्चाई बताता है और कहीं न कहीं चुपके से कह जाता है कि आज भी हमारे शहर, हमारी सड़कें, हमारी गलियां और मोहल्ले अंधेरा उतरने के बाद औरतों के लिए सुरक्षित नहीं हैं।
यह भी कि हमारे सुनसान रास्ते उनकी आबरू पर हाथ डालने वालों के जोखिमों से आज़ाद नहीं हैं। तो क्या इस डर से हम बंद रहें दरवाजों के पीछे? जैसे हमें ‘आइटम’ और ‘नचनिया’ कहने वालों को मुंह की खानी पड़ेगी, वैसे ही हमें घरों तक सीमित रखने या हमारी जुबानों को बंद रखने की कोशिशों को भी धूल चटानी पड़ेगी।
कल्पनाओं और सुनीताओं ने अंतरिक्ष तक के रास्ते खोले हैं तो मिसाइल वुमन भी हमारी ही धरती से आई हैं और अंटाकर्टिका के बर्फीले बियाबान को भी मंगला मनी ने महकाया है। हम नाजुक या नाकाबिल हैं, हम महत्वाकांक्षाविहीन या गूंगी गुड्डियां हैं, इन मुगालतों के उस पार देखने का यही वक्त है। सही वक्त है।
बात बराबरी की ये खबरें भी आप पढ़ सकते हैं :
पॉजिटिव- आज आप बहुत ही शांतिपूर्ण तरीके से अपने काम संपन्न करने में सक्षम रहेंगे। सभी का सहयोग रहेगा। सरकारी कार्यों में सफलता मिलेगी। घर के बड़े बुजुर्गों का मार्गदर्शन आपके लिए सुकून दायक रहेगा। न...
Copyright © 2020-21 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.