रंग-बिरंगी साड़ियां पहनी महिलाएं। उनके मेंहदी लगे हाथों में जैन धर्म की किताबें। गीत बज रहे। भजन-कीर्तन चल रहा। परिवार के लोग खुशी से झूम रहे। चारों तरफ उत्सव का माहौल है। दूर से देखने पर लगता है यहां किसी की शादी है, लेकिन करीब पहुंची तो पता चला यहां मौत का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है।
ये जैन धर्म के लोग हैं। जैन धर्म में स्वेच्छा से अन्न-जल छोड़कर देह त्याग करने की परंपरा को संथारा या सल्लेखना कहा जाता है। सल्लेखना 'सत्' और 'लेखना' शब्दों से मिलकर बना है। इसका मतलब 'अच्छाई का लेखा-जोखा' होता है।
पंथ सीरीज में संथारा प्रथा को समझने मैं राजस्थान के जोधपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर जसोल गांव पहुंची…
रात 8 बजे का वक्त। एक छोटे से कमरे में गुलाबी देवी लेटी हैं। उनके गोरे रंग पर सुर्ख लाल रंग की साड़ी खूब जंच रही है। माथे पर चमकती बिंदी, हाथों में मेंहदी और लाल चूडि़यां। पूरे घर में चहल-पहल है। लोग आ-जा रहे हैं। महिलाएं ढोल-झाल बजा रही हैं। गीत गा रही हैं।
गुलाबी देवी अपने बेटे से कहती हैं, ‘जोधपुर में आज एक आदमी ने संथारा लिया था। उसकी मौत तो कुछ घंटों बाद हो गई। मेरी कब होगी?'
बेटा कहता है जिस घड़ी आपकी मौत लिखी है, उसी घड़ी होगी। परेशान मत होइए।
गुलाबी देवी अपनी पड़पोती को बुलाती हैं। फिर उनके दो जुड़वां बच्चों के साथ खेलने लगती हैं। उनका उत्साह देखकर यकीन ही नहीं होता कि मृत्यु का इंतजार कर रहा कोई शख्स इतना खुश हो सकता है।
फिर वे दोनों बेटों को बुलाती हैं। अपने पास बैठाती हैं, उन्हें दुलारती हैं। कहती हैं, ‘मैंने पूरी जिंदगी इस घर में निकाल दी। मेरी बैकुंठी (अर्थी) घर के अंदर से ही निकालना। अपने बच्चों के हाथ से केसर का तिलक करवाना और बैकुंठी को भी हाथ लगवाना।’
बेटा कहता है, ‘हां पक्का। तुम मरने के बाद भी देखोगी कि वैसा ही मैंने किया है।’
गुलाबी देवी के बेटे कहते हैं, ‘हमारे यहां ब्याह-शादी में बैंड और डीजे नहीं आता है, लेकिन किसी ने संथारा ली है, तो उसकी मौत पर बैंड और डीजे बुलाया जाता है। सब लोग शादी की तरह तैयार होकर उसके जनाजे में शामिल होते हैं।’
गुलाबी देवी पिछले 24 दिनों से संथारा पर हैं। उन्होंने अपने पति पुखराज के साथ संथारा लिया था। जैन इतिहास में यह पहला मौका था जब पति-पत्नी ने एक साथ संथारा लिया। 17वें दिन पुखराज की मौत हो गई।
अभी कुछ दिन पहले झारखंड में सम्मेद शिखरजी को पर्यटन केंद्र घोषित करने के विरोध जैन मुनि समर्थ सागर और जैन मुनि सुज्ञेय सागर ने संथारा लिया था। दोनों देह त्याग चुके हैं।
जैन धर्म ग्रंथों के मुताबिक, जब किसी व्यक्ति या जैन मुनि को लगता है कि उनकी मृत्यु करीब है, तो वे अन्न-जल का त्याग कर देते हैं। एक कमरे में रहने लगते हैं।
जैन मुनि आचार्य समंतभद्र ने जैन ग्रंथ 'रत्नकरंड श्रावकाचार' में संथारा का जिक्र किया है। इसमें कहा गया है कि संथारा लेने से पहले गुरु की इजाजत लेनी पड़ती है। इसके लिए कोई उम्र तो तय नहीं है, लेकिन आमतौर पर मुश्किल हालातों में, बुढ़ापे में या लंबी बीमारी की स्थिति में संथारा ग्रहण करने की बात कही गई है।
संथारा लेने से पहले जैन मुनि जैन ग्रथों का मंत्रोच्चारण करवाते हैं। अपने हाथ से पानी पिलाते हैं और अन्न-जल का त्याग करवाते हैं। इसे संथारा पचकाना कहते हैं। इसके बाद जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है।
जैन मुनि संथारा ग्रहण करने जा रहे शख्स से कहते हैं- ‘जावजीव आपको सभी प्रकार के आहार का त्याग है।’ संथारा लेने वाला भी त्याग बोलता है और वहीं से शुरू हो जाता है संथारा। एक बार अन्न त्याग करने का मतलब है मौत होने तक उसे त्यागे रखना।
जैन साध्वी समणी मधुर प्रज्ञा बताती हैं, ‘दो तरह के जैन समुदाय हैं- श्वेतांबर और दिंगबर। संथारा प्रथा सभी में है। हमारे धर्म में जीवन से ज्यादा मृत्यु कैसी होनी चाहिए, इस बात पर जोर दिया जाता है, क्योंकि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। हमारी मान्यता है कि मरते वक्त जो आदमी जैसा सोचता है, उसका अगला जन्म वैसा ही होता है। इसी लिए हम मृत्यु का उत्सव मनाते हैं।’
वे कहती हैं, ‘मृत्यु के वक्त समाधि मौत सबसे उत्तम मानी जाती है। जो संथारा के जरिए ली जाती है। इसमें किसी से मोह, लोभ, चिंता, प्रेम, नफरत, द्वेष खत्म करने की कोशिश की जाती है। यहां तक कि अपने शरीर से भी। इसलिए बिना खाए पिए सिर्फ साधना की जाती है।’
