खुद्दार कहानीढाई साल का था तो मां चल बसीं:10 रुपए के लिए गोल्फ किट ढोता था; अब IAS-IPS को ट्रेनिंग देता हूं

4 महीने पहलेलेखक: अमन सिंह राजपूत
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मां ने कभी थपकी देकर नहीं सुलाया, उनकी लोरी भी मुझे याद नहीं। मुझे नहीं पता कि मां दिखने में कैसी थी। दादी कहती हैं कि जब मैं ढाई साल का और बहन सवा महीने की थी, तब मां की मौत हो गई।

मध्य प्रदेश के स्लम एरिया में पैदा हुआ। यहां न उस वक्त बिजली थी और न आज है, क्योंकि ये अवैध कॉलोनियां हैं। करीब 50 परिवार यहां रहते हैं। बरसात के दिनों में जितनी बारिश घर के बाहर, उससे कहीं ज्यादा घर के अंदर।

मैं अमन सिंह राजपूत, गोल्फ कोच हूं। कभी गोल्फ क्लब में गोल्फ किट को ढोता था। आज IAS-IPS, डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी, नेताओं को गोल्फ खेलना सिखाता हूं। मेरी उम्र अभी 22 साल है।

बचपन से गरीबी में जिया, स्लम में बने दो कमरे के घर में बिना बिजली-पानी के रहा।
बचपन से गरीबी में जिया, स्लम में बने दो कमरे के घर में बिना बिजली-पानी के रहा।

भोपाल के गोविंदपुरा स्लम एरिया में जन्म हुआ, जो BHEL नगरी से सटा हुआ है। बस्ती के बच्चों के साथ खेलते-कूदते बड़ा हुआ, दादी ने पाला-पोसा। मां की मौत के बाद पापा ने दूसरी शादी कर ली, लेकिन मेरी परवरिश दादी ने ही की।

दादी ने जन्म से लेकर अब तक ख्याल रखा, इसलिए मेरा उनसे सबसे ज्यादा लगाव है। जब मेरा जन्म हुआ, तो घर में इतनी गरीबी थी कि दूध भी बमुश्किल से नसीब हो पाता था। दादी एक बकरी पालती थीं।

जब घर में दूध नहीं होता, तो दादी मुझे अरारोट पाउडर गर्म पानी में मिलाकर खिलातीं। वो आज भी कहती हैं, ‘जब तुम और तुम्हारी बहन छोटे थे, मैं घर में अकेली पालने वाली थी। चूल्हे पर चढ़ा खाना कई बार जल जाता था।’

भूल से दादी चाय में अरारोट पाउडर भी मिला दिया करती थीं। दादा स्लम एरिया से सटे एक कॉलेज में माली का काम करते थे। दादी मुझे पड़ोसी के घर छोड़कर दादा को खाना पहुंचाने जाती थीं। 2007-08 की बात है, दादा को काम से निकाल दिया। पापा का काम भी उतना अच्छा नहीं चल रहा था, तो घर में पैसों की दिक्कत होने लगी।

पापा उत्तर प्रदेश के ललितपुर में शादी-ब्याह में हलवाई का काम करते हैं। जब शादी-ब्याह का सीजन नहीं होता, तब वो हमसे मिलने चले आते हैं। पापा भी छोटी सी उम्र से ही होटल में काम करने लगे थे। फिर धीरे-धीरे उन्होंने हर तरह की डिश बनानी सीखी।

इस तस्वीर में मैं अपनी दादी और बहन के साथ हूं। दादी ने ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया है।
इस तस्वीर में मैं अपनी दादी और बहन के साथ हूं। दादी ने ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया है।

पापा के तीन भाई हैं, एक चाचा हम लोगों के साथ ही स्लम में रहते थे। घर चलाने के लिए वो बगल के गोल्फ ग्राउंड में गोल्फ प्लेयर्स का गोल्फ किट ढोने का काम करने के लिए जाने लगे। मैं भी उनके साथ जाता था। मुझे एक दिन के 10 रुपए मिलते थे।

दरअसल, गोल्फ ग्राउंड बड़ा होता है, वहां गोल्फर गेंद को हिट करते-करते काफी दूर चले जाते हैं। करीब 10 किलो का गोल्फ किट कंधे पर टांगकर कई घंटे तक गोल्फर के पीछे-पीछे चलता रहता था। इससे कमर में दर्द भी होने लगता था। मेरी उम्र उस वक्त 14 साल थी। पैसों की जरूरत थी, इसलिए गोल्फ किट ढोने के लिए जाना पड़ता था।

इधर बस्ती का माहौल भी कभी अच्छा नहीं रहा। लोग आज भी पेड़ के नीचे बैठकर ताश और जुआ खेलते हैं। शराब पीते हैं, गाली-गलौज करते हैं, उस वक्त भी यही करते थे।

