खुद्दार कहानीआजादी के बाद पहली बार आदिवासी बच्चों को स्कूल पहुंचाया:20KM कीचड़ में सनकर पैदल जाता, राष्ट्रपति से मिला अवॉर्ड; बना ब्रांड एंबेसडर

2 महीने पहलेलेखक: नीरज झा
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‘2022 का साल, सितंबर का महीना, 5 तारीख यानी टीचर्स डे। दिल्ली का विज्ञान भवन अवॉर्ड पाने वाले टीचर्स और गेस्ट से भरा हुआ था। साथ में मेरी पत्नी भी थी। जब मैं राष्ट्रपति से मिलने के लिए जा रहा था, तो पापा ने कहा- मुझे भी राष्ट्रपति से मिलवाने ले चलो।

जब स्टेज से मेरे नाम को अनाउंस किया गया, तो यकीन नहीं हो रहा था कि मुझे राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से नवाजा जा रहा है। दिल्ली से लौटने के बाद अपने गांव गया, तो खुशी के मारे पापा कई दिनों तक मेडल को गले में लटकाकर घूमते रहे। गांव में वो घूम-घूमकर लोगों से कहते- देखो ! मेरे बेटे को राष्ट्रपति अवॉर्ड मिला है।’

मध्यप्रदेश का रायसेन। जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर पहाड़, जंगल और पथरीली जमीन के बीच सालेगढ़ में दो कमरों का एक गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल। यहीं पर मेरी बातचीत नीरज सक्सेना से हो रही है। नीरज जब मेडल निकालकर दिखाते हैं, तो वो उसे चूमने से अपने आप को रोक नहीं पाते हैं। कहते हैं- 'कीचड़ में सनकर और 20 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ाने के लिए आता था।'

ये नीरज सक्सेना हैं, जिनके हाथ में राष्ट्रपति द्वारा दिया गया मेडल है।
ये नीरज सक्सेना हैं, जिनके हाथ में राष्ट्रपति द्वारा दिया गया मेडल है।

इस स्कूल का एरिया किसी पार्क या शहर के गार्डन की तरह दिख रहा है, लेकिन इसके आस-पास दूर-दूर तक ऊंचे पहाड़, बड़े-बड़े पत्थर, जंगल और सागवान के पेड़ के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। बहुत अधिक नजरें दौड़ाने पर दो-चार घर दिखाई दे रहे हैं, जहां के बच्चे इस स्कूल में पढ़ने के लिए आए हुए हैं।

नीरज कहते हैं, 'इसी तरह जंगल, पहाड़ और आस-पास के इलाकों में कुछ-कुछ किलोमीटर की दूरी पर आपको दो-चार झोपड़ियां मिलेंगीं, जिनमें भील आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। जिन बच्चों को अभी आप खेलते हुए देख रहे हैं, ये सभी बच्चे 5-5 किलोमीटर दूर से पैदल चलकर आते हैं।

रास्ते ऐसे हैं कि यदि आप अकेले जाएंगे, तो खो जाएंगे। संभलकर न चलें, तो हाथ-पैर टूट जाएंगे। बरसात के दिनों में ये इलाका कीचड़ में सना होता है। आजादी के बाद स्कूल जाने वाली इन गांवों की ये पहली पीढ़ी है। इनसे पहले वाली पीढ़ियों ने स्कूल की शक्ल तक नहीं देखी।’

2020 में नीरज का एक वीडियो भी काफी वायरल हुआ था, जिसमें वो कुछ बच्चों के साथ बैलगाड़ी पर किताब रखकर ले जा रहे थे।

नीरज का यही वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वो बैलगाड़ी पर किताबों की बोरी ले जा रहे हैं।
नीरज का यही वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वो बैलगाड़ी पर किताबों की बोरी ले जा रहे हैं।

वो कहते हैं, ‘एक बार मैं किताब की बोरी लेकर बैलगाड़ी से आ रहा था, क्योंकि दूसरा कोई साधन नहीं था। जब यह वीडियो वायरल हुआ, तब अधिकारियों ने इस स्कूल पर ध्यान दिया। नहीं तो, पहले अधिकारी यहां देखने तक नहीं आते थे।’

नीरज के साथ मैं भी इन गांवों की ओर निकल पड़ता हूं। पूरे इलाके में न सड़क है, न पानी और न बिजली। लोगों के पास न पहनने के लिए कपड़े हैं, न खाने के लिए रोटी। कहीं-कहीं सूखी पेड़ की टहनियों के सहारे बिजली के तार लटके हुए नजर आ रहे हैं।

इस तरह हर रोज नीरज 100 किलोमीटर की दूरी तय करके स्कूल जाते हैं।
इस तरह हर रोज नीरज 100 किलोमीटर की दूरी तय करके स्कूल जाते हैं।

