उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले विशाल सिंह आईआईटियन हैं। IIT खड़गपुर से एमटेक के बाद बढ़िया जॉब मिली। लाखों की सैलरी, लेकिन विशाल को यह काम रास नहीं आया। तीन साल काम करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और तय किया कि उन लोगों की जिंदगी बदलूंगा जो गरीब हैं, जिनकी माली हालत ठीक नहीं है। मिशन मुश्किलों भरा रहा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। लगातार कोशिश करते रहे। आज विशाल अपनी मेहनत के दम पर 35 हजार से ज्यादा गरीब और आदिवासियों की जिंदगी संवार रहे हैं। उनको रोजगार दे रहे हैं, उनके बच्चों में एजुकेशन की अलख जगा रहे हैं।
ग्रेजुएशन में IIT में दाखिला नहीं मिला तो गेट की तैयारी करना शुरू किया
34 साल के विशाल एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता किसान हैं। घर में खेती के सिवा कोई और आमदनी का जरिया नहीं था। इसलिए उन्हें आर्थिक परेशानियों का सामना भी करना पड़ा। विशाल का सपना था आईआईटियन बनना। 12वीं के दौरान उन्होंने दो बार कोशिश भी की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया।
विशाल कहते हैं कि जब ग्रेजुएशन में IIT नहीं मिला तो तय किया कि मास्टर्स की पढ़ाई IIT से ही करेंगे। इसलिए पहले साल से ही गेट की तैयारी करने लगा और पहले ही अटेम्प्ट में एग्जाम क्वालीफाई भी कर लिया। रैंक बढ़िया था इसलिए मुझे IIT खड़गपुर में दाखिला मिल गया। चूंकि विशाल का बैकग्राउंड खेती था और उन्होंने इंजीनियरिंग भी एग्रीकल्चर स्ट्रीम से की थी। इसलिए उन्होंने फूड प्रोसेसिंग की पढ़ाई करने का निर्णय लिया।
आदिवासियों की गरीबी देखी तो बदलाव की अलख मन में जागी
वे कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान मुझे एग्रीकल्चर की खूबियों और कमर्शियल बेनिफिट्स के बारे में जानकारी मिली। तब मुझे रियलाइज हुआ कि किसानों के लिए प्रोडक्शन बड़ा मुद्दा नहीं है। अगर किसान फूड प्रोसेसिंग का काम सीख लें तो उसे आमदनी की कमी नहीं होगी। इस सेक्टर में ग्रोथ और डेवलपमेंट बहुत है। अगर किसी चीज की कमी है तो वह है सही गाइडेंस की। पढ़ाई के दौरान वे अक्सर खड़गपुर के आसपास के ट्राइबल इलाकों में जाते रहते थे। उनकी माली हालत देखकर विशाल को अंदर से काफी तकलीफ पंहुचती थी।
2013 में पढ़ाई पूरी करने के बाद विशाल नौकरी के बजाय इन गरीबों की मदद करना चाहते थे, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति और दबाव के चलते उन्होंने शाहजहांपुर के एक राइसमिल में नौकरी जॉइन कर ली। विशाल को इस दौरान ऑफिस के बाद थोड़ा बहुत वक्त मिल जाता था। इस खाली वक्त को उन्होंने किसानों के साथ बिताने का फैसला किया। वे किसानों से मिलने लगे, उन्हें खेती की ट्रेनिंग देने लगे। इसी बीच उन्हें ओडिशा के एक कॉलेज में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर पढ़ाने का मौका मिला और 2014 में उन्होंने जॉइन भी कर लिया।
यहां उन्हें ट्राइबल बेल्ट में गरीबों के साथ काम करने का मौका मिल गया। वे कॉलेज के बाद अपना वक्त इन्हें खेती की ट्रेनिंग देने में बिताने लगे। इस दौरान उन्हें कॉलेज की तरफ से NSDC के एक प्रोजेक्ट को लेकर काम करने का मौका मिला। जिसमें उन्हें कुछ पिछड़े गांवों को स्मार्ट विलेज के रूप में तब्दील करना था। विशाल के लिए यह ऑफर टर्निंग पॉइंट रहा। उन्होंने कॉलेज से ज्यादा वक्त गांवों में बिताना शुरू किया।
आदिवासियों को इंटीग्रेटेड फार्मिंग की ट्रेनिंग देना शुरू किया
सबसे पहले विशाल ने ग्रामीणों की दिक्कतों को समझा। तालाब खुदवाए, सोलर सिस्टम लगवाए, गोबर गैस का प्लांट लगवाया और इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल पर काम करना शुरू किया। वे एक-एक आदिवासी और गरीब परिवार से मिलने लगे। उन्हें खेती के बारे में जानकारी देने के साथ ही फसल और बीज भी उपलब्ध कराए। इतना ही नहीं मार्केटिंग के लिए भी उन्होंने किसानों को प्रोत्साहित किया। फूड प्रोसेसिंग और वैल्यू एडिशन पर जोर दिया। इसका बेहतर परिणाम भी मिला। जिन आदिवासियों को मुश्किल से दो वक्त का खाना नसीब होता था, उन्हें अच्छी खासी आमदनी होने लगी।
