पॉजिटिव स्टोरीएक किलो मशरूम की कीमत 2.5 लाख रुपए:कैंसर से भाई की मौत; लैब में मशरूम उगाना शुरू किया

राजकोट13 दिन पहलेलेखक: नीरज झा
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'2008-09 का साल था। बड़ा भाई दुबई की एक मल्टीनेशनल पेट्रोलियम कंपनी में इंजीनियर था। मैं उससे 3 साल छोटा था। हम दोनों के बीच बहुत लगाव था। सारी चीजें बेहतर तरीके से चल रही थीं। तभी पता चला कि उसे माउथ कैंसर हो गया है। दुबई में भी इलाज करवाया, पर कोई फायदा नहीं पहुंचा।

थक-हारकर इंडिया बुलवाना पड़ा। मिडिल क्लास फैमिली थी, जितनी जमा-पूंजी थी, सब इलाज में लग गया। शायद ही कोई जगह होगी जहां हम इलाज के लिए नहीं गए। लाख जतन के बावजूद भी उसे नहीं बचा पाए। सब कुछ बिक गया। सारी चीजें शून्य हो गईं।

समझ में नहीं आ रहा था कि कहां से, कैसे फिर से घर-परिवार को शुरू करूं। कुछ साल तक नौकरी की, फिर अपना बिजनेस शुरू किया। 2020 में कोरोना महामारी के दौरान लैब में मशरूम तैयार करने के बारे में पता चला। मैं केमिस्ट्री का स्टूडेंट था। करीब एक साल की ट्रेनिंग के बाद लैब में मशरूम तैयार करना शुरू किया।

ये काफी कॉस्टली होता है। एक किलोग्राम मशरूम की कीमत 2.5 लाख रुपए होती है। दरअसल, इसका प्रोडक्शन बहुत कम हो पाता है। हालांकि, 8 महीने में ही करीब 15 लाख रुपए के मशरूम सेल कर चुका हूं।'

गुजरात का राजकोट शहर। दोपहर के करीब 2 बज रहे हैं। चिलचिलाती धूप के बीच एक फ्लैट के कमरे में टेम्प्रेचर 18-20 डिग्री है। दरअसल, यह लैब है जहां कॉर्डिसेप्स मिलिट्री यानी कीड़ा जड़ी मशरूम तैयार किया जाता है। हितेश पटेल एक कांच की बॉटल में फंगस जैसा कुछ दिखाते हुए अपनी कहानी बता रहे हैं।

ये हितेश पटेल हैं, जो लैब में तैयार मशरूम को दिखा रहे हैं।
ये हितेश पटेल हैं, जो लैब में तैयार मशरूम को दिखा रहे हैं।

हितेश कहते हैं, ‘2022 में मैंने इस काम की शुरुआत की थी। केमिस्ट्री का स्टूडेंट रहा हूं। लेबोरेटरी, टेस्टिंग… इन सारी चीजों में दिलचस्पी रही है। जब 2008 में मैंने अपने भाई को खो दिया, तो लगा कि सब कुछ खत्म हो गया। कई महीनों तक डिप्रेशन में चला गया।

इसी दौरान मैंने भाई के इलाज के लिए कई सारे आयुर्वेदिक दवाओं का उपयोग किया था। उनके बारे में स्टडी की थी। यहां तक कि दलाई लामा के एक सेंटर से भी मैं भाई के लिए आयुर्वेदिक दवा लाया था, लेकिन…। काश! उन्हें बचा पाता।’

ये हितेश के बड़े भाई संजय पटेल हैं, जिनकी कैंसर से मौत हो गई।
ये हितेश के बड़े भाई संजय पटेल हैं, जिनकी कैंसर से मौत हो गई।

अपने भाई के बारे में कहते-कहते हितेश सहम जाते हैं।

कुछ देर रुकने के बाद वो बताते हैं, ‘हम लोग जूनागढ़ जिले से आते हैं। ग्रेजुएशन करने के बाद 2002 में जॉब के लिए राजकोट आया था। 2015 तक एक प्राइवेट कंपनी में जॉब की। इस दौरान हर वक्त यही लगता था कि अपना क्या शुरू कर सकता हूं। फिर मैंने पाउडर कोटिंग का एक बिजनेस स्टार्ट किया।

भाई की मौत के बाद घर तो पहले ही टूट चुका था। 2020 में जब कोरोना महामारी की वजह से सब कुछ बंद हो गया, तब लगा कि अब तो कुछ करना पड़ेगा। इंटरनेट खंगालना शुरू किया, तो मशरूम के बारे में पता चला।

कैंसर से भाई की मौत के बाद से ही लग रहा था कि क्या ऐसा कोई सुपर फूड नहीं है, जो एंटी कैंसर हो। जब स्टडी करना शुरू किया, तो कॉर्डिसेप्स मिलिट्री मशरूम के बारे में पता चला। यह कैंसर, किडनी समेत दर्जनों गंभीर बीमारी में बेहद कारगर साबित हुआ है।’

