ना बारात आई, ना डोली सजी, ना दुल्हन बनी, ना सिंदूरदान हुआ। पति है, लेकिन कोई मानता नहीं। बेटा-बेटी हैं, लेकिन उन्हें पिता का नाम नहीं मिला। ना पूजा कर सकती, ना मंदिर जा सकती। मां-बाप के साथ भी ऐसा ही हुआ और बहन भी बिना शादी के ही मां बन गई।
अपनी कहानी सुनाती जबरी पहाड़िन की आंखें डबडबा जाती हैं। बेटी को गोद में लिए पति की ओर देखती हैं, फिर मौन हो जाती हैं। बहुत पूछने पर सिर झुकाए, पैर से जमीन की मिट्टी खुरचते हुए कहती हैं, ’बचपन से तमन्ना थी सज-धजकर डोली में बैठूं, दूल्हा बारात लेकर आए, सबके सामने मांग में सिंदूर भरे, लेकिन जिसे खुद पेटभर खाना नसीब नहीं, वो 25-30 हजार रुपए सिंदूरदान के लिए कहां से दे।’
जबरी झारखंड के गोड्डा जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर पहाड़ पर बसे जामरी गांव में रहती हैं। इस गांव में सौरिया पहाड़िया जनजाति के तकरीबन 20 घर हैं, जिनमें 90 लोग रहते हैं। गांव के प्रधान को छोड़कर बाकी सभी बिना शादी के ही साथ रहते हैं।
कोयला खदानों और जंगल के बीचोंबीच बनी सड़क को पारकर मैं जामरी पहुंची, तो मेरे मोबाइल का नेटवर्क जा चुका था। एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चे खेल रहे थे। पास ही चार महिलाएं बैठी थीं।
यहीं मेरी मुलाकात जबरी पहाड़िन से हुई। सांवला रंग, छोटा कद, काले रंग का पेटीकोट, फिरोजी रंग का ब्लाउज और सफेद रंग का गमछा लपेटे। बेटी को गोद में लिए वे मुझे अपना घर दिखाने ले जाती हैं।
छोटा सा घर जिसमें सिर्फ एक दरवाजा। न खिड़की और न दराज। दरवाजे से भी झुककर ही आ-जा सकते हैं। इसके बीचोंबीच एक कमरा, जिसमें भी सिर्फ एक दरवाजा। इसी में इनके रहने-खाने और मवेशी के लिए जगह है। वे घर की बनावट, चौका-चूल्हा और खेती-बाड़ी के बारे में बताती हैं।
जबरी के चेहरे पर शादी के सपनों के टूटने का दर्द और हालातों से समझौता करने की लाचारी साफ झलकती है। जिसे छिपाने के लिए वे मुंह फेरकर दूसरी ओर रस्सी पर टंगे फटे-पुराने कपड़ों को देखने लगती हैं।
पहाड़ी मिली हिंदी में जबरी कहती हैं, 'मैं पति बमबारी पहाड़ी के साथ रहती हूं। दो बच्चे भी हैं, लेकिन उनका नामकरण नहीं हो सका है। बेटी का कनछेदन नहीं हो पा रहा है। दिनभर खेत में काम करते हैं। जंगल से लकड़ियां चुनते हैं। सरकार से गेंहू-चावल और तेल मिल जाता है, तब जाकर हमें खाना नसीब हो पाता है। ऐसे में शादी के भोज-भात का खर्च कैसे उठाएं?
