पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पैदा हुआ, जब ढाई साल का था तो परिवार के साथ भारत लौटना पड़ा। उस वक्त हिंदुस्तान को आजाद हुए महज 6 साल हुए थे। पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा स्थित शरणार्थी कैंप में कई सालों तक रहा।
भुखमरी ऐसी कि कुत्ते के मुंह से रोटी छीनकर खाई। गरीबी की वजह से मां दूसरों के घरों में बर्तन मांजने जाती, पापा मजदूरी करते और मैं चाय की दुकान पर कप-प्लेट धोता फिर भी पेट नहीं भरता। जादवपुर रेलवे स्टेशन पर गमछा (अंगोछा) बिछाकर 8 साल तक सोया, रिक्शा चलाकर पेट भरा।
24 साल की उम्र तक लिखना पढ़ना नहीं जानता था। नक्सली होने के जुर्म में करीब दो साल जेल में रहा, तब अक्षरों का पता चला, बाद में किताब पढ़ने की आदत ने लेखक बना दिया और फिर जनता ने विधायक...
मैं मनोरंजन ब्यापारी, पश्चिम बंगाल के बालागढ़ विधानसभा का विधायक हूं।
2021 में हुए बंगाल विधानसभा चुनाव में एक रिक्शा चलाने वाले को जनता ने सड़क से विधानसभा तक पहुंचा दिया।
1953 में हमलोग पूर्वी पाकिस्तान के बरीशाल से पश्चिम बंगाल आए थे। हम दलित और दरिद्र दोनों थे, लिहाजा जिस शरणार्थी कैंप में रखा गया वहां भेदभाव का शिकार होना पड़ा।
जो सवर्ण जाति के लोग थे, उन्हें बेहतर व्यवस्था दी गई, जबकि हम दलितों को इस कदर शरणार्थी कैंप में रखा गया, जैसे बोरी में आलू। जब खाना परोसा जाता, तो थाली में ऊपर से खाना डाला जाता। थाली से ज्यादा खाना शरीर पर गिर जाता।
कुछ दिनों बाद हमें दंडकारण्य जाने का आदेश दिया गया, लेकिन पिता डरे हुए थे। उन्होंने जाने से मना कर दिया। हमलोग शरणार्थी कैंप में ही रहने लगे। दंडकारण्य का रामायण में भी वर्णन मिलता है। दरअसल, दंडकारण्य एक घना जंगल है, जो छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के हिस्से आता है। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक 320 किलोमीटर और पूर्व से पश्चिम तक 480 किलोमीटर है।
कैंप में अन्न के ऐसे लाले पड़े कि अपनी आंखों के सामने भूख से बहन को मरते देखा। जिस कैंप में हम लोगों को रखा गया था, वहां बहुत घटिया खाना मिलता था। हर दिन किसी न किसी की मौत हो ही जाती थी, सबसे ज्यादा बच्चों की। एक तरफ गाय-भैंस बांधे होते, एक तरफ हमलोग रहते। बदबू से सांस लेना भी मुश्किल था।
कैंप से सटा एक तालाब था, जहां मृतकों का अंतिम संस्कार किया जाता था। मौतें इतनी हो रही थी कि कभी चिता की आग ठंडी नहीं होती थी।
एक रोज की बात है। मेरी भी सांसे चलनी बंद हो गईं, सभी ने मान लिया कि मेरी मौत हो गई है। रात ज्यादा हो चुकी थी, इसलिए अगले दिन सुबह दफनाने की तैयारी की जा रही थी। अचानक मेरी सांसें दोबारा चलने लगीं।
उसके बाद पापा ने कहा कि अब हमलोग यहां नहीं रहेंगे। कुछ महीने बाद सरकार ने हमलोगों को छत्तीसगढ़ में जमीन आवंटित की। जमीन भी बंजर और पथरीली, जहां न पानी था न फसल के उपजने की गुंजाइश। यह 1970-80 की बात है।
हम लोग बस्तर में रहने लगे। कुछ साल बाद पापा को गंभीर बीमारी हो गई, सही इलाज न मिलने की वजह से उनकी मौत हो गई। घर में कोई कमाने वाला नहीं, वहां दिहाड़ी भी नहीं मिलती थी। इसलिए 22 साल की उम्र में ही घर से निकल गया। असम के दार्जिलिंग और गुवाहाटी में कुछ साल तक मजदूरी की, फिर पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में।
पढ़ा-लिखा था नहीं, तो काम भी सामान ढोने का ही मिलता था। पीठ पर एक-एक क्विंटल की बोरी रखकर ट्रक पर लादनी होती थी, पीठ अकड़ जाती थी। कुछ महीनों के लिए UP में मजदूरी करने गया, फिर कोलकाता लौट आया।
यहां रहने के लिए कोई घर नहीं था, तो फुटपाथ पर कई साल तक सोया, फिर जादवपुर रेलवे स्टेशन पर गमछा बिछाकर 8 साल तक बिना कंबल-चादर के सोता था। कई बार कुत्ते के मुंह की रोटी छीनकर भी खानी पड़ती थी।
इसी दौरान बंगाल में नक्सल आंदोलन तेज पकड़ रहा था। मेरा भी झुकाव इसकी तरफ होने लगा, आंदोलन से जुड़ गया। नक्सल से संबंध रखने के जुर्म में मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, 26 महीने जेल में रहा। उस वक्त मेरी उम्र तकरीबन 26 साल थी।
जेल के जिस बैरक में मुझे रखा गया था, उसी में एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी था। जेल में रहने-खाने, घूमने-फिरने को मिलता था। मैं सोचता था, मेरे लिए तो बाहर की दुनिया से अच्छा जेल की दुनिया ही है।
उस व्यक्ति ने एक दिन मुझसे कहा, पढ़ना-लिखना जानते हो। मैंने कहा, नहीं अनपढ़ हूं। हस्ताक्षर भी नहीं करने आता।
उस व्यक्ति ने मुझे सलाह दी, कहा- देखो, यदि अनपढ़ ही रहोगे तो जेल में भी भारी-भरकम काम ही करना पड़ेगा। सफाई करना, खाना बनाना, सामान ढोना…।
पढ़े-लिख लोगे, तो आसान काम करने के लिए मिलेगा। ये बात मेरे दिमाग में बैठ गई, मैंने कहा- तो जेल में कैसे पढ़ूं?