संथारा के वक्त आनंद का भाव नीचे नहीं आने चाहिए। इसी वजह से संथारा लेने वाले के शख्स के आसपास भक्ति का माहौल रखा जाता है। घर में आने वाला हर आदमी उसे गीत सुनाता है। उसका गुणगान करता है।
10-12 साल पहले से संथारा की प्रैक्टिस कर सकते हैं- जैन साध्वी
जैन साध्वी समणी मधुर प्रज्ञा बताती हैं, ‘अगर कोई स्वस्थ है तो 10-12 साल पहले से संथारा की तैयारी शुरू कर सकता है। पहले साल वह दूध, दही, घी और तेल का त्याग करता है। इनमें से कोई एक खाना हो तो कड़ाही में बनने वाली चीजें त्याग देता है।
इसी तरह वह दूसरे और तीसरे साल एक-एक चीज का त्याग करता है। चौथे साल दूध, दही, घी और तेल सभी का त्याग कर देता है। पांचवें साल से हर महीने उपवास रहने लगता है। 9वें साल एक दिन छोड़कर उपवास और 12वें साल में पूरी तरह अन्न का त्याग कर देता है।’
जिसने संथारा ग्रहण किया होता है, उसके आस-पास भोजन नहीं बनता। परिवार वाले किसी दूसरे घर में या कहीं और खाने की व्यवस्था करते हैं। संथारा लेने के बाद स्नान नहीं किया जाता है। हर दिन नित्य क्रिया क्रम के बाद कपड़े बदले जाते हैं।
संथारा वाले घर में परिवार के लोग सूर्यास्त से पहले खाना खा लेते हैं। इस दौरान घर में सादा खाना ही बनता है।
मौत के बाद नहलाया नहीं जाता, अंतिम संस्कार के लिए जगह भी अलग
संथारा पर हाईकोर्ट ने रोक लगाई, सुप्रीम कोर्ट ने इजाजत दी
जैन धर्म में संथारा आस्था का विषय है। हालांकि कुछ लोग इसका विरोध भी करते हैं। 2006 में इस पर रोक के लिए राजस्थान हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी। 2015 में हाईकोर्ट ने संथारा को गैरकानूनी बताते हुए इस पर रोक लगा दी थी। कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता 306 तथा 309 के तहत इसे दंडनीय बताया था, जिसका जैन धर्म के लोगों ने खूब विरोध किया।
उनका कहना था कि आत्महत्या हमेशा निराशा या तनाव जैसी स्थिति में की जाती है। इसमें आदमी की फौरन मृत्यु हो जाती है। जबकि संथारा का फैसला करने वाला व्यक्ति शांति से और खुशनुमा माहौल में यह फैसला लेता है। संथारा की प्रक्रिया बेहद धीमी और लंबी होती है।
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए संथारा पर लगी रोक हटा दी थी। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 400 से ज्यादा लोग संथारा ग्रहण करते हैं।
अब पंथ सीरीज की ये तीन कहानियां भी पढ़िए
1. रात 12:30 बजे होती है निहंगों की सुबह:सुबह बकरे का प्रसाद बंटता है, घोड़ा इनके लिए भाई जान है और गधा थानेदार
अमृतसर के अकाली फूला सिंह बुर्ज गुरुद्वारे में चहल-पहल है। सिख छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी की 'बंदी छोड़ दिवस' का जश्न मना रहे हैं। आस-पास की सड़कें ब्लॉक हैं। भारी बैरिकेडिंग की गई है। घोड़े टाप दे रहे हैं, नगाड़े बज रहे हैं। बोले सो निहाल, सतश्री अकाल, राज करेगा खालसा आकी रहे न कोय… के जयकारे लग रहे हैं। नीले रंग के खास चोगे और बड़ी सी पग धारण किए लोग तलवारबाजी कर रहे हैं। ये निहंग सिख हैं। (निहंगों की पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें)
2. मौत के बाद अपनों को छूते तक नहीं:खुले में छोड़ देते हैं बिना कफन के शव; पारसी धर्म की अनोखी परंपरा
मुंबई के मालाबार हिल्स पर 55 एकड़ में फैला सालों पुराना जंगल है। यहीं है डूंगरवाड़ी। यानी किसी पारसी की मौत के बाद का आखिरी दुनियावी मुकाम। यहीं से संकरी राह से होते हुए तकरीबन 10 किलोमीटर चलने पर मिलता है- दखमा यानी टावर्स ऑफ साइलेंस। पारसी डेड बॉडी को जलाने, दफनाने या पानी में बहाने के बजाय टावर्स ऑफ साइलेंस में गिद्धों के खाने के लिए छोड़ देते हैं। आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं... पूरी खबर पढ़िए
3. धर्म के नाम पर देह का शोषण: प्रेग्नेंट होते ही छोड़ देते हैं, भीख मांगने को मजबूर खास मंदिरों की देवदासियां
देवदासी। हम सभी ने ये नाम तो सुना ही होगा। किसी ने कहानी में तो किसी ने फिल्म में। देवदासी यानी देवों की वे कथित दासियां जिन्हें धर्म के नाम पर सेक्स स्लेव बनाकर रखते हैं। उम्र ढलते ही भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौंकिए मत। ये प्रथा राजा-महाराजाओं के समय की बात नहीं, आज का भी सच है। (पढ़िए पूरी रिपोर्ट)
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.