पूछने पर पता चलता है कि 24 घंटे में बमुश्किल एक-दो घंटे बिजली आ जाती है। कई इलाकों में तो वो भी नहीं...। गुजर-बसर करने, दो पैसों की आस लिए ये लोग पलायन करके दूसरे राज्यों में चले जाते हैं, जबकि महिलाएं और बच्चे यहीं पर रहते हैं। जंगल में शेर-चीता जैसे जंगली जानवरों के हमले का डर रहता है।

नीरज कहते हैं, "पिछली ठंड में ही मैंने एक NGO की मदद से इन गांवों के लोगों को फ्री में कंबल बंटवाए थे। जब इन्हें कंबल दिया, तो इनके पहले शब्द यही थे- अब ठंड नहीं लगेगी।'

नीरज एक स्टूडेंट अनीता से मेरी मुलाकात करवाते हैं, जो स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही है। अनीता अभी चौथी क्लास में है। वो कहती है, ‘हम चार भाई-बहन हैं। मुझे छोड़कर मेरे घर में किसी ने किताब-कॉपी का मुंह तक नहीं देखा। स्कूल जाना तो दूर की बात। मां मुझे स्कूल नहीं जाने देती थी। वो कहती थी कि तुम स्कूल चली जाओगी, तो भाई को कौन खिलाएगा।’

ये अनीता है, जो चौथी क्लास में पढ़ रही है। वो स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही है।
ये अनीता है, जो चौथी क्लास में पढ़ रही है। वो स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही है।

इन बातों को कहते-कहते अनीता की मासूम आंखें सपनों को टटोलने लगती हैं। वो आगे चलकर टीचर बनना चाहती है। अनीता नीरज की तरफ देखते हुए कहती है, 'जब नीरज सर ने घर-घर घूमकर मुझ जैसे दर्जनों बच्चों का एडमिशन स्कूल में करवाया, तब मैंने पढ़ना शुरू किया। उन्होंने मेरे घरवालों को समझाया कि यदि मैं भी नहीं पढूंगी, तो उन लोगों की तरह ही मैं भी गाय-भैंस, बकरी चराऊंगी। गरीबी में पैदा हुई और इसी में मर जाऊंगी।'

इसी बीच नीरज के स्कूल से पढ़ी कविता आती है। कविता 10वीं का एग्जाम देकर शहर से गांव लौटी है। साथ में उसके पापा भी खड़े हैं। ये लोग पेट पालने के लिए पथरीले पहाड़ी इलाके में खेती, मजदूरी करते हैं। वो कहते हैं- यहां पत्थर पर दूब भी उपज जाए, तो बड़ी बात।

कविता बताती है, ‘मैं 9 भाई-बहनों में अकेली पढ़ने वाली हूं। बाकी कोई आज तक स्कूल नहीं गया। मेरे घरवाले भी मुझे स्कूल नहीं भेजना चाहते थे। जब उनसे कहती थी कि मैं स्कूल जाना चाहती हूं, तो वो कहते थे- बेटी जात होकर पढ़ोगी...। एक दिन चूल्हा-चौका ही तो करोगी...। आज मैं शहर में रहकर पढ़ रही हूं।’

नीरज के साथ बातचीत कर रही कविता अपने 9 भाई-बहनों में अकेली पढ़ने वाली लड़की है।
नीरज के साथ बातचीत कर रही कविता अपने 9 भाई-बहनों में अकेली पढ़ने वाली लड़की है।

अपनी कहानी कहते-कहते कविता और अनीता एक सुर में बोल पड़ती हैं- 'ये सब नीरज सर की बदौलत ही हो पाया है। हम जैसे सैकड़ों बच्चे हैं, जो आज पढ़ रहे हैं। गर्व है कि हम राष्ट्रपति से सम्मानित टीचर से पढ़ रहे हैं।'

नीरज कहते हैं, 'इन गांवों के बच्चों को पता तक नहीं था कि पढ़ना-लिखना क्या होता है। जब मैंने इनके हालात में खुद के हालात को देखा, तब लगा कि यदि मैं नहीं पढ़ता, तो इन लोगों की तरह मैं भी दारू-शराब का अवैध धंधा करता। गाय-बकरी चराता।'

अब हम जंगल से स्कूल की ओर लौट रहे हैं।​​​​​ पथरीले जंगल के बीच मोटरसाइकिल के हैंडल को संभालते हुए नीरज बताते हैं, ' इस इलाके की तरह ही मेरे गांव का भी हाल था। यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर तरावली गांव है, जहां मैं पैदा हुआ।