उस व्यक्ति का भी बैरक में अकेले बैठे-बैठे मन नहीं लगता था। उसने एक दिन कैंपस से दातून तोड़कर दिया और कहा- ये तुम्हारा पेंसिल है। जेल की दीवारें, आंगन स्लेट और मैं जिंदा किताब। मैं पढ़ने लगा, जेल से निकलते-निकलते मुझे पढ़ने की आदत लग गई।
मुझे पढ़ने और लिखने- दोनों में मजा आने लगा। हालांकि, मुझे पता नहीं था कि क्या पढ़ना है। जो मिल जाता, उसे पढ़ लेता। दर्जनों किताबें पढ़ने लगा, कुछ साल बाद लिखने भी लगा।
लेकिन लिखाई-पढ़ाई के साथ-साथ पेट पालने के लिए फिर से एक जद्दोजहद शुरू हुई। जादवपुर रेलवे स्टेशन के बाहर रिक्शा चलाने लगा। रिक्शा इसलिए भी चलाना शुरू किया, क्योंकि इससे मुझे पढ़ने के लिए टाइम मिल जाता था।
एक रोज एक महिला रिक्शा में बैठी। वो बांग्ला की प्रसिद्ध लेखिका, एक्टिविस्ट महाश्वेता देवी थीं, लेकिन मैं उन्हें नहीं जानता था। मैंने एक साहित्य पढ़ा था, जिसमें मुझे जिजीविषा शब्द दिखा, लेकिन मतलब पता नहीं था। जब जिजीविषा (जीने की इच्छा) का अर्थ उस महिला से पूछा, तो वो चौंक गईं।
उनके मन में आया- ये रिक्शा वाला इतना कठिन शब्द कैसे पूछ सकता है। धीरे-धीरे बातचीत में जब मेरी परतें खुलीं, तब महाश्वेता ने अपनी पत्रिका ‘बार्तिका’ में अब तक के जीवन और संघर्ष की कहानी लिखने के लिए कहा।
महाश्वेता देवी से हुई मुलाकात ने मुझे साहित्य की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया। बांग्ला भाषा में दर्जनों किताबें लिखने लगा, लेकिन साहित्य में उस वक्त भी उतने पैसे नहीं मिलते थे। मैंने 27 से अधिक किताबें लिखीं, जिनमें से कुछ का बाद में इंग्लिश अनुवाद भी हुआ।
1997 की बात है। जब शरीर धीरे-धीरे रिक्शा चलाकर थक चुका था, तो मैं खाना बनाने का काम ढूंढने लगा। दलित होने की वजह से कोई रसोइया का काम भी नहीं दे रहा था। उनका कहना था कि दलित के हाथ से बना खाना कौन खाएगा।
दक्षिण कोलकाता के एक मूक बधिर स्कूल में 150 छात्रों का खाना बनाने का काम था, ज्यादा काम के चलते मुझे रख लिया गया। 2014-15 तक मैंने यहां काम किया।
बढ़ती उम्र, घुटनों में दर्द और ऑपरेशन की वजह से खड़े होकर खाना पकाना मुश्किल हो चला था। एक दिन मैंने लेटर लिखकर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से दूसरा काम मांगा। उन्होंने लाइब्रेरी में ट्रांसफर कर दिया।
इसी दौरान साहित्य में योगदान को देख बंगाल सरकार ने मुझे दलित साहित्य अकादमी का चेयरमैन बना दिया। साहित्य को लेकर बंगाल के कई जिलों में जाता था, दलितों से मिलता था। कह सकता हूं कि लोगों के बीच अच्छी पकड़ हो गई।
2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव होने वाला था, एक दिन ममता दीदी का फोन आया। उन्होंने मुझे बालागढ़ क्षेत्र से विधायकी लड़ने का टिकट दे दिया।
मुझे याद है, ममता दीदी ने फोन करके सिर्फ इतना ही कहा था- मनोरंजन मैंने तुम्हें टिकट दिया है। मैं अवाक रह गया। लेकिन लगा कि जब जन्म लिया हूं तो कुछ करके ही मरूं।
बालागढ़ विधानसभा क्षेत्र में दलित तबके के वोटर सबसे ज्यादा हैं। मैंने रिक्शा चलाकर लोगों के बीच जाकर वोट मांगे और जनता ने मुझे सड़क से उठाकर विधानसभा तक पहुंचा दिया।
ये सारी बातें तृणमूल कांग्रेस (TMC) विधायक मनोरंजन ब्यापारी ने भास्कर के नीरज झा से शेयर की है।
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