पूरी दुनिया नए राजनीतिक समीकरण साधने में जुटी है। इस उथल-पुथल में जब भारत ज्यादा से ज्यादा गुट निरपेक्ष दिखना चाहता है…अमेरिका ने मैकमेहन लाइन का मुद्दा फिर उठा दिया है। इरादा, भारत के कंधे पर बंदूक रख चीन पर निशाना साधने का है।
109 साल पहले चीन और भारत के बीच नक्शे पर खींची गई ये लकीर नाकाम ब्रिटिश डिप्लोमेसी की वो विरासत है जिसने भारत और चीन को लगातार सीमा विवाद में उलझाए रखा है।
अब इसी तनाव का फायदा उठाने के लिए अमेरिकी संसद में दो सीनेटर्स ने एक रिजोल्यूशन पेश किया है। इस रिजोल्यूशन में अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए मैकमेहन लाइन को चीन और भारत के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया है।
यूं तो अंतरराष्ट्रीय मंच पर ये भारत के स्टैंड का खुला समर्थन दिखता है, लेकिन इस समर्थन की टाइमिंग अमेरिका की राजनीतिक मंशा पर सवाल जरूर खड़े करती है।
जानिए, क्या है मैकमेहन लाइन जिसे चीन नकारता रहा है और क्या है अमेरिकी सीनेट में पेश रिजोल्यूशन…इससे किसे फायदा और किसे है नुकसान…
सबसे पहले इतिहास की बात…जानिए क्या है मैकमेहन लाइन
ग्राफिक्स में समझिए कैसे ब्रिटेन की मौकापरस्त डिप्लोमेसी की वजह से पैदा हुआ सीमा विवाद…
1949 में चीन में बनी कम्युनिस्ट सरकार…तभी से मैकमेहन लाइन पर विवाद जारी
1947 में आजाद भारत की सरकार ने पूर्वी भूटान और भारत की सीमा से शुरू हो कर म्यांमार के ईसू राजी पास तक दौड़ रही इस मैकमेहन लाइन को भारत और तिब्बत के बीच की सीमा मान लिया।
1949 में चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की घोषणा कर दी। मार्च, 1950 में चीन की सेना ने पूर्वी तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इसके बाद 1951 में भारत ने तवांग को अपने नियंत्रण में ले लिया।
अब समझिए, चीन को मैकमेहन लाइन से क्या दिक्कत है
मैकमेहन लाइन को माना तो अरुणाचल पर दावा छोड़ना होगा
मैकमेहन लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा मान ले तो चीन को अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ना होगा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने 1950 में पूर्वी तिब्बत पर कब्जा कर लिया था और चीन अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का हिस्सा बताता है।
इसी विवाद पर 1962 में चीन ने किया था आक्रमण
चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चीन का नक्शा सौंपा जिसमें अरुणाचल प्रदेश चीन का क्षेत्र दिखाया गया था। नेहरू ने इसे मानने से इनकार कर दिया।
नेहरू के इनकार और दलाई लामा को शरण देने के कारण 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और चीनी सेना तवांग पर कब्जा कर महीने भर में ही इसे छोड़ कर वापस चली गई।
मजे कि बात ये है कि 1962 से पहले किसी चीनी नागरिक ने तवांग की धरती पर कदम नहीं रखा था।
म्यांमार के साथ इसी मैकमेहन लाइन को सीमा मान चुका है चीन
चीन ने 1960 में ही म्यांमार के हिस्से की मैकमेहन लाइन को मान्यता दे दी थी। दरअसल, मैकमेहन लाइन जिस समय खींची गई थी उस समय म्यांमार भी ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा था।
