पंथभारत में मिनी अफ्रीका, लेकिन बोली गुजराती-हिंदी:डांस ही खुदा की इबादत, जूनागढ़ के नवाब गुलाम बनाकर लाए थे; कौन हैं सिद्दी?

भरूच, गुजरात4 महीने पहलेलेखक: मनीषा भल्ला
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सिर पर मोर के पंख से बना मुकुट। चेहरे पर सफेद पेंट से बनी जानवरों की आकृति। वेश-भूषा भी जंगली जानवरों की तरह। ढोल-नगाड़े बज रहे हैं। कोई मुंह में आग डालकर नृत्य कर रहा तो कोई शेर की तरह गुर्रा रहा।

ये अफ्रीकी मूल के सिद्दी मुसलमान हैं। रंग-रूप, वेश-भूषा, कल्चर सब कुछ अफ्रीका के लोगों की तरह, लेकिन बोली फर्राटेदार गुजराती और हिंदी। 800 साल पहले जूनागढ़ के नवाब इन्हें गुलाम बनाकर अफ्रीका से भारत लाए थे। उसके बाद ये यहीं रच-बस गए।

ये धमाल नृत्य करते हैं। जो पूरी दुनिया में इनकी पहचान है, लेकिन इनके लिए खुदा की इबादत।

तस्वीर में देखिए कैसे जानवरों की तरह चेहरे पर भाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं सिद्दी। सोर्स- गूगल।
तस्वीर में देखिए कैसे जानवरों की तरह चेहरे पर भाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं सिद्दी। सोर्स- गूगल।
मुंह में आग रखकर नृत्य करते हुए सिद्दी।
मुंह में आग रखकर नृत्य करते हुए सिद्दी।

पंथ सीरीज में इन्हीं सिद्दियों की कहानी जानने मैं दक्षिण गुजरात के भरूच पहुंची…

भरूच से करीब 35 किलोमीटर दूर झगड़िया तहसील का रतनपुर गांव। चारों तरफ घने जंगल। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता। एकदम वीरान रास्ता। बीच-बीच में जंगली जानवरों से खतरे का बोर्ड लगा हुआ है।

बाइक से संकरी राहों से गुजरते हुए डर भी लग रहा है। करीब चार किलोमीटर चलने के बाद पहाड़ी पर एक दरगाह है। इसे बाबा गोर की दरगाह कहते हैं, जो सिद्दियों का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहां दुनियाभर से लोग अपनी मन्नतें लेकर आते हैं।

जब मैं पहुंची तो दरगाह में लोग इबादत कर रहे थे। दुआएं पढ़ रहे थे। कई लोग ताबीज भी बनवा रहे थे। उनकी मान्यता है कि बाबा गोर की ताबीज पहनने से मन्नत पूरी हो जाती है। बाबा गोर की मजार से थोड़ी दूरी पर इनकी बहन माई मिसरा की मजार है। शायद यह पहली मजार है, जहां पुरुषों को जाने की इजाजत नहीं है।

गुरुवार को यहां मानसिक रोगी महिलाएं अपना इलाज करवाने के लिए आती हैं। उन्हें 40 दिन तक हर गुरुवार यहां आना होता है। आखिरी गुरुवार को उनके बाल काटकर एक पेड़ में कील के साथ लगा दिया जाता है। मान्यता ये है कि इससे उनकी बीमारी ठीक हो जाती है।

यही वो पेड़ है, जिसमें महिलाएं अपना बाल काटकर कील ठोंकती हैं।
यही वो पेड़ है, जिसमें महिलाएं अपना बाल काटकर कील ठोंकती हैं।

जूनागढ़ के नवाब को हुआ था अफ्रीकी महिला से प्यार

सिद्दियों के भारत आने की कई कहानियां हैं। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक करीब 800 साल पहले जूनागढ़ के नवाब अफ्रीका गए थे। वहां उन्हें एक अफ्रीकी महिला से प्यार हो गया। कुछ दिन अफ्रीका में रहने के बाद नवाब उस महिला को लेकर भारत लौट आए। महिला अपने साथ कुछ दास-दासियों को भी लेकर आई थी।

ये लोग शरीर से ताकतवर थे। बाकी लोगों के मुकाबले ज्यादा काम करते थे। नवाब ने इन्हें काम पर रख लिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आज इनकी आबादी 65 हजार से ज्यादा हो गई है।

सरकार की तरफ से भी सिद्दियों को धमाल नृत्य के लिए बुलाया जाता है।
सरकार की तरफ से भी सिद्दियों को धमाल नृत्य के लिए बुलाया जाता है।

यूनुस, बाबा गोर दरगाह की ट्रस्ट के मेंबर हैं। वे सिद्दियों के भारत आने की एक और कहानी बताते हैं…

‘हम लोग बाबा गोर को अपना पीर मानते हैं। उन्हीं के नाम पर यह दरगाह है। उनका नाम बाबा शेख मुबारक अल नूबी था। 800 साल पहले की बात है। उन दिनों भारत के सौराष्ट्र और सूडान के बीच अकीक नाम के पत्थर का व्यापार चलता था।