मैं भी इसी संगति में पड़ गया। मुझे याद है कि गोल्फ किट उठाने से जो 10 रुपए मिलते थे, वो मेरे लिए कम पड़ने लगे। इसलिए स्लम के बच्चों के साथ कई बार छोटी-मोटी चोरियां भी करता था।

लोगों के घर के छप्पर पर रखे लोहे-स्टील की चीजें चुराकर बेच देता था। इससे कुछ रुपए मिल जाते थे, जिनका इस्तेमाल गलत कामों में करता था। एक-दो बार शराब भी पी।

जब ये बात दादी-पापा को पता चली, तो मेरी खूब पिटाई हुई। उन्होंने समझाया कि अच्छे लोगों के साथ रहोगे, तो ही अच्छे बनोगे।

ये मेरा कमरा है। इसमें एक तरफ खाना बनता है, तो दूसरी तरफ मेरे गोल्फ किट रखे हुए हैं।
ये मेरा कमरा है। इसमें एक तरफ खाना बनता है, तो दूसरी तरफ मेरे गोल्फ किट रखे हुए हैं।

मैं जब गोल्फ क्लब आने लगा, तो देखता था कि यहां सिर्फ एलीट लोग ही आते हैं।

IAS, IPS, डॉक्टर, इंजीनियर, जर्नलिस्ट… यही सब खेलने के लिए आते हैं। वैसे भी गोल्फ को रईसों का खेल कहा जाता है।

इन लोगों के साथ रहने पर मुझे घुटन महसूस होती थी। सोचता था कि मैं कहां स्लम एरिया का रहने वाला लड़का, और कहां ये लोग…। 2017-18 से गोल्फ स्टिक लेकर खेलना शुरू किया, तो लोग ओछी नजरों से देखने लगे।

कुछ अधिकारियों ने तो यहां तक कहा- अरे! ये स्लम बस्ती से आता है। कभी इस तरह की महंगी चीजें, खेल का सामान देखा नहीं है। चुराकर ले जाएगा, इसे खेलने के लिए यहां मत आने दो।

लेकिन धीरे-धीरे इन्हीं लोगों को लगने लगा कि मैं एक अच्छा प्लेयर बन सकता हूं। इधर मेरी पढ़ाई भी चल रही थी। जैसे-तैसे बारहवीं के बाद ग्रेजुएशन में एडमिशन ले लिया।

भोपाल के जिस अधिकारी का गोल्फ किट ढोता था, उन्होंने ही मुझे गोल्फ खेलने के लिए हौसला दिया।

उस अधिकारी के गोल्फ किट से मैं खेलता था। घरवाले इसलिए भी खुश थे कि मैं स्लम के बच्चों की संगति से दूर हूं। मेरा ये भी सपना था कि बड़े-बड़े अधिकारियों से बातचीत करूं। उनके कल्चर, रहन-सहन के तरीके को जान सकूं, समझ सकूं।

गोल्फर और फिर गोल्फ कोच बनने के बाद लोगों ने मुझे सपोर्ट करना शुरू किया।
गोल्फर और फिर गोल्फ कोच बनने के बाद लोगों ने मुझे सपोर्ट करना शुरू किया।

धीरे-धीरे मेरी दिलचस्पी गोल्फ की तरफ बढ़ने लगी। स्लम के बाद दूसरा घर गोल्फ ग्राउंड हो गया। बतौर गोल्फर खेलने लगा। खेलते-खेलते इतना एक्सपर्ट हो गया कि 2020 में मुझे गोल्फ कोच का सर्टिफिकेट मिल गया।

लगातार तीन साल- 2020, 2021 और 2022 में मैंने BHEL गोल्फ ओपन टूर्नामेंट में गोल्ड मेडल अपने नाम किया। 2020 में हुए ‘द इंडियन गोल्फ यूनियन’ में भी क्वालिफाई किया। अब नेशनल लेवल पर खेलने की तैयारी कर रहा हूं।

कभी मुझे गोल्फ किट ढोने के 10 रुपए मिलते थे, आज जब किसी गोल्फर को गोल्फ खेलना सिखाता हूं, तो बतौर कोच एक घंटे के 700 रुपए मिलते हैं। बड़े-बड़े IAS, IPS अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर को गोल्फ की ट्रेनिंग देने जाता हूं।

स्लम के बच्चे भी मुझे देखकर गोल्फ में इंटरेस्ट लेने लगे हैं। जो लोग कमेंट करते थे कि गोल्फ खेलकर ये क्या ही कर लेगा, अब वो अपने बच्चों को मेरे पास गोल्फ सीखने के लिए भेजते हैं।

ये सारी बातें गोल्फ कोच अमन सिंह राजपूत ने भास्कर के नीरज झा से शेयर की हैं।

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