संडे जज्बातरातभर कानों में गूंजता है राम नाम सत्य है:बच्चों का कफन काटते कलेजा कांप जाता, हमारे घर कोई बेटी ब्याहना नहीं चाहता

7 महीने पहलेलेखक: नीरज पांडे
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दिन-रात कानों में राम नाम सत्य गूंजता रहता है। सोते-जागते बस आखों में लाशें ही दिखती हैं। कई बार पत्नी रात में उठकर रोने लगती है, चीखने लगती है, सहम जाती है। लोग बच्चों की लाशें लेकर आते हैं, उनका कफन काटते वक्त कलेजा कांप जाता है।

लगता है सवा मीटर का कपड़ा कलेजे पर सवा मन का पत्थर रखकर काट रहे हैं, पर क्या करें, मुर्दों से ही अपना घर चलता है। दादा-बाबा भी अंतिम संस्कार का सामान बेचते थे और मेरी भी रोजी-रोटी इसी से चलती है।

चलिए अब आपको अपनी कहानी बताता हूं।

ये मणिकर्णिका घाट है। इसकी खासियत ही है कि यहां 24 घंटे लाशों से धुंआ उठता रहता है।
ये मणिकर्णिका घाट है। इसकी खासियत ही है कि यहां 24 घंटे लाशों से धुंआ उठता रहता है।

मेरा नाम नीरज पांडे है। बनारस के मणिकर्णिका घाट की संकरी गलियों में पैदा हुआ। यहीं पर मैंने होश संभाला और पला-बढ़ा। घर के दरवाजे और खिड़कियां एकदम घाट के सामने ही खुलते हैं। बचपन से ही हर घंटे लाशें गुजरते देखी है। त्योहारों के दिन बाकी बच्चे उत्सव मनाते थे और हमारी होली-दिवाली भी घाट पर ही मनती।

हम बाकी बच्चों की तरह न कहीं घूमने जा पाए, न पिकनिक मना पाए, क्योंकि पापा को कभी यहां से हटने की फुर्सत ही नहीं मिली। 10 साल का होते-होते मेरे अंदर से लाशों को लेकर सारा डर खत्म हो गया।

दूसरे लोग बच्चों को भजन सुनाते हैं, राम-राम बोलना सिखाते हैं और एक हम हैं, जो राम नाम सत्य है सुनकर बड़े हुए। बाकी लोगों से आप राम नाम सत्य है, इस शब्द का जिक्र भी कर दीजिए, तो लोग असहज हो जाते हैं, लेकिन हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब आदत हो गई है।

पापा बताते हैं कि तुम्हारी मां शादी बाद यहां आई थी तो उन्हें अजीब लगता था, डर जाती थीं। फिर मेरी शादी हुई, तो पत्नी के साथ भी ऐसा ही हुआ।

शुरू के 15 दिन तो वह सोई ही नहीं। अब भी वह राम नाम सत्य है, सुनती है तो उसकी नींद खुल जाती है और रोने लगती है, पर करें तो करें क्या। मणिकर्णिका घाट पर तीन पीढ़ियों से हमारी दुकान है। मेरे दादा बनारसी पांडे जी ने दुकान खोली थी।

बचपन में ही मैं पापा के साथ इस दुकान पर बैठने लगा था। 15 साल का हुआ तो दुकान की जिम्मेदारी संभालने लगा, सामान बेचने लगा। शुरू-शुरू में जरूर लगता था कि मैं क्या कर रहा हूं, ये भी कोई धंधा है, लेकिन धीरे-धीरे आदत हो गई।

करीब 65 साल से हमारी दुकान यहां है। इस घाट की सबसे पुरानी दुकान हमारी ही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि बहुत हो गया, कुछ और करना चाहिए, लेकिन अपने पास कोई ऑप्शन भी तो नहीं है।
करीब 65 साल से हमारी दुकान यहां है। इस घाट की सबसे पुरानी दुकान हमारी ही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि बहुत हो गया, कुछ और करना चाहिए, लेकिन अपने पास कोई ऑप्शन भी तो नहीं है।