पापा खेती करते थे, लेकिन इतनी जमीन नहीं थी कि ठीक से घर भी चल पाए। उनके लिए घर चलाना और हम चार भाई-बहनों को पढ़ाना-लिखाना बहुत मुश्किल हो रहा था। मैं अपना खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगा।

जैसे-तैसे 12वीं करने के बाद रायसेन आ गया। मुझे पता था कि यदि नहीं पढूंगा, तो जिस तरह से पापा को मजदूरी करनी पड़ रही है, मुझे भी करनी पड़ेगी। मैंने रायसेन के एक कॉलेज में एडमिशन ले लिया। मजबूरी में यहां भी बच्चों को पढ़ाने लगा, ताकि कुछ रुपए खुद के खर्च के लिए मिल जाएं। कुछ साल प्राइवेट स्कूल में भी पढ़ाया।’

इस तस्वीर में नीरज के साथ उनकी पत्नी, मां और बड़े भाई, भाभी हैं।
इस तस्वीर में नीरज के साथ उनकी पत्नी, मां और बड़े भाई, भाभी हैं।

नीरज 2009 का वाकया बताते हैं। वो कहते हैं, ‘जब मैंने गवर्नमेंट टीचर की नौकरी के लिए फॉर्म भरा, तो जिले में तीसरी रैंक आई। जिस स्कूल में चाहता, वहां पोस्टिंग मिल जाती, लेकिन कुछ वजहों से मेरी पोस्टिंग इस आदिवासी इलाके में कर दी गई। जहां न सड़क थी, न ही स्कूल में बच्चे। न पानी, न बिजली। मिली केवल दो कमरों वाली जर्जर स्कूल।

जब मैं पहली बार इस स्कूल में आया, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। ऐसा लग रहा था जैसे मैंने कोई क्राइम किया हो और किसी ने मुझे सजा दी हो। इस इलाके के लोगों को पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब ही नहीं था। हर रोज मैं 100 किलोमीटर की दूरी तय करता था। आज भी करता हूं। इसमें से 60 किलोमीटर बस से और बाकी की दूरी पैदल। पूरा इलाका पथरीला। यदि थोड़ी सी भी चूक हुई, तो जान पर बात आ जाती। पैर फिसला, तो सीधे खाई में। आधा रास्ता कीचड़ में सना होता था।

इस स्कूल में 1995 से लेकर अब तक मात्र 3 टीचर आए। तीसरा मैं हूं। इससे पहले के जितने भी टीचर आए, उन्होंने दो-चार महीने में ही ट्रांसफर ले लिया। तब मैंने सोचा कि यदि मैं इन इलाकों के बच्चों को एजुकेट नहीं करूंगा, तो ये पीढ़ी भी अनपढ़ रह जाएगी।

मैं अकेला व्यक्ति, शुरुआत में जब कुछ आदिवासी घरों में जाकर उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कहता, तो वो सीधे कहते- जैसे दूसरे टीचर स्कूल में आए, आप भी कुछ महीने में ही यहां से चले जाओगे। इसलिए हमें कमाने-खाने दो। बच्चों को पढ़ा-लिखाकर क्या ही कर लेंगे। गाय-बकरी चराएंगे, तो कम-से-कम दो रुपए तो मिलेंगे।’

इस तस्वीर में एक आदिवासी परिवार और पीछे एक झोपड़ी है। नीरज हर रोज इस तरह से बच्चों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करते हैं।
इस तस्वीर में एक आदिवासी परिवार और पीछे एक झोपड़ी है। नीरज हर रोज इस तरह से बच्चों को स्कूल आने के लिए प्रेरित करते हैं।

इस इलाके में आदिवासी भील समुदाय के करीब 150 घर हैं। नीरज बताते हैं, ‘शुरुआत में ये लोग दारू-शराब का काम करते थे। बस इन्हें किसी तरह से एक वक्त का भी खाना मिल जाए। बच्चे भी स्कूल नहीं आना चाहते थे। जिसके बाद मैंने स्कूल के आस-पास के एरिया को हरा-भरा बनाना शुरू किया। एक-दो नहीं, दर्जनों ब्लैकबोर्ड पेड़ों पर टांग दिए, ताकि बच्चे इससे अट्रैक्ट हों, खेल-खेल में पढ़ लें। कम-से-कम वे स्कूल तो आएं। धीरे-धीरे जब लोगों को मैंने अवेयर करना शुरू किया कि यदि वो अपने बच्चों को नहीं पढ़ाएंगे, तो उनके बच्चों की जिंदगी भी वैसी ही हो जाएगी, जैसी उनकी है।’