मैं पूछती हूं शादी में कितना खर्च आता है? जवाब में जबरी कहती हैं,’ गांवभर को भोज देने में 50-60 हजार रुपए, सिंदूरदान में 25 हजार रुपए और कपड़े-गहने में भी कुछ पैसे खर्च होते हैं। कुल मिलाकर 80-90 हजार रुपए तो लग ही जाते हैं।
सिंदूरदान के लिए 25 हजार… सवाल सुनने से पहले ही जबरी बोल पड़ती हैं- देखिए हमारे यहां लड़के वाले को लड़की के मां-बाप को सिंदूरदान से पहले पैसे देने होते हैं। उसके बिना शादी नहीं होती। इसी वजह से मेरी बहन की भी शादी नहीं हो पाई।
आपकी उम्र कितनी है? जबरी पहले थोड़ी उलझती हैं, दिमाग पर जोर डालने की कोशिश करती हैं, फिर कहती हैं- पता नहीं। मैंने कहा- 24-25 साल या इससे बड़ी। इस पर जवाब मिलता है- हां इतनी ही। आप कब से बमबारी पहाड़ी के साथ रह रही हैं- 5 साल से। आपके बच्चों की उम्र कितनी है? बेटा 5 साल और बेटी 3 साल।
बेटा 5 साल! मेरे इन तीन शब्दों को दोहराने पर वे बताती हैं कि बेटा पहले पति का है। पहले पति से अलग क्यों हुईं, इसका जवाब देने से जबरी मना कर देती हैं। क्या पहले पति बेटे के पालन-पोषण के लिए पैसे देते हैं? जवाब मिलता है- नहीं। जब शादी ही नहीं हुई, तो भला वो पैसे क्यों देगा…
मेरा अगला पड़ाव- जामरी गांव से तीन किलोमीटर दूर चचाम गांव। यहां पानी सबसे बड़ी चुनौती है। गांव में कोई हैंडपंप नहीं है। कुएं हैं, लेकिन उनमें पानी नहीं।
यहां मेरी मुलाकात 40 साल की रूपी पहाड़िन से होती है। वे अपनी बेटी के साथ रहती हैं। कुछ पल मौन रहने के बाद कुछ शब्द फुसफुसाती हैं- 'इससे पहले, मैं तीन आदमी के साथ रही।' मैं कन्फर्म करने के लिए उनसे दोहराने की गुजारिश करती हूं।
रूपी कहती हैं,'पहले आदमी ने बच्चा न होने पर छोड़ दिया। दूसरे ने बेटा होने के बाद मर जाने पर छोड़ दिया। तीसरे को कोई और महिला पसंद आ गई। अभी जो मेरा पति है, वो चौथा आदमी है।’
जैसे टसर का कीड़ा जिस पेड़ पर पलता है, उसके सारे पत्ते खा जाता है, वैसे ही रूपी की जिंदगी की उठा-पटक ने उन्हें उम्र से पहले बूढ़ा बना दिया।
मैं उनके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करती हूं, फिर सवाल करती हूं। बेटी के लिए रिश्ता आप ढूंढेंगी या बेटी खुद लड़का पसंद करेगी? रूपी बताती हैं,'हमारे यहां ज्यादातर रिश्ते लड़के वालों के यहां से आते हैं। बेटी भी अपने आदमी के साथ रह रही है, उसकी अभी शादी नहीं हुई है। बेटी अभी काम करने जंगल गई है।
वे आगे बताती हैं,'हमारे यहां महिलाएं भोर (अलसुबह) में जागकर घर की सफाई करती हैं। वे बर्तन लेकर दूर झरने पर जाती हैं। वहां बर्तन धोती हैं और पानी भरकर लाती हैं। लौटकर खाना बनाती हैं और काम करने खेत चली जाती हैं। यहां ज्यादातर काम महिलाएं ही करती हैं। खेती में बरबट्टी, मक्का, अरहर और कुछ सब्जियां उगती हैं, जिससे हमारी गुजर बसर होती है।
और पुरुष… वे मजदूरी की तलाश में दूसरे गांव जाते हैं या फिर नशा करके आराम फरमाते हैं।
इसी गांव में रहने वाली वेसी पहाड़िन शादी का सवाल पूछते ही माइक निकालकर चल देती हैं। फिर शर्त रखती हैं- बात करूंगी, लेकिन कैमरे में नहीं। इसके बाद बताती हैं,'गहने पहनने, सिंदूर-बिंदी लगाने और पूजा पाठ में शामिल होने का बहुत मन करता है, लेकिन इस पर पाबंदी है।