यह पत्थर दुनिया में सिर्फ सूडान और गुजरात में ही मिलता था। इस पत्थर से अंगूठी बनाई जाती थी।

बाबा गोर इस पत्थर के बिजनेस के सिलसिले में 100 लोगों के साथ सूडान से निकले थे। रास्ते में 40 लोग मर गए। सिर्फ 60 लोग ही यहां पहुंचे।

यहां आने के बाद बाबा गोर अल्लाह की इबादत में रम गए। इस दरगाह के पास वे सालों तक इबादत करते रहे। इस दौरान उनके शरीर पर धूल जम गई। इस वजह से उनका नाम बाबा गोर हो गया। गोर का मतलब मिट्टी होता है।’

वक्त के साथ धमाल नृत्य में बदलाव भी आया है। अब यह उनके प्रोफेशन में भी तब्दील हो रहा है।
वक्त के साथ धमाल नृत्य में बदलाव भी आया है। अब यह उनके प्रोफेशन में भी तब्दील हो रहा है।

गांव के लोगों के मुताबिक सिद्दियों के भारत आने की एक दूसरी कहानी भी है…

‘बाबा गोर जब मक्का गए तो उन्हें अल्लाह ने हुक्म दिया कि वे भारत जाकर इस्लाम का प्रचार करें। खुदा के हुक्म से वे मक्का से यहां आए। बाबा गोर ने अपनी इबादत के लिए गुजरात के इसी इलाके को चुना।

अल्लाह का जिक्र करने का उनका तरीका अनोखा था। वे सवा सौ बार अल्लाह का अलग-अलग तरीकों से जिक्र करते थे। पहले वह बैठकर करते थे, जिसे बैठी धमाल कहा गया। फिर खड़े होकर अल्लाह का जिक्र करते थे, उसे खड़ी धमाल कहा गया।

आगे चलकर अल्लाह के जिक्र करने का यह तरीका सिद्दी कम्युनिटी का लोक नृत्य बन गया। जो अल्लाह की इबादत के साथ ही उनकी शादी और दूसरी रस्मों में भी लोगों की पहली पसंद बन गया।’

मन्नत पूरी होने के बाद लोग सिद्दियों को नृत्य के लिए बुलाते हैं। इसके बदले अच्छा-खासा इनाम भी उन्हें मिलता है।
मन्नत पूरी होने के बाद लोग सिद्दियों को नृत्य के लिए बुलाते हैं। इसके बदले अच्छा-खासा इनाम भी उन्हें मिलता है।

धमाल सिद्दियों की पहचान है। खुदा की इबादत के साथ ही उनकी रोजी-रोटी का जरिया भी। भारत सरकार की तरफ से इन्हें सरकारी आयोजनों में नृत्य के लिए बुलाया जाता है। कई लोग अपनी मन्नतें पूरी होने के बाद भी धमाल नृत्य के लिए इन्हें बुलाते हैं। इसके लिए 10 हजार से लेकर 50 हजार रुपए तक ये लोग लेते हैं।

इस साल 1 फरवरी से सिद्दियों का उर्स शुरू हो रहा है। उसकी तैयारियां चल रही हैं। आम तौर पर उर्स में कव्वालियां होती हैं, लेकिन इनके उर्स में रातभर धमाल नृत्य होता है।

70 साल के इकबाल हर साल उर्स में धमाल डांस की शुरुआत करते हैं। इनसे पहले इनके वालिद और फिर उनके वालिद इसे करवाते थे।

हवा में नारियल उछालकर उसे अपने सिर से फोड़ते हुए सिद्दी।
हवा में नारियल उछालकर उसे अपने सिर से फोड़ते हुए सिद्दी।

इकबाल बताते हैं, ‘उर्स के दिन दरगाह को दूध से गुसल, यानी नहलाया जाएगा। गांव के सभी सिद्दी दरगाह तक पैदल जाते हैं। इसे संदल कहा जाता है। इसके बाद दरगाह पर चादर चढ़ाई जाती है।

एक मटके में पानी भरकर उसमें चार-पांच तरह के अनाज डाले जाते हैं। फिर उसका पानी वहां मौजूद लोगों को पीने के लिए दिया जाता है। इस पानी को बोजा कहते है। जिक्रे इलाही करने के बाद फातिहा पढ़ा जाता है। इसके बाद शाम में धमाल की शुरुआत होती है, जो पूरी रात चलती है। सबसे पहले बैठी धमाल होती है।

समुदाय के लोग बैठकर अल्लाह की इबादत करते हैं। सभी को दूध और ब्लैक टी दी जाती है। इसके बाद खड़े होकर धमाल की जाती है। दोनों धमाल में करीब तीन घंटे का समय लगता है।’

धमाल खत्म होने पर दुआ मांगी जाती है। जैसे -'गोरीसा बाबा कुछ भी दिलइओ, अंधे को आखां दिलइयो, प्यासे को पानी पिलइयो…

पहले राजा-महाराजा भी अपने मनोरंजन के लिए सिद्दियों से नृत्य करवाते थे।
पहले राजा-महाराजा भी अपने मनोरंजन के लिए सिद्दियों से नृत्य करवाते थे।