कुछ समय के लिए इसी दुकान के सामने एक कपड़े की दुकान भी खोली थी। मैं कपड़े की दुकान पर बैठता था और पापा इस दुकान पर। मेरी शादी उसी दुकान की वजह से हुई थी कि लड़का पैंट-शर्ट की दुकान करता है न कि कफन की, लेकिन काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनने के बाद हमारी दुकान हटा दी गई। इसके बाद मैं फिर से अंतिम संस्कार का सामान बेचने लगा।

अब तो ग्राहक भी कम हो गए हैं। ज्यादातर ग्राहक अपने घर से या लोकल मार्केट से सामान लेकर आते हैं। दूसरी बात ये कि पहले जब कॉरिडोर था, तो वहां कई तरह की दुकानें थीं। लिहाजा भीड़ ज्यादा होती थी।

मसलन कोई डेथ सर्टिफिकेट बनवाने आता, तो हमारी दुकान पर भी कुछ सामान लेने के लिए आ जाता था। अब तो वो भी बंद हो गया।

पहले यहां महज 4 दुकानें हुआ करती थीं और आज 40 दुकानें हैं। यहां तक कि बाजार में बनारसी साड़ी बेचने वालों ने भी कफन रख लिए हैं। इस वजह से बिक्री कम हो गई। सच पूछिए तो इस दुकान से सिर्फ नाश्ते का खर्च निकलता है।

पहले की तुलना में डेड बॉडी आनी भी कम हुई है। लोग दूर-दूर से यहां अंतिम संस्कार के लिए डेड बॉडी लाते थे। कई लोग तो मरने ही बनारस आते थे कि मोक्ष मिलेगा।
पहले की तुलना में डेड बॉडी आनी भी कम हुई है। लोग दूर-दूर से यहां अंतिम संस्कार के लिए डेड बॉडी लाते थे। कई लोग तो मरने ही बनारस आते थे कि मोक्ष मिलेगा।

जिसके पास गंगा घाट पर डेड बॉडी लाने के पैसे हैं, वही दूसरी जगहों से यहां डेड बॉडी लाता है। कोविड के बाद लोगों की हालत वैसे ही खराब हो गई है। लोग अपने शहरों और गांवों में ही संस्कार कर लेते हैं। दस साल पहले एक दिन में 200 तक डेड बॉडी घर के सामने से गुजर जाती थीं। अब तो 100 भी मुश्किल से गुजरती हैं।

करीब 65 साल हो गए हैं इस दुकान को। तब से लेकर आज तक कोई फर्क नहीं आया। अंतिम संस्कार में जो चीजें पहले लगती थीं, आज भी वही लगती हैं। कफन, रस्सी, नाला, इत्र, पितांबरी, बांस की चटाई, सीढ़ी, अगरबत्ती, गुलाल, धान का लावा, सजाने का सामान।

इसके अलावा लकड़ी घी, सांकला, देवदार, गूगल, मटका, काला तिल, कपूर, जौ का आटा और शहद। बस दाम में फर्क आ गया है। जो सामान दस साल पहले 500 रुपए का आता था, वो आज 900 रुपए का आता है।

कुल मिलाकर 10 हजार रुपए में एक मुर्दे को जलाने का सामान मिल जाता है। अब कोई दस किलो देसी घी डलवाता है, तो कोई चंदन की लकड़ी से ही अंतिम संस्कार करवाता है। ऐसे में खर्चा थोड़ा बढ़ जाता है।

ये लाश जलाने की लकड़ियां रखी हैं। हम लोग पहले ही ढेर सारी लकड़ियां काट लेते हैं और उनका स्टॉक भी रखते हैं। कोरोना में तो लकड़ी बची ही नहीं थी।
ये लाश जलाने की लकड़ियां रखी हैं। हम लोग पहले ही ढेर सारी लकड़ियां काट लेते हैं और उनका स्टॉक भी रखते हैं। कोरोना में तो लकड़ी बची ही नहीं थी।

आमतौर पर लोग लाशों के पास नहीं जाते हैं, श्मशान नहीं आते हैं, कहीं से लाश निकल रही हो, तो साइड हो जाते हैं। अगर श्मशान आए, तो लौटकर फौरन नहाना-धोना करते हैं, लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं करते हैं। हमारा तो रोज लाशों से सामना होता है। कितनी बार नहाएंगे।