विशाल कहते हैं कि आदिवासियों के बीच काम करने के बाद मुझे रियलाइज हुआ कि इनका दायरा बढ़ाना चाहिए। दूसरे इलाकों में भी ऐसे गरीब लोग हैं जिन्हें ऊपर उठाने और आर्थिक रूप से बेहतर बनाने की जरूरत है। इसलिए उन्होंने 2016 में अपनी नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद उन्होंने अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर ग्राम समृद्धि नाम से एक ट्रस्ट की नींव रखी। इसमें उन्होंने आहार मंडल नाम से एक प्रोजेक्ट लॉन्च किया और लोगों को अवेयर करना शुरू किया। फिर उन्हें इंटीग्रेटेड फार्मिंग से जोड़ा। जिस किसी के घर के आगे या पीछे थोड़ी सी जमीन थी, वहां उन्होंने किचन की जरूरत की लगभग सभी चीजें उगाने के मॉडल पर काम करना शुरू किया। इसमें लागत भी न के बराबर थी और सिंचाई के लिए पानी की भी कमी नहीं थी। घर की नालियों से निकलने वाले पानी को ही उन्होंने इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इससे चंद महीनों में ही अलग-अलग तरह की सब्जियां निकलने लगीं।
एक के बाद एक प्रोजेक्ट मिलते गए
विशाल कहते हैं कि तब हमारे काम और मॉडल की तारीफ हुई। अखबारों में भी खबर छपी। इसके बाद उन्हें ONGC से और 10 गांवों को स्मार्ट विलेज बनाने का प्रोजेक्ट मिल गया। उन्होंने अपने साथ कुछ और प्रोफेशनल को जोड़ा और काम करने लगे। सालभर की मेहनत के बाद ही उन्होंने 10 गांवों को आत्मनिर्भर बना दिया। इसके बाद उन्हें कोल इंडिया से भी एक प्रोजेक्ट मिला। जिसमें उन्होंने करीब 2 हजार किसानों को नए और कमर्शियल फार्मिंग के मॉडल से जोड़ा।
इस तरह विशाल का कारवां बढ़ता गया। एक के बाद एक वे अलग अलग जिलों में अपने काम को बढ़ाते गए। आज उनके साथ करीब 35 हजार किसान जुड़े हैं। ओडिशा के 6 जिलों में उनका फार्म और ट्रेनिंग सेंटर है। जहां वे किसानों को ट्रेनिंग देने के साथ ही देशभर के स्कूल- कॉलेजों के स्टूडेंट्स को फार्मिंग सिखाते हैं। करीब 200 स्टूडेंट्स को वे ट्रेंड कर चुके हैं। इसके साथ ही वे अपने संस्थान के जरिए गरीब परिवार के बच्चों को एजुकेशन दिलाने का भी काम कर रहे हैं। ओडिशा के साथ ही यूपी में भी वे बच्चों के बीच एजुकेशन की अलख जगा रहे हैं। 33 लोग उनके साथ काम करते हैं। जबकि 400 से ज्यादा वॉलिंटियर्स उनके साथ जुड़े हैं।
कोई खेती के लिए तैयार ही नहीं होता था
विशाल का यह सफर इतना आसान नहीं रहा है। वे जिन आदिवासी इलाकों में जाते थे वहां कोई उनकी बात सुनने या समझने के लिए आसानी से राजी ही नहीं होता था। कम पढ़े-लिखे होने के चलते उन्हें समझाना मुश्किल तो था ही, उससे भी ज्यादा चैलेंजिंग टास्क था उनका भरोसा जीतना। इसके लिए उन्होंने एक तरकीब निकाली और उनके बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। इसका पॉजिटिव इम्पैक्ट भी हुआ। बच्चों के जरिए वे उनके माता पिता तक पहुंच गए। धीरे-धीरे उनका भरोसा भी हासिल कर लिया और फिर उन्हें खेती से जोड़ते गए।
जो आदिवासी जंगलों में घूमते थे, वे आज खेती से हर साल 2 से 3 लाख रुपए कमा रहे
विशाल कहते हैं कि ट्राइबल बेल्ट में कई ऐसे परिवार थे जो जंगलों में घूमते रहते थे, शिकार करते थे, देसी दारू पीते थे। खेती तो वे लोग न के बराबर ही करते थे। जबकि उनके पास दो एकड़ जमीन थी। इनमें कई आदिवासी युवा भी शामिल थे। हमने उन्हें इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल से जोड़ा। तालाब बनवाए और मछली पालन की ट्रेनिंग दी। लेमन ग्रास की खेती करवाई। नारियल का प्रोसेसिंग सिखाया। उन परिवारों की महिलाओं और लड़कियों को भी रोजगार से जोड़ा। उन्हें मशरूम कल्टीवेशन की ट्रेनिंग दिलाई। इसके बाद वे खुद से प्रोडक्ट तैयार कर एग्जीबिशन में बेचने लगे।
वे कहते हैं आज की तारीख में ये लोग हर साल 2 से 3 लाख रुपए कमा रहे हैं। इन्हें अपनी जीविका के लिए शिकार नहीं करना पड़ता है। इसका फायदा इनके बच्चों को भी मिल रहा है। वे अब मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं, पढ़ाई कर रहे हैं।
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