धमाल डांस ट्रूप के लीडर शब्बीर हुसैन बताते हैं, ‘हमारे बाबा सवा सौ बार अल्लाह का जिक्र किया करते थे। हम भी धमाल के जरिए वैसे ही अल्लाह का जिक्र करते हैं। इसमें सूडान की भाषा स्वाहिली, उर्दू और फारसी के मिले-जुले शब्द होते हैं।

हालांकि बहुत से शब्दों का मतलब हमें भी पता नहीं है, क्योंकि अब बहुत कम लोग ही स्वाहिली जानने वाले बचे हैं।’

शब्बीर बताते हैं, ‘धमाल हमारे जीवन का सबसे अहम हिस्सा है, हमारी पहचान है। हर मौके पर धमाल की जाती है। हमारे बच्चे खुद-ब-खुद धमाल सीख जाते हैं। उन्हें अलग से ट्रेनिंग नहीं देनी पड़ती है।

हालांकि वक्त के साथ धमाल डांस में भी थोड़ा बदलाव हुआ है। अब इसे प्रोफेशनल तरीके से स्टेज पर भी परफॉर्म किया जाने लगा है। हालांकि तरीका करीब-करीब वैसा ही है।’

शब्बीर हुसैन 30 साल से धमाल नृत्य की ट्रेनिंग दे रहे हैं।
शब्बीर हुसैन 30 साल से धमाल नृत्य की ट्रेनिंग दे रहे हैं।

मैंने पूछा आप लोग चेहरे पर पेंट क्यों करते हैं, जानवरों की तरह आकृति क्यों बनाते हैं?

शब्बीर बताते हैं, ‘पहले लोग शिकार के लिए निकलते थे, तो अपने साथियों को किसी जंगली जानवर के हमले से बचाने के लिए उसकी आकृति चेहरे पर बना लेते थे। ताकि वह सचेत हो जाए। आज भी हम उसी परंपरा को निभा रहे हैं।’

भारत आने के बाद कुछ सिद्दी ईसाई बन गए और कुछ हिंदू, लेकिन ज्यादातर मुसलमान हैं। ये बकरीद, मीठी ईद, रोजा सब कुछ भारत के सुन्नी मुसलमानों की तरह मनाते हैं। खतना और तलाक के नियम-कानून भी वैसे ही हैं।

इनकी शादी की रस्म अलग होती है। ये आज भी अपनी कम्युनिटी में ही शादी करते हैं। इसी वजह से इतने सालों बाद भी इनका कद-काठी और रंग रूप नहीं बदला है। इनकी शादियों में नाच-गाना खूब होता है। धमाल के बिना कोई शादी नहीं होती।

धमाल नृत्य के अलावा ये खेती पर निर्भर हैं। अब इनके बच्चे मॉडर्न एजुकेशन ले रहे हैं और सरकारी नौकरियों में भी जा रहे हैं। भारत सरकार ने इन्हें आदिवासी का दर्जा दिया है।

इन लोगों ने बाबा गोर दरगाह की देखरेख के लिए एक ट्रस्ट बनाया है। कुछ साल पहले इसे सरकार ने अपने अंडर लिया था। जिसका सिद्दी समुदाय ने बहुत विरोध किया। जिसके बाद इसे वापस ट्रस्ट को दे दिया गया। लोगों से बात करने के बाद पता चलता है कि ट्रस्ट में थोड़ी राजनीति भी है। कुछ लोग चाहते हैं कि सरकार फिर से इसे अपने कंट्रोल में ले ले।

अब पंथ सीरीज की ये तीन कहानियां भी पढ़ लीजिए...

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देवदासी। हम सभी ने ये नाम तो सुना ही होगा। किसी ने कहानी में तो किसी ने फिल्म में। देवदासी यानी देवों की वे कथित दासियां जिन्हें धर्म के नाम पर सेक्स स्लेव बनाकर रखते हैं। उम्र ढलते ही भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौंकिए मत। ये प्रथा राजा-महाराजाओं के समय की बात नहीं, आज का भी सच है। (पढ़िए पूरी रिपोर्ट)

3. चॉकलेट के बहाने पोती का खतना करा लाईं दादी:यौन इच्छा दबाने के नाम पर दर्दनाक प्रथा से गुजर रहीं बोहरा मुस्लिमों की बच्चियां

सात साल की थी। दादी बोली चलो घूमने चलते हैं। चॉकलेट दिलाऊंगी। मैं तो खुशी के मारे उछलने लगी। आज खूब मस्ती करूंगी। दादी मुझे एक अनजाने कमरे में ले गईं। कुछ लोग मेरा हाथ-पैर कसकर पकड़ लिए। मैं कुछ बोलती, उससे पहले ही मेरे प्राइवेट पार्ट पर ब्लेड चला दिया गया। दर्द से मैं चीख पड़ी, लगा मेरी जान निकल गई। आज 48 साल बाद भी वो मंजर याद करके कांप जाती हूं। (पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें)

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