दिन में सोलह श्रृंगार। शाम को दुल्हन। रात में शादी और सुबह विधवा। सिंदूर मिटा दिया जाता है। चूड़ियां तोड़ दी जाती हैं, मंगलसूत्र छीन लिया जाता है। ये कहानी है किन्नरों की। आपने बधाइयां गाते और ट्रेनों में ताली बजाकर पैसे मांगते किन्नरों को देखा होगा, लेकिन ये इनकी जिंदगी का सिर्फ एक पहलू है।
पंथ सीरीज में किन्नरों की असल जिंदगी, उनकी परंपराएं और मान्यताओं को जानने मैं दिल्ली से करीब 310 किलोमीटर का सफर करके पहुंची चंडीगढ़ में ‘किन्नरों का मंदिर’।
देश के पुराने किन्नर मंदिरों में से एक। यहां बड़े-बड़े स्कॉलर किन्नरों पर रिसर्च के लिए आते हैं। दोपहर बाद 3 बजे का वक्त। मुख्य द्वार खुला था। सीधे अंदर चली गई। सामने गद्दी पर किन्नरों की गुरु माता कमली विराजमान हैं।
गद्दी के पास पीतल का कमंडल और पानपीक रखा है। चारों तरफ इत्र की खुशबू महक रही है। पीछे उनके चार गुरुओं की माला लगी तस्वीरें हैं। कुछ बच्चे सोए हुए हैं। पूछने पर पता चलता है ये अनाथ बच्चे हैं। किन्नरों का मंदिर इनकी देखभाल करता है।
सामने कुछ किन्नर मंगलसूत्र बना रही हैं। मेरे मन में सवाल उठता है कि आखिर इतनी संख्या में मंगलसूत्र क्यों बनाए जा रहे? इसी बीच गुरु माता कमली एक किन्नर से मिलवाती हैं।
कहती हैं, 'ये किन्नर सुदीक्षा हैं। तमिलनाडु से आई हैं। इन दिनों काफी व्यस्त हैं। अप्रैल में इन लोगों की शादी है।’
शादी? मैं चौंक कर ये सवाल पूछती हूं।
सुदीक्षा बताती हैं, ‘कोविड के चलते दो साल से मेरी शादी नहीं हो पाई। अगले साल अप्रैल में शादी होनी है। उसी की तैयारी में जुटी हूं। मेरे साथ दुनियाभर के करीब 50 हजार किन्नर शादी करेंगे। जिसके लिए हजारों मंगलसूत्र बनाए जा रहे हैं।’
अगले साल मद्रास में शादी का कार्यक्रम है। सुदीक्षा को मैनेजमेंट की जिम्मेदारी मिली है।
मैंने पूछा किन्नर किससे शादी करते हैं?
सुदीक्षा कहती हैं, ’तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में एक गांव है कुनागम। तमिल नववर्ष की पहली पूर्णमासी को किन्नरों का विवाहोत्सव शुरू होता है, जो 18 दिनों तक चलता है। यहां दुनियाभर से किन्नर जुटते हैं। इस दौरान भागवत कथा, गरबा, नृत्य और कई तरह के समारोह होते हैं। लगातार 17 दिनों तक सभी किन्नर और गांव वाले उपवास रखते हैं।
17वें दिन किन्नर श्रृंगार करती हैं, दुल्हन बनती हैं। फिर वो हाथ में पोटली लिए मंदिर जाती हैं। पोटली में नारियल, फूल, पत्तियां और मंगलसूत्र होता है। वे अपने आराध्य देव अरावन की पूजा करती हैं। इसके बाद पंडित उनके गले में मंगलसूत्र पहनाते हैं। माथे पर बिंदी और सिंदूर लगाते हैं। इस तरह किन्नरों की शादी हो जाती है।'
भारतीय परंपरा में शादियां सात जन्मों के लिए होती हैं, लेकिन किन्नरों में शादी सिर्फ एक रात के लिए होती है। 18वें दिन अरावन की मूर्ति को सिंहासन पर बैठाकर गाजे-बाजे के साथ पूरे गांव में घुमाया जाता है। फिर पंडित अरावन का सांकेतिक रूप से सिर काटते हैं। इसके साथ ही सभी किन्नर विधवा हो जाती हैं। रोना-धोना मच जाता है।
किन्नरों की चूड़िया तोड़ दी जाती हैं, मंगलसूत्र काट दिए जाते हैं और सफेद साड़ी पहना दी जाती है। 19वें दिन सभी किन्नर उस टूटे मंगलसूत्र को भगवान अरावन को चढ़ाते हैं और नया मंगलसूत्र पहनते हैं। कई किन्नर तो उस टूटे मंगलसूत्र को अपने घर ले जाकर 11, 21, 41 या 51 दिनों तक विधवा लिबास में रहते हैं।’
अब मन में सवाल उठता है अरावन कौन हैं?