क्यों? वेसी कहती हैं- शादी नहीं हुई है। मैं बिना शादी के अपने मर्द के साथ रहती हूं। जब मन करता है तो फूल-पत्ती से गहने बनाती हूं, वहीं पहन लेती हूं। पूजा नहीं करती, वरना पहाड़ देवता गुस्सा हो जाएंगे।'
हाल ही बिना शादी के साथ रहने वाले साहिब लाल कहते हैं,'मैंने अनीता को देखा, तो मुझे प्यार हो गया। दोनों ने शादी करने का मन बनाया, लेकिन अपने पास इतना पैसा ही नहीं कि शादी कर सकें। हम ऐसे ही साथ रहने लगे। मैं जल्दी शादी करना चाहता हूं, ताकि पत्नी दौरे में बैठ सके।'
दौरे? साहिब लाल कहते हैं- पैसे हो जाने पर कुछ लोग शादी कर लेते हैं, लेकिन इसमें भी एक अड़चन है। जिन महिलाओं के बच्चे हो जाते हैं, उन्हें शादी के वक्त दौरे यानी डलिया में नहीं बिठाया जाता। मेरी पत्नी की ख्वाहिश है दौरे में बैठकर शादी हो। इसलिए मैं पंजाब या दिल्ली कमाने जाऊंगा।
साहिब लाल की बात सुनकर अनीता हथेलियों को भींचते हुए नीचे देखने लगती हैं। ख्वाहिश और पति से दूरी में से किसे चुनें, इसका गणित बिठाते नजर आती हैं।
इसके बाद मैं गांव के प्रधान सुरेंद्र सौरिया से मिली। पूछा- इनकी शादी को मान्यता क्यों नहीं मिलती?
सुरेंद्र सौरिया कहते हैं, 'सिंदूर लगेगा, तभी जोड़ीदार माना जाएगा। इसके बिना शादी नहीं मानी जाएगी और ना ही उसे शादी का कोई अधिकार मिलेगा। बिना शादी के साथ रहने वाली महिलाएं ना पूजा कर सकती हैं और ना उनके बच्चों का नामकरण हो सकता है और ना ही बच्चों का कनछेदन होगा।
पहले तिलक यानी सिंदूरदान में कम पैसे लगते थे। हमारे समय तिलक का पैसा कम हुआ करता था। हमारा तिलक 96 रुपए में हुआ था। उसके बाद गांव को भोज देना पड़ा। जब से लड़के पंजाब और दिल्ली कमाने जाने लगे, तब से तिलक का पैसा बढ़ गया है। अब कर्ज करके भी शादी करनी ही पड़ती है। बाद में 3-4 साल में चुका देते हैं।'
आदिवासी जनजातियों की जानकार और गोड्डा कॉलेज में प्रोफेसर रजनी मुर्मू बताती हैं,'ये लोग दुर्गम पहाड़ियों में रहते हैं। न पीने का साफ पानी मिलता है और न संतुलित आहार। जिंदगी की गुजर-बसर करना ही मुश्किल है, ऐसे में वे शादी के लिए पैसे कहां से लाएं। महिलाएं प्रताड़ित होती हैं। बिना शादी के साथ रहने वाले जोड़े छोटी-छोटी बात पर अलग हो जाते हैं। पति का जब मन किया साथ छोड़कर चला जाता है।
ऐसे में 8 साल तक के बच्चे का भरण-पोषण मां को ही करना होता है। अगर महिला किसी दूसरे पुरुष के साथ रहने लगती है, तो पुरुष को महिला को बच्चे के साथ स्वीकारना होता है। अगर बच्चा 8 साल से अधिक उम्र का है, तो ज्यादातर मामलों में लड़कें पिता के यहां और लड़कियां मां के पास या फिर नानी के पास रहती हैं।'
दुमका जिला के खरौनी बाजार, पंचायत के पूर्व मुखिया दुर्गा देहरी बताते हैं,'हमारे यहां शादी समाज के सामने होती है, मंदिर में नहीं। अगर घटकदार यानी रिश्ते जोड़ने वाले के जरिए शादी हो रही है, तो लड़की वाले के घर 5-6 लोग जाते हैं और शादी की बात करते हैं। अगर लड़का अपनी पसंद की लड़की घर ले आता है, तो लड़की के मायके वाले को बुलाया जाता है। शादी की बात की जाती है।
हरिबोल-हरिबोल के नारे के साथ शादी की रस्म, भोज में मटन और शराब
