उसने आत्महत्या की थी, इसीलिए, बरी था देश, नेता बरी थे, बरी था बाजार, खरीददार बरी थे, बरी थे मां-बाप
- सुमन केशरी
करिअर फंडा में स्वागत!
सेंसिटिव मुद्दे पर बात
आज एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा: आत्महत्याओं की बढ़ती प्रवृत्ति।
प्रोफेशनल, स्टूडेंट और घरेलू जीवन में स्थितियों के आउट ऑफ कंट्रोल होने का परिणाम।
A) क्या आप जानते हैं भारत में आत्महत्या करने वाले लोगों में सर्वाधिक कृषक (खास तौर पर कृषि दिहाड़ी मजदूर), गृहणियां और छात्र होते हैं?
B) किसान आत्महत्याओं की बात करें तो कर्ज का जाल, फसल बर्बाद हो जाना, पारिवारिक झगड़े, बीमारियां और किसी प्रकार के नशे की लत इसके सबसे बड़े कारणों में है।
C) वहीं गृहणियों की आत्महत्या के कारणों में शादी-ब्याह सम्बन्धी समस्याएं जैसे जबरन विवाह, दहेज की मांग, पति की बेवफाई, तलाक इत्यादि, बच्चा पैदा न कर पाना (बांझपन), पारिवारिक झगड़े, बीमारी और शारीरिक हिंसा (बलात्कार इत्यादि) प्रमुख हैं।
D) छात्र आत्महत्या के कारण जबरन दिलाए गए सब्जेक्ट्स, परीक्षा में फेल होना या फेल होने का डर, एकल परीक्षा आधारित एजुकेशन सिस्टम आदि, हैं।
अलग-अलग कारणों के अलावा एक कॉमन कारण जो मुझे इन तीनो समुदायों की आत्महत्या में दिखता है वह है सामाजिक प्रतिष्ठा।
हर आत्महत्या है एक बड़ा लॉस
भारत के गांवों को अच्छे से समझने के लिए विख्यात लेखक मुंशी प्रेमचंद अपने ग्रामीण किरदार से कहलवा तो गए कि ‘प्रतिष्ठा में प्राण गंवाने से क्या फायदा’, लेकिन सच्चाई कुछ और ही दिखाई देती है।
भारत में किसान केवल खेती के बीज खरीदने के लिए कर्ज नहीं लेता, लिए गए इन कर्जों के कारणों में धूम-धाम से की जाने वाली शादियां, बेटियों के पति दिया जाने वाला दहेज, कभी नौकरी ना दिला पाने वाली शिक्षा पर खर्च से लेकर नामकरण संस्कार और मृत्यु के बाद तेरहवी के भोज भी शामिल होते है - मां के पेट से हैं मरघट तक है तेरी कहानी पग, पग प्यारे, दंगल दंगल।
‘बेटा, अब यही तुम्हारा घर है, जहां तुम्हारी डोली उतरी हैं, वहीं से तुम्हारी अर्थी उठनी चाहिए’, यह केवल किसी फिल्म का डायलॉग नहीं है, भारतीय समाज की सच्चाई है, वह समझाइश है जो एक मां शादी के दिन अपनी बेटी को देती है: तो इसमें क्या छुपा है: कथित सामाजिक प्रतिष्ठा। और वहां से शुरू होता है दबाव, जो गंभीर स्थितियों में आत्महत्या तक पहुंच जाता है।
एक और सच्ची घटना
स्टूडेंट 1: अरे, मेरे तो मॉक टेस्ट में स्कोर बढ़ ही नहीं रहे।
स्टूडेंट 2 (जो स्टूडेंट 1 का दोस्त है): तो तुझे ड्रॉप लेना पड़ेगा (मजाक के लहजे में), पांचवें फ्लोर से।
भारत के एक प्रतिष्ठित IIT कोचिंग क्लास में पढ़ने वाले बच्चों के बीच मजाक-मजाक में की गई यह बात सुन मेरी रीढ़ की हड्डी में नीचे तक सिहरन हो आई थी।
हमारे समय में 'ड्रॉप' का केवल एक मतलब हुआ करता था, कॉम्पिटिटिव एग्जाम की तैयारी के लिए एक साल का ब्रेक। जरा ध्यान से सोचिए तो इतने सालों में इस शब्द का यह दूसरा मतलब क्यों विकसित हुआ होगा?
क्या शायद इसलिए की 'शर्मा जी के बेटे' को एक अच्छा पैकेज मिल चुका है? इसमें क्या छुपा हैं, खुद ही सोचिए? अच्छा पैसा कमाने के लिए शिक्षा लेने और कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स में सफलता के लिए 'करो या मरो’ का नारा खुद पेरेंट्स ही अपने बच्चों को देते हैं।
बेड़ियां और विवशता
जेजे रूसो का विचार है, 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है मगर सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा होता है', मैं इसमें थोड़ा बदलाव करना चाहूंगा 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है मगर सर्वत्र स्वयं की बनाई बेड़ियों में जकड़ा होता है।
इन बेड़ियों को हम लगातार कसता हुआ देखते हैं:
लोग क्या कहेंगे, मुझे भी समाज में उठना-बैठना है, साड़ियां और कपड़े सब अच्छा लेना, पहले बेटे का नामकरण है, कोई कमी मत छोड़ना, जब हम दूसरों के यहां भोजन पर गए थे तो अब हमें भी उन्हें बुलाना पड़ेगा, उसने फलां की शादी में इतने का गिफ्ट दिया था तो हमें उससे अधिक का ही देना पड़ेगा, आदि कुछ उदाहरण हैं जब भारतीय परिवार अपनी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए क्षमता से अधिक खर्च करते रहते हैं।
मध्यमवर्ग में सामाजिक प्रतीक्षा के लिए पाया जाने वाला गैरजरूरी दबाव यदि हम काम कर सकें, तो बहुत कुछ बेहतर हो सकता है।
प्रोफेशनल लाइफ का दबाव
कंपनी में काम करने वाले प्रोफेशनल अक्सर बॉस के कारण, या कलीग्स के कारण, सतत तनाव में आ सकते हैं। यही हाल, खुद का बिजनेस करने वालों का भी होता है। इसमें अति होने पर, बेहद खतरनाक कदम उठाने को लोग मजबूर हो जाते हैं।
आत्महत्या रोकने हेतु 5 कदम
1) अपना दर्द अपनों के साथ खुलकर बांटें
2) छोटे दर्द को बेवजह बड़ा कर के न देखें
3) जीवन में नई राहें भी होती हैं, ये याद रखें
4) ‘ज्यादा से ज्यादा क्या होगा’ ये एट्टीट्यूड रखें
5) हंसना, नाचना-गाना, खेलना-कूदना जारी रखें
तो भारत में किसानों, गृहणियों और छात्रों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए आज अभी इसी क्षण हम जो कर सकते हैं वह यह कि हम यह प्रण लें कि हम किसी व्यक्ति या परिवार को उसके द्वारा आयोजित समारोहों की भव्यता पर, बहनों और बेटियों को सच्ची बात कहने पर, और बच्चों से उनका पैकेज पूछकर जज करना बंद कर दें।
आज का करिअर फंडा है - ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना’।
कर के दिखाएंगे!
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