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पिछले साल चमकी बुखार से मेरे दो बच्चे मर गए। मुआवजे का पैसा मिला। इसके अलावा गांव में कुछ नहीं बदला। सालभर से ऊपर हो गया। तब विधायक आए थे, एमपी आए थे। बोले थे कि गांव के बगल में अस्पताल बनेगा, सड़क बनेगी। गांव को ऐसा बना देंगे कि इलाज की कमी से किसी बच्चे की मौत नहीं होगी। लेकिन कुछ नहीं बदला। सड़क के नाम पर खाली मिट्टी भरी गई है। अस्पताल का तो पता ही नहीं है। पानी-बिजली भी हवा-हवाई है।
यह दर्द बयां कर रहे हैं 40 साल के चतरी सहनी। इनका घर पटना से करीब 50 किलोमीटर दूर स्थित हरिवंशपुर गांव के मल्लाह टोले में है। पिछले साल जून में इनके दो बेटे प्रिंस (सात साल) और छोटू (ढाई साल) की चमकी बुखार से मौत हो गई थी। चतरी अपने बीमार बड़े बच्चे को लेकर पूरी रात पटना और मुजफ्फरपुर घूमते रहे लेकिन उसे बचा नहीं पाए।
सुबह बेटे की लाश लेकर घर लौटे तो छोटा बेटा भी अचानक बीमार पड़ गया। देखते ही देखते उसकी भी मौत हो गई। दरवाजे से एक साथ दो बच्चों की लाशें उठी थीं। पिछले साल चमकी बुखार से इस एक टोले से 7 बच्चों की मौत हुई थी। वहीं पूरे बिहार में लगभग 175 बच्चों की जान गई।
एक के बाद एक हो रही बच्चों की मौत से मल्लाह टोला चर्चा में आया था। कई दिनों तक अधिकारियों ने कैंप किया। स्थानीय विधायक राजकुमार साह और सांसद पशुपति कुमार पारस भी आए। इस दौरान कई वादे किए गए। कहा गया कि टोले के बगल में सरकारी अस्पताल बनेगा। नल-जल योजना से हर घर को पानी दिया जाएगा। टोले की हर बुजुर्ग महिला को वृद्धावस्था पेंशन दी जाएगी। जिन विधवाओं को पेंशन नहीं मिलती उन्हें भी जल्दी दी जाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
70 साल की सुधो को याद भी नहीं है कि उन्हें पहली बार पेंशन कब और कितनी मिली थी। वो कहती हैं, 'बहुत दिन से न देई छई। इयाद न हैइ कि केतना मिलइत रही। पता नहीं, काहे बंद क देलकई (बहुत दिन से नहीं मिल रहा है। याद नहीं है कि कितना मिलता था। ये भी नहीं मालूम कि क्यों बंद हो गया)। ऐसा कहने वाली सुधो अकेली नहीं हैं।
टोले की कई महिलाओं की शिकायत है कि उन्हें विधवा और मुख्यमंत्री वृद्धजन पेंशन योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। इन महिलाओं के लिए सरकार का मतलब है स्थानीय मुखिया और सबसे बड़े सरकारी कार्यालय का मतलब है, बीडीओ का दफ्तर।
इन वायदों को किए एक साल से ज्यादा हो गया। चुनाव आ गया है लेकिन, हकीकत की जमीन पर कुछ भी नहीं है। जो है, वो आधा-अधूरा है। टोले में जाने के लिए पक्की सड़क नहीं है। इस साल बाढ़ आई तो पूरा टोला टापू बन गया। पिछले साल अपनी सात साल की बेटी रूपा को खो चुके राजेश सहनी कहते हैं, सब कुछ आपके सामने हैं। आप टोले में आए होंगे तो कीचड़ में घुसकर आए होंगे।
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सोलिंग होनी थी। नहीं हुई। मिट्टी डालकर छोड़ दिए। इस बार बारिश हुई तो वो मिट्टी भी बह गई। हर घर के बाहर पानी वाला टोंटी लगा हुआ है लेकिन वो केवल दिखाने के लिए है। जब से लगा है, उसमें पानी नहीं आया। वो सब छोड़िए, इलाज ना मिलने की वजह से हमारे बच्चे मर गए। अगर आसपास एक अच्छा सरकारी अस्पताल ही बन जाता तो राहत मिलती।
बात केवल इतनी सी नहीं है कि जो कहा गया वो पूरा नहीं हुआ। इस टोले के 39 लोग एक सरकारी मुकदमा भी झेल रहे हैं जो पिछले साल स्थानीय प्रखंड विकास पदाधिकारी द्वारा दर्ज करवाया गया था। राजेश सहनी बोलते हैं, क्या कहें? विधायक जी आए थे। टोले की महिलाओं ने उन्हें घेर कर नारेबाजी कर दी थी।
बीडीओ साहेब ने मर्दों के खिलाफ केस कर दिया। विधायक जी बोले थे कि केस खत्म करवा देंगे लेकिन वो भी नहीं हुआ। हर तारीख पर कम से कम पांच हजार रुपया खर्च होता है। अगर कम से कम ये केस भी खत्म हो जाता तो हम गरीबों की बड़ी मदद होती।
सवाल उठता है कि ये जो मुश्किलें या अधूरे वादे हैं, वो इस विधानसभा चुनाव में इनके लिए कोई मुद्दा रहेंगे। क्या इस टोले के मतदाता अपने साथ हुए छलावे को वोट देने के दिन तक याद रखेंगे। 40 साल के शंभू सहनी कहते हैं, अभी दो-एक रोज की बात है। कुछ नेताजी आए थे। बाहर रोड पर मिले। बोले कि चुनाव में खड़े हो रहे हैं। जीत गए तो टोले को बदल देंगे।
मैंने कहा कि 40 साल से तो हम टोले को जस का तस देख रहे हैं। कुछ तो नहीं बदला। अगर जीत जाते हैं तो आप भी जोर लगा दीजिएगा। ना हमारे याद रखने से कुछ होता है और ना ही भूल जाने से। चुनाव जीतने के बाद इस तरफ कोई नहीं देखता है। आजतक तो यही होता आया है, आगे भी शायद यही होगा।
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