भारत की आजादी के बाद म्यांमार भी अलग राष्ट्र बना और उसका भी सीमा विवाद चीन से शुरू हो गया था। 1960 में चीन ने म्यांमार के हिस्से में मैकमेहन लाइन को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया था।
दलाई लामा मान चुके हैं मैकमेहन लाइन सही है
तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रमुख दलाई लामा 1983 से 2017 तक दलाई लामा 6 बार तवांग की यात्रा कर चुके हैं और कुल सात बार अरुणाचल प्रदेश जा चुके हैं। हर यात्रा के बाद चीन ने शोर मचाया है।
2007 में दलाई लामा ने मैकमेहन लाइन को भारत और तिब्बत की सीमा मान लिया था।
तवांग को नहीं छोड़ना चाहता चीन
अरुणाचल प्रदेश का शहर तवांग चीन के लिए खासा महत्वपूर्ण है। तवांग चू नदी के उत्तरी तट पर स्थित ये शहर मैकमेहन लाइन से मात्र 16 कि.मी. दूर है।
रणनीतिक आधार के अलावा तवांग का महत्व ये है कि ये भारत में स्थित बौद्ध मठों में सबसे बड़ा है और ल्हासा के मठ के बाद दुनिया का सबसे बड़ा मठ है।
तवांग के दक्षिण में स्थित उर्गेलिंग नामक गांव में 17वीं शताब्दी में सांग्यांग ग्यात्सो का जन्म हुआ था जो छठे दलाई लामा माने जाते हैं।
1959 को तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना से बचते हुए दलाई लामा जब भारत आए थे तो इसी तवांग मठ में शरण ली थी।
तवांग के लोग कहते हैं 108 झीलों को देख चीन ललचाता है
तवांग में 108 झीलें हैं और स्थानीय लोगों का मानना है कि चीन की इन झीलों के कारण लार टपक जाती है। ये सच है कि मैकमेहन लाइन के दक्षिण में जो भारत का क्षेत्र है वहां जमीन उपजाऊ है जबकि जितना चीन की तरफ जाएं रेगिस्तान बढ़ता जाता है।
भारत से तिब्बत के सांस्कृतिक संबंध तोड़ना चाहता है चीन
तवांग से कुछ ही दूरी पर तागसांग गोम्पा मठ है जहां 8वीं शताब्दी में भारत से बौद्ध गुरु पद्मसंभव ने यात्रा की थी। तिब्बत, भूटान और हिमालय के क्षेत्रों में मान्यता है कि बौद्ध धर्म और मठों की स्थापना की शुरुआत गुरु पद्मसंभव ने की थी।
तिब्बत और भारत के बीच का ये अकाट्य सांस्कृतिक संबंध है। चीन की मंशा इस संबंध को हमेशा के लिए खत्म कर देना भी है क्योंकि चीन की सरकार लोकतंत्र और धर्म दोनों को खुद के लिए खतरा मानती है और अरुणाचल प्रदेश में दोनों एक साथ मौजूद हैं।
अब देखिए, मैकमेहन लाइन के बहाने अमेरिका क्या करना चाहता है
एक रिजोल्यूशन से दो निशाने
16 फरवरी, 2023 को अमेरिका के ऑरेगन से डेमोक्रेट सीनेटर जेफ मर्क्ले और टेनेसी राज्य से रिपब्लिकन सीनेटर बिल हैगर्टी ने सीनेट में रिजोल्यूशन पेश किया।
इस रिजोल्यूशन में अरुणाचल प्रदेश पर अमेरिका के पुराने स्टैंड को बरकरार रखते हुए साथ में ये भी कहा गया कि अमेरिका भारत और पूर्वी भूटान सीमा से शुरू होकर पश्चिमी म्यांमार तक जाने वाली 890 किमी लंबी मैकमेहन लाइन को भारत और चीन को विभाजित करने वाली अंतरराष्ट्रीय सीमा मानता है।
इस रिजोल्यूशन के जरिये अमेरिका, भारत के साथ अपनी दोस्ती और बेहतर रिश्तों को दिखाना चाहता है। साथ ही इस रिजोल्यूशन के जरिये वो चीन को भी परेशान करना चाहता है।
देखिए, क्या-क्या कहता है ये रिजोल्यूशन…
अमेरिका पहले ही भारत की मदद के लिए पास कर चुका है एक्ट
