एक बार किसी हादसे में जली हुई लाशें अस्पताल पहुंची। पोस्टमॉर्टम करते मेरे हाथ एक बॉडी पर रुक गए। बुरी तरह से भुन चुके उस शरीर से तेज महक आ रही थी। शरीर गल रहा था। जैसे-तैसे चीरफाड़ की। खाना तो दूर, उस रोज पानी भी गले से नीचे नहीं उतरा। कई दिनों तक नींद में भी वो गंध पीछा करती रही। इंसान चला जाता है, गंध रह जाती है।
मुर्दाघर में काम करना, रोज एक नए हादसे को जीना है। पहले से भी ज्यादा खौफनाक। कभी जली हुई लाश आती है, तो कभी पानी में डूबकर फूली हुई। जहर से ऐंठ चुका शरीर भी आता है, तो कभी फूल-सी नाजुक ऐसी देह आती है कि एक खरोंच लगाने का दिल न करे, लेकिन हम सब कुछ करते हैं। चीरफाड़ से लेकर बॉडी की देखभाल और उसे घरवालों को सौंपने तक। हमें इसी काम की तनख्वाह मिलती है- मुर्दों से डील करने की।
ये बोलते हुए संजय की आवाज बिल्कुल शांत थी- ठीक किसी ‘डेड बॉडी’ की तरह, जिसकी न पलकें कांपती हैं, न उंगलियां। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल की मॉर्च्युरी में 12 सालों से काम करते संजय से जब हम मिलने पहुंचे, वे किसी पोस्टमॉर्टम में उलझे हुए थे। इस बीच हम आसपास घूमने लगे। 15 सौ बिस्तरों के लंबे-चौड़े अस्पताल के आखिरी कोने पर है मॉर्च्युरी।
सामने छोटी-सी तख्ती लटकी हुई, जिस पर लाल अक्षरों में किसी चेतावनी की तरह ही शवगृह लिखा है। अस्पताल की कंधातोड़ भीड़ यहां छंटने लगती है। दिखती है तो पुलिस, एंबुलेंस, या फिर सिसकियां। इन्हीं के बीच मॉर्च्युरी असिस्टेंट संजय अपना रात-दिन गुजारते हैं।
थोड़े इंतजार के बाद उनसे मुलाकात होती है। वे माफी मांगते हुए अंदाज में कहते हैं- खराब केस था, निपटाना जरूरी था। 'कैसा खराब केस?' मेरे सवाल पर पलटकर सवाल आता है - कभी सड़क पर मरा हुआ जानवर देखा है! उससे कैसी गंध आती है? उसी गंध में घंटों बिताकर आ रहा हूं।
मेरे हावभाव शायद कुछ बदल गए हों, वे हल्के से मुस्कुराते हैं और फिर जैसे तसल्ली देते हुए ही कहते हैं- कई दिनों पुरानी बॉडी आई थी, जिसका पोस्टमॉर्टम जल्दी करना जरूरी था, वरना शरीर और खराब हो जाता।
मॉर्च्युरी के अंदर जाने की मनाही थी, लिहाजा हम पास के एक दफ्तर में बैठ जाते हैं और संजय एक के बाद एक कहानियां सुनाते चले जाते हैं।
अस्पताल के दूसरे वार्ड में काम कर रहा था, 12 साल पहले जब एक रोज अचानक मॉर्च्युरी में तबादला हो गया। रोज की तरह मैं ड्यूटी पर पहुंचा, लेकिन सब बदला हुआ था। यहां मरीजों की चीख-पुकार नहीं थी, बल्कि सन्नाटा था। खत्म होने के बाद का सन्नाटा। मैं बेचैन हो गया। बार-बार बाहर निकल आता। शोरगुल सुनता। ऐसे ही कुछ घंटे बीते। फिर आई असल परीक्षा। मुझे एक बॉडी की पहचान करवाकर उसे घरवालों को देना था।