इसको लेकर माता कमली ने एक कहानी सुनाईं-
‘महाभारत युद्ध से पहले कौरवों से शर्त हारने के बाद अर्जुन को वनवास के लिए जाना पड़ा। उसी दौरान उनकी मुलाकात विधवा नाग राजकुमारी उलूपी हुई। दोनों प्रेम विवाह कर लेते हैं। उनका एक पुत्र होता है अरावन। एक साल बाद दोनों को छोड़कर अर्जुन आगे बढ़ जाते हैं।
इसके बाद महाभारत युद्ध की शुरुआत होती है। अर्जुन की मदद के लिए अरावन भी युद्ध के मैदान में आते हैं। जीत के लिए पांडव मां काली का अनुष्ठान करते हैं। इसमें उन्हें एक राजकुमार की बलि देनी होती है।
अरावन बलि देने के लिए आगे आए, लेकिन उनकी मां ने रोक दिया। वे कहती हैं कि अरावन बिना शादी के बलि नहीं देंगे। सवाल उठा कि एक दिन की सुहागन होने के लिए अरावन से शादी कौन करेगा?
भगवान कृष्ण मोहिनी रूप धारण करते हैं और अरावन से शादी रचाते हैं। अगले दिन अरावन खुद अपना सिर काटकर मां काली के चरणों में चढ़ा देते हैं। मोहिनी रूप में कृष्ण विधवा बन जाते हैं। रोने-चीखने लगते हैं।'
किन्नरों का मानना है कि कृष्ण ने पुरुष होते हुए औरत का रूप धारण करके शादी की। किन्नरों का भी जीवन वैसा ही है। इसलिए वे अरावन से शादी करते हैं।
डेरे में नई बहू जैसा स्वागत, गुरु की मौत के बाद एक महीने तक विधवा बनकर रहना होता है
किन्नर महंत मनिक्षा कहती हैं, ‘डेरे में आने वाले किन्नर की गुरु से शादी कराई जाती है। इस तरह वह घर की बहू होती है। सारी रस्में निभाई जाती हैं। देशभर से बिरादरी के महंत और गुरु जुटते हैं। डेरे के गुरु उसे चुन्नी ओढ़ाते हैं। चुन्नी ओढ़ाना इस बात का प्रतीक होता है कि आज से तुम इस डेरे की इज्जत हो, तुम्हें बहू वाले सारे फर्ज निभाने हैं।
इसके बाद गुरु उसका नामकरण करते हैं। उसे श्रृंगार का सामान, कपड़े, गहने और पैसे देते हैं। इस तरह वो किन्नर गुरु का शिष्य बन जाती है। शिष्य से वचन लिए जाते हैं कि वह डेरे की परंपरा का पालन करेगी, हमेशा गुरु की बात मानेगी। गुरु का आदेश ही उसके लिए आखिरी होगा।
घर की बहू बनने के बाद उस किन्नर का डेरे की बाकी किन्नरों से वैसा ही रिश्ता बन जाता है, जैसे किसी आम परिवार में होता है। यानी कोई उसकी ननद बनती है, कोई उसकी भाभी बनती है, कोई बहन तो कोई सास।’
शिष्य बन जाने के बाद किन्नर बधाई गाने जाते हैं। इस दौरान उन्हें जो भी पैसे या इनाम मिलता है, उसे वे अपने गुरु को दे देते हैं। अपने पास एक रुपया भी नहीं रखते। इस पैसे से गुरु डेरे का और बाकी शिष्यों का खर्च उठाता है। कोई भी किन्नर गुरु से गुस्ताखी नहीं कर सकता। अगर कोई जरा सा भी इधर-उधर करता है, तो बिरादरी की तरफ से उसे कड़ी सजा मिलती है।
मेरे सामने ही डेरे में कुछ किन्नर आए। आते ही वे जमीन पर बैठ गए। मैंने बोला कि आप कुर्सी ले लो, नीचे क्यों बैठ रहे। तभी माता कमली बोल पड़ीं, ’ये चेले हैं, जमीन पर ही बैठेंगे।’
मैं पूछती हूं किन्नर खुद डेरे में आते हैं या आप लोग घर जाकर उठा लाते हैं?