मुझे किसी की लाश से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। मेरे लिए उसके जलने का सामान बिजनेस है, लेकिन जब लोग कंधों पर बच्चे की लाश उठाए कफन कटवाने आते हैं, तो हाथ कांप जाता है। कफन नहीं काट पाता हूं। बहुत तकलीफ से गुजरता हूं।

बच्चे के कफन में सवा मीटर कपड़ा लगता है। यकीन जानिए वो सवा मीटर कपड़ा मैं अपने दिल पर सौ मन का भार रखकर काटता हूं। मैं बच्चे के कफन से कमाई नहीं करता। उसकी लाश देखने के बाद घंटों सोचता हूं कि इस बच्चे ने तो दुनिया ही नहीं देखी।

मुझे एक वाकया याद आ रहा है। रात का वक्त था। एक औरत मेरे पास आई, वो विधवा थी। उसके 24 साल के बेटे की मौत हो गई थी। उसे साधारण बुखार था। वह उसे अस्पताल ले गई, जहां इलाज में 70 हजार रुपए खर्च हो गए, लेकिन उसकी जान नहीं बची। वो औरत ऑटो में बेटे की लाश लेकर आई। उसने बताया कि उसके पास पैसे नहीं है।

जब मैंने उसका दर्द सुना तो गला रुंध गया। मैंने उस औरत को अंतिम संस्कार के सभी सामान फ्री में दिए। कहने का मतलब है कि हमारे लिए रोजी-रोटी का सवाल जरूर है ये, लेकिन हम लोगों के जज्बातों का भी ख्याल रखते हैं।

इतने सालों में अंतिम संस्कार के सामान तो नहीं बदले, लेकिन उनके दाम जरूर बढ़ गए हैं। इस वजह से कई लोग अंतिम संस्कार के सामान खुद के शहर से यहां लाने लगे हैं।
इतने सालों में अंतिम संस्कार के सामान तो नहीं बदले, लेकिन उनके दाम जरूर बढ़ गए हैं। इस वजह से कई लोग अंतिम संस्कार के सामान खुद के शहर से यहां लाने लगे हैं।

सच पूछिए तो अब यह काम करने को मन नहीं करता। सामाजिक और आर्थिक बहुत सारी वजहें हैं इसकी। मां-बाप से कोई पूछता लड़का क्या करता है? मुर्दों का सामान बेचता है...कितना अजीब सा लगता है न सुनने में यह। सच कहूं तो कफन अब जिंदगी के आड़े आने लगा है।

एक बार की बात है। छोटे भाई के लिए कुछ लोग रिश्ता लेकर आए। उन्हें भाई पसंद भी आ गया और वे शादी के लिए तैयार भी हो गए। कुछ दिन बाद हम लोग मंगनी के लिए जाने वाले थे। एक रात पहले लड़की के पिता का फोन आया कि वे हमारे यहां शादी नहीं करेंगे।

मैंने उनसे इसकी वजह भी नहीं पूछी, क्योंकि मुझे पता था कि वे शादी क्यों नहीं कर रहे। अब किसी से झूठ तो बोल नहीं सकते हैं कि हम मुर्दे का सामान नहीं बेचते हैं। जो सच है वो है और हम इसे छुपा नहीं सकते।

हां अब अपने बच्चों की चिंता जरूर हो रही है। हम नहीं चाहते कि बच्चे भी इस धंधे में आएं, लेकिन उनके पास कोई ऑप्शन होगा, इसकी भी तो कोई गारंटी नहीं है। दादा-बाबा के जमाने की दुकान है, बंद करना भी तो मुमकिन नहीं है। इससे हमारी पहचान जुड़ी है।

पापा जब जिंदा थे, तो उन्होंने दुकान पर दूसरे सामान रखने शुरू कर दिए थे। शायद वे इस बात को तभी भांप गए थे कि आने वाले दिनों में चुनौतियां आने वाली हैं। उन्होंने माला, पितांबरी जैसी चीजें रखनी शुरू कर दी थीं। मैंने अब हैंडीक्राफ्ट का सामान रखना शुरू किया है। हालांकि दुकान बहुत छोटी है, लेकिन धीरे-धीरे सामान बढ़ा रहा हूं।

नीरज पांडे ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर की है...

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