पिछले साल 9 दिसंबर की सुबह चीनी सेना के करीब 400 जवान भारत की सीमा को लांघते हुए तवांग तक पहुंच गए। भारत की सेना के साथ उनकी झड़प हुई जिसमें दोनों तरफ के जवान घायल हुए।
इस घटना के दो हफ्ते बाद 23 दिसंबर, 2022 को अमेरिकी संसद ने नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन एक्ट को पास कर कानून बना दिया और इसमें सेक्शन 1260 को जोड़ दिया गया।
इसके मुताबिक भारत को अमेरिका खुफिया तंत्र के साथ-साथ ड्रोन, चौथे और पांचवें जेनरेशन के एयरक्राफ्ट सहित साइबर तथा नई और क्रिटिकल टेक्नोलॉजी में मदद देगा।
इस कानून के अनुसार इस साझेदारी को चीन और रूस के साथ रणनीतिक तौर पर मुकाबला करने के लिए किया जाएगा।
दो महीने पूरे होने से पहले ही 16 फरवरी, 2023 को अमेरिकी सीनेट में नया रेजोल्यूशन बना कर फॉरेन कमेटी को भेज दिया।
अमेरिका के रवैये और चीन के चिढ़ने के दो कारण
1. अमेरिका अब रूस को नहीं चीन को प्रतिद्वंद्वी मानता है
जियो स्ट्रैटेजी के विशेषज्ञ टिम मार्शल अपनी किताब ‘प्रिजनर्स ऑफ ज्योग्राफी’ में लिखते हैं कि अमेरिका चीन के अलावा किसी और देश को चुनौती नहीं मानता।
अमेरिका अब रूस को यूरोप की लोकल समस्या मानता है। अमेरिका अपने लिए एक मात्र चुनौती चीन को मानता है जो, मार्शल के अनुसार, 2050 तक अमेरिका के लिए खतरा बन सकता है।
इसीलिए चीन के प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका ने अभी से ही समीकरण बनाने शुरू कर दिए हैं। अमेरिका ये भी जानता है कि भारत को मजबूत बनाने की कवायद चीन में असुरक्षा की भावना पैदा करेगी। भारत की मदद चीन पर अप्रत्यक्ष आक्रमण है।
2. चीन के लिए अरुणाचल में लोकतंत्र घरेलू समस्या बढ़ा सकता है
चीन की अर्थव्यवस्था तब तक ही बढ़ती रह सकती है जब तक विश्व उसका ग्राहक बने रहना कबूल करता है।
ग्राहक घटे तो चीन में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ेगी और आंतरिक असंतोष बढ़ेगा और चीन की जनता तानाशाही के विरोध में खड़े होने के लिए मजबूर हो जाएगी।
अरुणाचल प्रदेश में लोकतांत्रिक तौर पर हो रहे विकास के कारण तिब्बत से लेकर शिन जांग प्रांत में भी जनता का आक्रोश बढ़ेगा और लोकतंत्र की मांग मजबूत होगी।
भारत किसी का पिछलग्गू बनने को तैयार नहीं…मगर आगे दिक्कतें बढ़ेंगी
सिंगापुर यूनिवर्सिटी के ली कुआन यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के एशिया & ग्लोबलाइजेशन विभाग के डायरेक्टर और चीन मामलों के विशेषज्ञ, डॉ. कांती बाजपेयी कहते हैं चीन भारत को ताकत नहीं मानता क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 7 गुना बड़ी है।
लेकिन अगर चीन के आगे भारत तनकर अकेला खड़ा हो और अमेरिका का सपोर्ट हो तो भारत ही नहीं ताइवान पर भी आक्रमण करने से चीन कतराएगा।
मौजूदा परिस्थिति में सैन्य उपकरणों के मामले में भारत की निर्भरता रूस पर गहरी है। लेकिन अगर पश्चिम के बढ़ते बहिष्कार के कारण रूस चीन का पिछलग्गू बन जाता है तो भारत के लिए बहुत बड़ी चुनौती पैदा हो जाती है।
भारत अमेरिका समेत किसी भी देश का पिछलग्गू बनने को तैयार नहीं है। लेकिन स्वतंत्र रहने के लिए जितने सामर्थ्य की जरूरत है वो भी अभी नहीं है। राह आसान किसी के लिए भी नहीं है।
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