माता कमली कहती हैं, ’पहले किन्नर कम्युनिटी के लोग उन घरों में जाते थे जहां उन्हें पता चलता था कि कोई थर्ड जेंडर का पैदा हुआ है। बाकायदा वे लोग लिंग देखते थे और घर से उठा लाते थे। बाद में इसका विरोध होने लगा। अब खुद ही किन्नर डेरे में आते हैं या उनके घर वाले सौंप जाते हैं। हम लोग जबरन किसी को नहीं लाते।’
आपने कहा किन्नर सिर्फ बधाई गाने जाते हैं, फिर ट्रेनों में जो पैसे मांगते हैं, वे कौन हैं?
वे नकली किन्नर हैं। असली किन्नर भीख नहीं मांगता।
किन्नरों में गुरु का चुनाव कैसे होता है?
माता कमली बताती हैं, ‘कुछ गुरु जीते जी अपने शिष्य को गद्दी सौंप देते हैं तो कुछ इस बात की घोषणा कर देते हैं कि मेरे बाद फलां को गद्दी देनी है। गुरु के मरने के बाद पूरी बिरादरी को बुलाया जाता है। इसके बाद नए गुरु के नाम की घोषणा की जाती है। सभी उसे स्वीकार करते हैं।
चूंकि किन्नर गुरु के नाम का सिंदूर करते हैं। लिहाजा गुरु की मौत के बाद उन्हें सिंदूर मिटाना पड़ता है। सवा महीने तक विधवा की तरह सफेद कपड़े पहनने होते हैं।
पूरी बिरादरी फिर से इकट्ठा होती है। पूजा-अनुष्ठान होते हैं। उस शिष्य को दुल्हन का हार-श्रृंगार चढ़ाया जाता है। दुल्हन की तरह सजाकर गुरुगद्दी पर बैठाया जाता है। सभी किन्नर उसे नेग, कीमती कपड़े और गहने देते हैं। गुरु की गद्दी पर बैठने वाला साल में एक बार अपने गुरु के नाम पर सामूहिक भोज कराता है।’
माता कमली के डेरे में एक गुफानुमा घर है। मेरे मन में इसे देखने की इच्छा जागी। एक छोटे से दरवाजे से होते हुए अंदर चली गई। वहां मुझे एक समाधि दिखी।
मैंने माता कमली से पूछा- ये किसकी समाधि है?
वे कहती हैं,’ये किन्नर माई हीरा देवी की समाधि है। 1990 में उन्हें समाधि दी गई थी।
समाधि? क्या मौत के बाद किन्नरों को दफनाते हैं?
माता कमली कहती हैं, ’पहले डेरे में ही किन्नरों को समाधि दी जाती थी। बाद में सरकार ने इस पर रोक लगा दी। इसके बाद हमने अंतिम संस्कार के लिए अलग जगह की मांग की।
कई सालों तक संघर्ष किया। इसके बाद हमें सरकार ने अंतिम संस्कार के लिए जगह दी। जहां तक दफनाने या जलाने की बात है, जो किन्नर जैसा चाहते हैं या उनका जो धर्म होता है, उसके मुताबिक उनका अंतिम संस्कार किया जाता है।’
मैंने सुना है किन्नर रात के अंधेरे में अंतिम संस्कार करते हैं?