कोल्ड रूम पहुंचा। वहां 7 लाशें पहले से रखी हुई थीं, उन्हीं में से एक को मुझे निकालकर परिवारवालों तक पहुंचाना था। एकदम ठंडा रूम। लगभग माइनस 4 डिग्री तापमान! कुछ ही मिनटों में शरीर तो छोड़िए, मेरी शर्ट की कॉलर तक ठंड से अकड़ गई थी।
कुछ ठंड, तो कुछ घबराहट से हाथ थरथरा रहे थे। नाम और ID देखकर बॉडी निकाली और जिप खोलकर घरवालों को दिखाई। वे रोने-बिलखने लगे। साथ आई एक लड़की बेहोश हो गई। मैं चुपचाप देखता रहा।
उनके जाने के बाद गल्व्स उतारे। खूब रगड़-रगड़कर हाथ धोए। बार-बार साबुन लगाया। इसके बाद भी लगा, जैसे हाथों में कुछ चिपक गया हो। सूंघकर देखा। कोई गंध नहीं थी। तब भी मिचली आने लगी। खाना तो दूर, उस रोज मैंने पानी भी नहीं पिया। शुरुआत में ऐसा लगातार हुआ, फिर आदत पड़ गई।
संजय जैसे अपने-आप से ही कहते हैं- आखिर कब तक भूखे रहेंगे! कब तक चम्मच से खाना खाएंगे! एक न एक दिन तो रुटीन में लौटना ही था।
संजय तो रुटीन में लौट गए, लेकिन क्या उनके परिवार के लिए भी ये उतना ही आसान था! इस पर वे याद करते हैं- शुरुआत तो वाकई मुश्किल थी। पत्नी गुस्सा करती कि मुर्दाघर में काम करोगे तो घर-समाज बिदकेगा। ये काम छोड़ दो। बच्चे छोटे थे। ज्यादा समझते नहीं थे। धीरे-धीरे पत्नी को आदत हो गई, और बच्चे समझदार हो गए। अब मेरा मॉर्च्युरी में काम करना उनके लिए वैसा ही है, जैसे किसी का दफ्तर में कंप्यूटर पर काम करना।
जिन भूत-प्रेतों की कहानियां हम आंखें चौकोर करके, मुंह खोलकर सुनते हैं, संजय के लिए वो देसी चुटकुले से भी बेकार हैं। वे कहते हैं - मॉर्च्युरी में रहना भूतों पर यकीन खत्म कर देता है। मुर्दा बेचारा अपनी मर्जी से अपनी ऊंगली तक हिला नहीं पाता। वो भला किसी को कैसे डराएगा!
‘तब भी! कभी तो डर लगा होगा। रात में मुर्दों के बीच सोते-जागते कभी तो कुछ हुआ होगा’- मैं दोबारा पूछती हूं। वो दिमाग पर जोर डालते हैं, फिर कहते हैं- कभी नहीं।
मुर्दों के साथ रहना, जिंदा लोगों के साथ से ज्यादा सेफ है। मुर्दे फरेब नहीं करते। वे आप पर हमला भी नहीं करते। बस, चुपचाप पड़े रहते हैं। हां, कभी-कभार कोई बॉडी ऐसी आती है, जिसे देखकर दिल दहल जाता है। लोग पैदा हुए बच्चे को डस्टबिन में फेंक देते हैं। चींटियां-कुत्ते उन्हें नोंच देते हैं। ऐसे फूल जैसे नाजुक शरीर का जब पोस्टमॉर्टम करना होता है तो हाथ कांपते हैं। खून जमाने वाली ठंड में भी पसीना आ जाता है। बस, ऐसे मामलों में ही डर लगता है।
मुर्दों के लिए काम करना मरीजों की देखभाल से भी ज्यादा धीरज मांगता है। संजय कहते हैं- पोस्टमॉर्टम में दो बड़े कट लगते हैं, एक पेट से सीने तक, दूसरा सिर के आरपार। चीर फाड़ के बाद अगर हम भद्दी सिलाई करके बॉडी छोड़ दें तो घरवालों की तकलीफ और बढ़ जाती है। हम कोशिश करते हैं कि मुर्दा शरीर भी एकदम जिंदा-जैसा दिखे। बेहद बारीक सिलाई करते हैं। खून साफ करते हैं। बालों को भी सहेज देते हैं। सब कुछ जोड़-जोड़कर बॉडी को ऐसा बना देते हैं कि बस टप से आंखें खोलने की ही देर हो।
