‘मां के गर्भ में था, तभी पापा की मौत हो गई। जुड़वां पैदा हुआ। पहले से एक भाई और बहन थे। वो भी महज 4-5 साल के। चार बच्चों को पालने की जिम्मेदारी मां पर आ गई। गरीबी ऐसी कि मां दूध की जगह मक्के का आटा घोलकर पिलाती थी। बचपन में बिस्कुट-चॉकलेट खाने का मन करता तो तालाब किनारे खाली पड़ी शराब की बोतलों को बेचकर बिस्कुट खरीदता था।'
हाथ में पेंट और ब्रश लिए भोपाल के दुबू बारिया अपनी कहानी बता रहे हैं। वे भील आर्टिस्ट हैं। अब उनकी बनाई पेटिंग्स लाखों में बिकती हैं। भील आर्ट भील आदिवासी समुदाय की कला है। इसमें ये दीवारों, कैनवास पर व्यक्ति, पर्व-त्योहार, देवताओं, कीड़ों, जानवरों, कल्चर को पेंटिंग के जरिए उकेरते हैं।
दुबू सामने चौखट पर बैठी अपनी मां की तरफ देख रहे हैं। मां की उम्र अब 80 साल हो चुकी है। शरीर पर लटकी झुर्रियों के बीच संघर्ष दिखाई पड़ रहे हैं। दुबू भरी आवाज में अपनी पेंटिंग दिखाते हुए कहते हैं, ‘आज मेरी पेंटिंग लाख-लाख रुपए में बिकती है। देश से लेकर विदेशों तक में लोग खरीदते हैं।
जब मैं देशभर में होने वाले एग्जीबिशन में जाता हूं, तो वहां अंग्रेज भी पेंटिंग खरीदकर ले जाते हैं। पहले जब अंग्रेज मेरी पेंटिंग देखकर वेरी नाइस, वेरी नाइस (Very Nice, Very Nice) कहते थे, तो मुझे समझ में नहीं आता था कि इसका मतलब क्या होता है? एक रोज अपनी बेटी से पूछा तो उसने बताया कि इसका मतलब बहुत अच्छा होता है।' कहते-कहते दुबू के चेहरे पर हंसी आ जाती है।
जिस वक्त हमारी बातचीत हो रही है, घड़ी में दोपहर के करीब एक बज रहे हैं। इसी वक्त दुबू की बेटी स्कूल से लौटती है। किस क्लास में पढ़ती हो? पूछने पर उनकी बेटी बताती है, छठी में। दुबू बोल पड़ते हैं, ‘मैं तो 7वीं तक ही पढ़ पाया। घर में खाने को नहीं था, तो पढ़ने के लिए पैसे कहां से आते। बड़े भाई ने जैसे-तैसे इतना भी पढ़ा दिया। ’
दुबू ने भले ही कभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा, लेकिन आज वो कॉलेज में बच्चों को भील आर्ट का वर्कशॉप देने के लिए जाते हैं। जब दुबू ये बात दोहराते हैं तो उनकी आंखें भर आती हैं।
वो कहते हैं, 'मैं मसूरी, बेंगलुरु, वडोदरा, जम्मू-कश्मीर समेत देशभर में ट्रेनिंग और आर्ट बनाने के लिए जा चुका हूं। लोग मुझे आने-जाने का खर्च देकर बुलाते हैं। हर तरह की सुविधा उपलब्ध करवाते हैं। पैसे और पहचान दोनों मिलता है।
दुबू की मां बताती हैं, ‘ये (दुबू) तो मेरे पेट में 6 महीने का था, तभी उनकी (पति) डेथ हो गई। चार बच्चों को लेकर कहां जाती, क्या करती। गांव में कुछ नहीं था। मायके वालों के पास बच्चों को छोड़कर मजदूरी करने के लिए चली जाती थी, लेकिन मां का दिल कहां मानता है। जहां मजदूरी करने के लिए जाती, वहां इन्हें भी लेकर जाती थी।’
दुबू मूल रूप से मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के रहने वाले हैं। गरीबी की वजह से 80 के दशक में इनका परिवार मजदूरी के लिए भोपाल आ गया। तब से सभी लोग यहीं रह रहे हैं।
दुबू के पास बचपन की कोई तस्वीर नहीं है। वो बताते हैं, ‘भोपाल के बड़ा तालाब के पास बहुत बड़ा जंगल था। हम लोग वहां तिरपाल टांगकर रहते थे। वहीं के कुछ जंगल को साफ कर हम खेती करते थे। मक्का उपजाते और खाते।
पापा की मौत के बाद मां मजदूरी करने लगी। वह सड़क किनारे पेड़ लगाती, गढ्ढे खोदती, सिंचाई करती। जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो सरकार ने हम पर आफत बरसा दी। पूरी बस्ती उजाड़ दी। हम लोग सड़क पर आ गए। बाद में राज्य सरकार ने टीटी नगर इलाके के पास हमें रहने की जगह दी।
फिर से हम लोग तिरपाल टांगकर रहने लगे। मां के लिए हम भाई बहनों का पालन-पोषण करना मुश्किल हो चला था। उनकी उम्र भी ढल रही थी। ननिहाल वाले किसी के लिए कितना ही करते हैं। हालांकि, उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया।