महंत मनिक्षा कहती हैं, ‘किन्नर हर रात मरते हैं और सुबह जन्म लेते हैं। दुश्मन के बच्चे को भी भगवान किन्नर ना बनाए। इसलिए हम किन्नरों के जनाजे को पर्दे में छिपाकर ले जाते हैं या रात में अंतिम संस्कार करते हैं।’
क्या मैं किन्नरों के अंतिम संस्कार में शामिल हो सकती हूं?
जवाब मिलता है- बिल्कुल नहीं। हम किसी और को वहां आने की इजाजत नहीं दे सकते।
किन्नर कौन सा धर्म मानते हैं?
माता कमली कहती हैं, ’किन्नर का वही धर्म होता है, जो उसके गुरु का होता है। साउथ के मंदिरों में ज्यादातर गुरु हिंदू होते हैं और उत्तर भारत के मंदिरों में ज्यादातर गुरु मुस्लिम होते हैं।’
डेरे में मुर्गे वाली माता की मूर्ति रखी है। मैं पूछती हूं ये कौन हैं, किन्नर इनकी पूजा क्यों करते हैं?
माता कमली कहती हैं, ’गुजरात के मेहसाणा में बहुचारा माता मंदिर है। यह माता मुर्गे की सवारी करती हैं। किन्नर इन्हें अपनी कुलदेवी मानते हैं और अर्धनारीश्वर के रूप में पूजते हैं। इसलिए हर डेरे में हम मुर्गे वाली माता की मूर्ति रखते हैं।’
मेरे मन में मुर्गे वाली माता मंदिर देखने की इच्छा होती है। चंडीगढ़ से करीब 1073 किलोमीटर का सफर करके मेहसाणा पहुंचती हूं।
विशाल मंदिर, अंदर मुर्गे पर माता विराजमान हैं। कुछ किन्नर माता को चांदी के मुर्गे चढ़ा रहे हैं। मैं मंदिर के पुजारी तेजसभाई रावल से पूछती हूं चांदी के मुर्गे क्यों चढ़ा रहे ये लोग?
वे बताते हैं, ‘1739 में वडोदरा के राजा मानाजीराव गायकवाड़ ने इस मंदिर को बनवाया था। पहले किन्नर माताजी को काला मुर्गा चढ़ाते थे। बाद में सरकार ने इस पर रोक लगा दी। इसके बाद से वे चांदी का मुर्गा चढ़ाते हैं।’
तेजसभाई रावल बताते हैं, ‘चैत्र महीने की पूर्णिमा को यहां तीन दिन का मेला लगता है। जिसमें देशभर के किन्नर आते हैं। इस दिन पालकी निकलती है। किन्नर मंदिर की परिक्रमा करते हैं, माता को चांदी का मुर्गा चढ़ाते हैं, रथ यात्रा निकालते हैं। रात में वे विशेष पूजा करते हैं। इस पूजा में मंदिर के पुजारी को भी शामिल होने की इजाजत नहीं मिलती है।’
तेजसभाई रावल इस मंदिर की कहानी बताते हैं, ‘द्वापर युग में अज्ञातवास के दौरान अर्जुन एक साल तक बृहन्नला नाम की नारी के रूप में रहे थे। इस दौरान उन्होंने यहां अपने हथियार छिपाए थे।
एक साल बाद जब वे वापस हथियार लेने आए तो उनकी शक्ति कम हो गई थी। पुरुषत्व कमजोर हो गया था। अर्जुन ने तपस्या की और माता जी ने खुश होकर अर्जुन को उनका पौरुष बल दिया। किन्नरों की आस्था है कि मंदिर में पूजा करने से अगले जन्म में उन्हें नर या नारी का पूर्ण रूप मिलेगा।’
किन्नर महिलाओं के ड्रेस में क्यों रहते हैं?