हितेश कहते हैं, ‘मैंने तो केमिस्ट्री से ग्रेजुएशन कर रखा था, लेकिन जब मशरूम के प्रोडक्शन पर वर्क करना शुरू किया तो सबसे बड़ा चैलेंज यही था कि मुझे इसके बारे में कुछ पता ही नहीं है। कॉर्डिसेप्स मिलिट्री मशरूम के प्रोडक्शन के लिए ठंडा एनवायरनमेंट चाहिए, जहां टेंपरेचर 18-20 डिग्री हो।

मुझे याद है, मशरूम के प्रोडक्शन की बारीकियों को सीखने के लिए इंटरनेट पर एक कॉन्टैक्ट नंबर मिला था। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं पूरे प्रोसेस को सीखा दूंगा। इसके बदले में एक फिक्स चार्ज देना होगा, लेकिन पैसा देने के बाद जब मैंने उससे कॉन्टैक्ट किया, तो फोन बंद आ रहा था।

काफी खोजबीन के बाद हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में स्थित मशरूम इंस्टीट्यूट के बारे में पता चला। यहां जाकर मैंने कॉर्डिसेप्स मिलिट्री मशरूम के प्रोडक्शन की ट्रेनिंग ली। बाद में ‘मशरूम गर्ल’ के नाम से मशहूर दिव्या रावत के बारे में पता चला।

दरअसल, इंडिया में पहली बार कॉर्डिसेप्स मिलिट्री मशरूम को लाने वाली यही महिला है। दरअसल, ये मशरूम पहले सिर्फ हिमालय में उगता था। इससे इसकी क्वांटिटी न के बराबर होती थी। फिर हिमाचल में इसका प्रोडक्शन लैब में होने लगा।’

हितेश कहते हैं, ‘जब मैंने लैब में मशरूम तैयार करने का पूरा प्लान सेटअप कर लिया, तो सबसे बड़ी चुनौती पैसों को लेकर थी। जिस 10 X 12 के कमरे में बने लैब में हम लोग अभी खड़े थे। उसे तैयार करने में तकरीबन 7 लाख रुपए लग गए।

भाई की मौत के बाद से ही फाइनेंशियल कंडीशन बहुत खराब थी। जब 2015 में अपना बिजनेस शुरू किया, तो उससे थोड़ी-बहुत सेविंग्स ही हो पाई। फिर भी इतने पैसे नहीं थे कि अकेले दम पर लैब सेटअप कर पाता। बैंक से लोन लिया, कुछ पैसे रिश्तेदारों से कर्ज लेने पड़े। तब जाकर ये पूरा सिस्टम डेवलप हो पाया।'

हितेश एक टेबल पर रखे कांच की बॉटल में बंद सूखे मशरूम को दिखा रहे हैं। कुछ छोटे-छोटे पैकेट्स भी हैं। हितेश कहते हैं, ‘एक तो ये प्रोडक्ट इतना महंगा है कि कोई भी व्यक्ति आसानी से नहीं खरीदना चाहता है। बड़े-बड़े लोग ही इसे खरीद पाते हैं।

जब हिमालय में हो रहे कॉर्डिसेप्स मिलिट्री मशरूम के प्रोडक्शन पर हम निर्भर थे, उस वक्त इसकी कीमत और ज्यादा थी। लैब में मशरूम तैयार होने के बाद से मार्केट कॉस्ट में थोड़ी-बहुत कमी आई, फिर भी कीमत लाखों में है, क्योंकि इसका प्रोडक्शन बहुत कम हो पाता है।'

हितेश मुझे इसके मेकिंग प्रोसेस को विस्तार में बताते हैं। आप भी दो ग्राफिक्स के जरिए इसे समझिए...

हितेश कहते हैं, ‘जब मैंने लैब में मशरूम तैयार करना शुरू किया, तो शुरुआत में दो-तीन बार तो खुद की गलतियों की वजह से पूरा मशरूम ही खराब हो गया। फिर धीरे-धीरे स्किल प्रोडक्शन अच्छा होने लगा। मुझे याद है, 2022 का आखिरी महीना था। मैं कुछ लोगों के पास जाकर इसके बारे में बताता, तो वे चौंक जाते।

लोग कहते- ये कौन-सा मशरूम है कि लाखों रुपए में बिकता है। इसके खाने से क्या फायदा होगा। कहीं ये नॉन-वेज तो नहीं। दरअसल, गुजरात के लोगों को लगता था कि मशरूम मतलब नॉन-वेज।

जब मैंने इसके फायदे के बारे में बताना शुरू किया कि इसके इस्तेमाल से कैंसर, किडनी समेत दर्जनों गंभीर बीमारी से बचा जा सकता है। जिस तरह से हम लोग कीटनाशक छिड़काव वाले अनाज, फल-सब्जियां खा रहे हैं, आने वाले वक्त में इसकी डिमांड बहुत बढ़ेगी। तब लोग खरीदने लगे।’

हितेश कहते हैं, ‘इस मशरूम का प्रोडक्शन इतना कम हो पाता है कि इसकी मार्केट कॉस्ट 3 लाख रुपए प्रति किलो तक है। इसलिए यह ग्राम में ही केसर की तरह बिकता है। एक कांच की बॉटल में से एक से दो ग्राम ही मशरूम का प्रोडक्शन हो पाता है। अभी 8 महीने में ही 15 लाख रुपए का मशरूम सेल हो चुका।'

अगले रविवार, 28 मई को पॉजिटिव स्टोरी में पढ़ें-
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