स्कूल जाने के साथ-साथ मैं 8 साल की उम्र से होटलों में कप-प्लेट धोने लगा। इससे एक-दो रुपए मिल जाते थे। फिर जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो ठेकेदारों के साथ जाकर खेतों में मजदूरी करने लगा। स्कूल जाने का मन नहीं करता था।'
हमारे पास किताब तो छोड़िए, कॉपी खरीदने तक के पैसे नहीं थे। मां बाजार से एक कॉपी खरीदकर लाती और उसे हम दोनों भाई में आधा-आधा फाड़कर बांट देती।
स्लेट भी एक होता था, पहले मेरा भाई उस पर लिखता, फिर मैं। इस तरह से थोड़ा-बहुत लिखना पढ़ना जान गया। स्कूल के सभी बच्चे जूते पहनकर आते थे, मैं खाली पैर। ये ज्यादा पुरानी बात नहीं, 90 के दशक की बात है।’
दुबू बताते हैं कि जब उनकी उम्र 14 साल हुई, तो उनकी शादी हो गई। इसके बाद उन पर और अधिक जिम्मेदारी आ गई।
दुबू की बातें सुनकर सामने बैठी उनकी पत्नी शर्मा बारिया मुस्कुराने लगती हैं। ये मुस्कुराहट दर्द वाली मुस्कुराट है। शर्मा बोल पड़ती हैं, ‘मेरे घर के भी हालात वैसे ही थे। बचपन से मजदूरी करती थी। स्कूल का मुंह भी नहीं देख पाई।
मां-पापा भोपाल के मानव संग्रहालय में माली का काम करते थे। जब शादी हुई तो यहां स्थिति मायके से भी खराब थी। घर चलाने के लिए मैंने भी इनके (दुबू) साथ मजदूरी की। एक बच्चा भी तब तक हो चुका था। सुबह के चार बजे खाना बनाती और फिर काम करने के लिए 20 किलोमीटर पैदल जाती।’
आज भी दुबू भील आर्ट बनाने के साथ-साथ मानव संग्रहालय में माली का काम करते हैं। वो बताते हैं, ‘यहां पर शर्मा के पापा ने काम दिलवाया था। शुरुआत में गढ्ढा खोदने, पेड़ लगाने, पानी डालने, साफ-सफाई का काम करता था। अब संग्रहालय में भी पेंटिंग करता हूं।’
मजदूरी से भील आर्ट की तरफ कैसे?
दुबू अपने मोबाइल में भुरी बाई की तस्वीर दिखाते हैं। वहीं भुरी बाई, जिन्हें भील आर्ट में योगदान के लिए 2021 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया था। भुरी बाई दुबू की चाची हैं।
वो कहते हैं, ‘2005 की बात है। चाची भील आर्ट बनाती थीं। एक रोज उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा कि कैनवास पर मैं डिजाइन करती हूं। तुम इसमें पेंट भर दोगे? मैंने हां कह दिया। जब इसे किया, तो उन्हें काफी पसंद आया।
इसके बाद मैंने पेपर पर पेंटिंग बनानी शुरू की। धीरे-धीरे अच्छी पेंटिंग बनाने लगा। कुछ महीने बाद जब भुरी चाची को दिखाया, तो वो चौंक गईं। उन्होंने कहा कि तुम तो अच्छी पेंटिंग बनाने लगे हो। इसे बनाना शुरू कर दो।‘
दुबू के कमरे में भील आर्ट की पेंटिंग्स रोल करके रखी हुई हैं। वो कहते हैं कि 2007 से मजदूरी करने के साथ-साथ मैं पेंटिंग बनाने लगा। फिर मैंने पत्नी को भी इसे सिखाया। हम लोग आदिवासी समुदाय से आते हैं। इस समुदाय के आर्ट को सहेजने का काम ट्राइफेड यानी ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड करती है।
दुबू बताते हैं, ‘जब दूसरे आर्टिस्टों ने इससे जुड़ने के बारे में बताया तो मैं जुड़ गया। इनसे मिलने के लिए गया तो मेरी पेंटिंग देखकर सभी दंग रह गए। कम पढ़ा लिखा, मेहनत मजदूरी करने वाला… उसके लिए ये पल कभी भूलने वाला नहीं था।
मैंने जो भी पेंटिंग्स बनाई थीं, सभी ट्राइफेड ने खरीद लिए। 35 हजार रुपए में सारी पेंटिंग्स बिकी थीं। पहली बार जीवन में एकमुश्त 35 हजार रुपए मैंने देखा था। हाथ में जब पैसा मिला, तो आंखों से आंसू गिरने लगे। तभी से ये कारवां चला आ रहा है, जो अभी भी जारी है।
पिछले महीने मेरी पेंटिंग भोपाल के ट्राइबल म्यूजियम में लगी थी। करीब दो लाख रुपए की पेंटिंग बिकी। भील आर्ट के लिए मेरी चाची को जब पद्मश्री से नवाजा गया, तो मुझे बहुत खुशी हुई। मैं भी इस आर्ट को और अधिक निखार रहा हूं ताकि मुझे भी कभी ना कभी सम्मान मिले। अब यही चाहत है।'
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