निर्मोही अखाड़े की महामंडलेश्वर हिमांगी सखी कहती हैं, ’हम किन्नर खुद को अर्धनारीश्वर का रूप मानते हैं। यानी आधा नर और आधा नारी। जहां तक महिला वेश-भूषा की बात है, तो ये आदिकाल से परंपरा चली आ रही है। किन्नर नारी वेश में ही रहते हैं। अर्जुन ने भी अपने अज्ञातवास के दौरान किन्रर के रूप में महिला का रूप धारण किया था।’
2019 में प्रयागराज कुंभ में किन्नरों ने किया था शाही स्नान
लंबे समय से किन्नर अपने लिए अखाड़े की मांग कर रहे थे। 2016 में सिंहस्थ महाकुंभ में पहली बार उज्जैन के दशहरा मैदान से किन्नरों ने पेशवाई निकाली। इसकी अगवानी किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने की।
ये पहला मौका था जब लोगों ने हजारों किन्नरों को साधु के वेश में देखा। 2018 में किन्नरों को जूना अखाड़े के अंतर्गत एक अखाड़ा बनाने की इजाजत मिली।
इसके बाद 2019 के कुंभ में इन्होंने शाही स्नान किया था। फिलहाल लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी किन्नर अखाड़े की अध्यक्ष हैं। इसके अलग-अलग अखाड़ों के अंतर्गत किन्नर महामंडलेश्वर भी होते हैं। निर्मोही अखाड़े ने हिमांगी सखी को महामंडलेश्वर बनाया।
अब पंथ सीरीज की ये तीन कहानियां भी पढ़ लीजिए...
1. इंसान का मांस और मल तक खा जाते हैं अघोरी:श्मशान में बैठकर नरमुंड में भोजन, कई तो मुर्गे के खून से करते हैं साधना
कोई चिता के पास नरमुंड लिए जाप कर रहा, तो कोई जलती चिता से राख उठाकर मालिश, तो कोई मुर्गे का सिर काटकर उसके खून से साधना कर रहा है। कई ऐसे भी हैं, जो इंसानी खोपड़ी में खा-पी भी रहे हैं। इन्हें देखकर मन में सिहरन होने लगती है। ये अघोरी हैं। यानी जिनके लिए कोई भी चीज अपवित्र नहीं। ये इंसान का कच्चा मांस तक खा जाते हैं। कई तो मल-मूत्र का भोग करते हैं। (पढ़िए पूरी कहानी)
2. धर्म के नाम पर देह का शोषण: प्रेग्नेंट होते ही छोड़ देते हैं, भीख मांगने को मजबूर खास मंदिरों की देवदासियां
देवदासी। हम सभी ने ये नाम तो सुना ही होगा। किसी ने कहानी में तो किसी ने फिल्म में। देवदासी यानी देवों की वे कथित दासियां जिन्हें धर्म के नाम पर सेक्स स्लेव बनाकर रखते हैं। उम्र ढलते ही भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौंकिए मत। ये प्रथा राजा-महाराजाओं के समय की बात नहीं, आज का भी सच है। (पढ़िए पूरी रिपोर्ट)
3. चॉकलेट के बहाने पोती का खतना करा लाईं दादी:यौन इच्छा दबाने के नाम पर दर्दनाक प्रथा से गुजर रहीं बोहरा मुस्लिमों की बच्चियां
सात साल की थी। दादी बोली चलो घूमने चलते हैं। चॉकलेट दिलाऊंगी। मैं तो खुशी के मारे उछलने लगी। आज खूब मस्ती करूंगी। दादी मुझे एक अनजाने कमरे में ले गईं। कुछ लोग मेरा हाथ-पैर कसकर पकड़ लिए। मैं कुछ बोलती, उससे पहले ही मेरे प्राइवेट पार्ट पर ब्लेड चला दिया गया। दर्द से मैं चीख पड़ी, लगा मेरी जान निकल गई। आज 48 साल बाद भी वो मंजर याद करके कांप जाती हूं। (पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें)
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.