रोते-बिलखते घरवालों को तसल्ली देने की हमें मनाही होती है। उनके कंधे पर प्यार का हाथ नहीं धर पाते, लेकिन इतना ही कर सकते हैं कि उनके अपनों का शरीर उन तक किसी नोंच-फाड़ के बगैर पहुंचे।
मॉर्च्युरी में काम करने वाले तो अपने गुस्से और नशे के लिए बदनाम रहते हैं- मैं मन ही मन सोच रही हूं। शरीर की चीर फाड़ करने के आदी संजय की आंखें जैसे मेरे दिमाग का भी पोस्टमॉर्टम कर लेती हैं। वे कहते हैं- हम कभी नशे में नहीं रहते। जो एक बार मुर्दाघर में काम कर लेगा, वो नशे से तौबा कर लेगा। हम शराब पीकर सिकुड़े हुए लिवर देखते हैं। तेज गाड़ी चलाने से तरबूज की तरह फटे हुए सिर देखते हैं। दो मिनट के गुस्से का अंजाम देखते हैं। हमें खुद को कंट्रोल करना आ जाता है।
इस जगह काम करना सब बदल देता है। यहां इंसान को वो चीज दिखती है, जो कहीं और नहीं दिखती- मौत। चाहे आप करोड़पति हों, या फिर सड़कपति, आएंगे आप यहीं- संजय की आवाज कहीं दूर से आती लगती है।
माहौल को हल्का करते हुए वे अचानक हंसते हुए कहते हैं- OPD में भाई लोग परेशान रहते हैं। मरीज रोता है। फैमिली चिल्लाती है। यहां हमें कोई परेशान नहीं करता। वो भी चुप। हम भी चुप।
मुर्दाघर में घर से ज्यादा वक्त बिताते संजय को एक ही दुख है कि वे घर लौटकर अपने बच्चों को वैसे कसमसाकर गले नहीं लगा सकते, जैसे बाकी पिता लगाते हैं। वे बताते हैं- घर ग्राउंड फ्लोर पर है। अस्पताल आते हुए सामने के दरवाजे से निकलता हूं, लेकिन लौटता हूं तो पीछे के दरवाजे से घुसता हूं। वहां से सीधा बाथरूम में। नहाने-धोने के बाद भी घरवालों से मिल पाता हूं। ऐसा न करूं तो पता नहीं कौन-सी खतरनाक बीमारी अनजाने में अपने साथ उनको भी दे दूं।
सड़ी-गली लाशों का पोस्टमॉर्टम करते हुए इंफेक्शन का डर रहता है। वैसे पूरी सेफ्टी रखी जाती है। गल्व्स, चश्मा, गाउन- सब कुछ पहनते हैं। इस्तेमाल की हुई चीजें फेंक दी जाती हैं, तब भी डर तो रहता है। कोविड की दूसरी लहर में खतरा ज्यादा था। रोज कितनी ही लाशें आती थीं और सबका मुंह खोलकर हमें फैमिली को दिखाना होता। दिल डरता था, लेकिन उसने (ऊपर की तरफ उंगली का इशारा करते हुए) रक्षा की।
पत्नी पहले रोती थी कि ट्रांसफर करा लो। मुर्दों के साथ रहना ‘सेफ’ नहीं। अब बेटी टोकती है कि पापा काम बदल लो। मैं उसके साथ-साथ खुद को भी तसल्ली देता हूं- बिटिया! अब अगले जन्म में ही दूसरा काम मिल सकेगा। अभी यही करने दो।
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