दुर्गा देहरी कहते हैं, 'लड़की वालों के लिए तिलक भेजा जाता है, जिसमें लड़की के पूरे परिवार के लिए कपड़े, गहने, खाने-पीने का सामान और शादी की तैयारी के लिए रुपए दिए जाते हैं। नियम के तहत सौरिया पहाड़िया में 125 रुपए सिंदूरदान की रकम देनी होती है, लेकिन यह धनराशि लड़की वालों की मांग और बारात के लोगों को देखते हुए तय होती है।
लड़के वाले शाम में बारात लेकर जाते हैं। लड़की वालों के यहां रातभर ठहरते हैं और फिर अगले दिन सुबह 10 से 10:30 बजे के बीच शादी की रस्म होती है। आंगन में मंडप लगता है। लड़की को दौरे 'डलिया' में बैठाकर और लड़के को उसके जीजा-फूफा या फिर गांव वाले कंधे पर उठाकर मंडप में लाते हैं।
लड़की और लड़के के परिवार वाले दोनों को चारों ओर से घेर लेते हैं और हरिबोल, हरिबोल के नारे लगाते हैं, इस दौरान लड़का दौरे में बैठी लड़की की मांग में सिंदूर भरता है। सिंदूरदान के दौरान लड़का जीजा या फूफा के कंधे पर और लड़की दौरे में होती है, जमीन पर नहीं।
शादी के बाद लड़की को विदा करवा के अपने गांव ले आते हैं। यहां पूरे गांव को भोज देना होता है, जिसमें भात, मटन, चिकन, पोर्क, बीफ और ताड़ी या फिर अन्य कोई शराब होती है।'
बिचौलिए खा जाते हैं कन्यादान योजना के पैसे
क्या आपको कन्यादान योजना का लाभ नहीं मिलता? इस पर पूर्व मुखिया दुर्गा देहरी नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं, 'अगर प्रशासन और सरकारी योजनाओं के भरोसे रहें, तो बच्चों की शादी ही नहीं हो पाएगी। कन्यादान योजना का लाभ लेना बहुत मुश्किल है। महीनों पीछे पड़े रहो, तब जाकर 30 हजार मिलते हैं। उसमें से भी कुछ बिचौलियों को देने पड़ जाते हैं। इससे बेहतर है हम आपस में ही चंदा जुटाकर शादी कर लें।'
पहाड़िया जनजाति की तरह झारखंड में कई आदिवासी कम्युनिटी के जोड़े बिना शादी के साथ रह रहे हैं। झारखंड में ऐसे जोड़ों को ढुकू कपल कहा जाता है और महिलाओं को ढुकनी। ढुकनी यानी वो महिला जो किसी के घर में दाखिल हो चुकी है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक झारखंड में तकरीबन 2 लाख ऐसे जोड़े हैं।
ढुकू महिला को गांव की जमीन पर दफनाने की इजाजत नहीं
सामाजिक संस्था 'निमित्त' ढुकू जोड़ों की शादी और महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए काम कर रही है। संस्था का दावा है कि वो 2016 से अब तक 2000 से ज्यादा जोड़ों की शादी करा चुकी है।
इसकी फाउंडर निकिता सिन्हा कहती हैं,'गरीबी और शिक्षा की कमी इसकी सबसे बड़ी वजह है। जागरूकता की इतनी कमी है, कि इन्हें अपना अधिकार पता ही नहीं होता है। ना ये प्रशासन के पास पहुंच पाते हैं ना इन तक सरकारी योजनाएं। सामूहिक विवाह में आलम ये होता है कि एक ही मंडप में एक तरफ सास-ससुर फेरे लेते हैं और दूसरी ओर बेटा-बहू।'
आगे वे कहती हैं,'इन जोड़ों का इस कदर बहिष्कार कर दिया जाता है कि अगर ढुकू महिला की मौत हो जाए, तो उसे गांव के कब्रिस्तान में दफन नहीं करने दिया जाता है। कुछ गांव में ढुकू पुरुष के साथ भी यही सलूक होता है। ना ही आधार कार्ड पर बच्चों के बाप का नाम लिखने दिया जाता है।'
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