नीरज कहते हैं कि आज उनके स्कूल में 115 बच्चे पढ़ रहे हैं, जबकि 2009 में मात्र 10-12 बच्चे पढ़ने के लिए आते थे। इनके बच्चे अब नवोदय स्कूल में पढ़ रहे हैं। नर्स, डॉक्टरी, इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति अवॉर्ड से पहले 2020 में मिनिस्ट्री ऑफ इस्पात ने नीरज को अपना ब्रांड ऐंबैस्डर बनाया था। उनके ऊपर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई जा चुकी है।

वो कहते हैं, 'मैंने स्कूल तक सड़क बनवाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। तब जाकर अब करीब 3 किलोमीटर तक सड़क का निर्माण हो पाया है, जिस रास्ते से हम लोग अभी आए हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन सब कामों के लिए अलग से पैसे देती है। मुझे याद है कि शुरुआत में तीन साल तक मेरा वेतन महज 2500 रुपए था।

ये इलाका पहले वनग्राम यानी फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के अंदर था, इसे मैंने राजस्व ग्राम यानी रेजिडेंशियल एरिया में कन्वर्ट करवाया। फॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने मेरे काम को देखते हुए स्कूल के लिए एक लाइब्रेरी बनवाई’

नीरज के स्कूल में एक बच्चा एक्टिविटी के जरिए कविता सुना रहा है।
नीरज के स्कूल में एक बच्चा एक्टिविटी के जरिए कविता सुना रहा है।

नीरज एक किस्सा बताते हैं। वो कहते हैं, ‘एक बार मैं स्कूल में मोटर लगवाने के लिए एक अधिकारी के पास गया था। मैंने उनसे गुहार लगाई कि यदि स्कूल में मोटर लग जाए, तो बच्चों को पानी पीने में सुविधा होती। साथ ही इलाके के लोगों को भी इससे फायदा होगा, पेड़ों में पानी भी पट जाएगा।

अधिकारी मुझ पर भड़कते हुए बोले- आप एक शिक्षक हैं, समाजसेवी नहीं। जो आज कर रहे हैं, उसके लिए आगे चलकर ​​​आपकी औलाद आपको गाली देगी कि आपने उनके लिए क्या किया। वही अधिकारी राष्ट्रपति अवॉर्ड मिलने के बाद मेरे काम की तारीफ करते नहीं थक रहे थे।’

नीरज कहते हैं कि जब उन्होंने इन बच्चों को पढ़ाने के लिए अलग-अलग तरह से प्रयास करने शुरू किए, तो दोस्त उनका मजाक उड़ाते थे। कहते थे- जंगल में अपना करियर खराब कर रहे हो। किसी दूसरी जगह ट्रांसफर करवा लो, चैन की जिंदगी जिओगे। आज यदि मैंने इस काम को छोड़ दिया होता, तो बाकी टीचर्स की तरह मैं भी उस भीड़ में शामिल होता। मेरी कोई पहचान नहीं होती।

नीरज एजुकेशन के अलावा इन गांवों के लोगों की अलग-अलग तरीके से मदद भी करते हैं। नीरज को दो वाकये याद आ रहे हैं। वो कहते हैं, ‘कुछ साल पहले ही एक परिवार के माता-पिता, दोनों की लाश जंगल में मिली थी। उस परिवार में एकमात्र लड़की बच गई थी, जिसकी शादी मैंने कुछ लोगों के सहयोग से करवाई। इसी तरह से कोरोना के दौरान एक घर से दो बच्चों की लाश मिली थी। दरअसल, इन लोगों के लिए आज भी हॉस्पिटल, बिजली, पानी मयस्सर नहीं है।’

इस इलाके में कई-कई किलोमीटर पर एक हैंडपंप है, जिससे लोग पानी भरते हैं।
इस इलाके में कई-कई किलोमीटर पर एक हैंडपंप है, जिससे लोग पानी भरते हैं।

बातचीत के दौरान ही एक हैंडपंप दिखाई दे रहा है, जहां कुछ महिलाएं डिब्बों में पानी भर रही हैं। इन महिलाओं की आवाज में दर्द सुनाई दे रहा है। वो कह रही हैं, 'पूरे देश में सरकार ने नल लगवा दिए, हमारे तो गांव में भी पानी नहीं। अभी तो मार्च का महीना है…। मई-जून आते-आते तो पानी के लाले पड़ जाएंगे। गरीबन के कौन ही सुने… हमारी कीमत सिर्फ एक वोट तक है।'

चलते-चलते नीरज कहते हैं, ‘ यह अवॉर्ड मुझे इन बच्चों की वजह से ही मिला है। यदि मैं दूसरे स्कूल में होता, तो ये सम्मान नहीं मिलता। इन सारी परिस्थितियों के बीच अब ये मेरा डेली रूटीन हो चुका है। मैं चाहता हूं कि बाकी की बची हुई नौकरी भी यहीं पर करूं।'

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