भगवान राम की नगरी अयोध्या भूमिपूजन के लिए पूरी तरह तैयार है। 5 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी भूमिपूजन में शामिल होने के लिए अयोध्या पहुंच रहे हैं। राम मंदिर आंदोलन और कारसेवा से जुड़े रहे अयोध्या के कोशलेश सदन के पीठाधीश्वर और राम जन्मभूमि न्यास के उपाध्यक्ष रहे जगदगुरु स्वामी वासुदेवाचार्य हर उस घटना के गवाह रहे हैं जो पिछले 30 सालों में अयोध्या में हुई है। वे भूमिपूजन कार्यक्रम में शामिल भी हो रहे हैं।
1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को याद करते हुए वे बताते हैं कि कारसेवक उग्र हो रहे थे और ढांचे की तरफ बढ़ रहे थे। तब लालकृष्ण आडवाणी मंच से कारसेवकों को ढांचे की तरफ बढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। वे कह रहे थे कि तुमलोगों को राम की सौगंध है, पीछे लौट आओ। लेकिन, कारसेवक भी सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे नारे के साथ आगे बढ़ रहे थे।
तब किसी को इस बात का अंदेशा नहीं था कि ये लोग ढांचे पर चढ़ेंगे। क्योंकि, कारसेवा तो प्रतीकात्मक थी, लेकिन तब तक वे उग्र हो चुके थे। 50 से अधिक कारसेवक गुम्बद के ऊपर चढ़ गए थे, और देखते ही देखते ढांचा ढह गया।
वासुदेवाचार्य कहते हैं कि 6 दिसंबर 1991 को कारसेवा सत्याग्रह शुरू किया गया। तब मैं इसकी अगुवाई कर रहा था। वे कहते हैं कि यह देशव्यापी जेल भरो आंदोलन था, कारसेवकों के बलिदान के बाद यह आंदोलन किया गया था। इसके एक साल बाद 6 दिसंबर 1992 को फिर से कारसेवा शुरू हुई।
उस समय लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, उमा भारती भी अयोध्या आईं थीं। हम सभी साथ में ही कारसेवा कर रहे थे। वे बताते हैं कि उस समय बड़ी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंचे थे। उनमें बलिदानी जत्थे वाले भी शामिल थे जिन्होंने लाल रंग का पट्टा बांध रखा था। वे रामलला का जयघोष करते हुए ढांचे की तरफ बढ़ रहे थे।
उसी समय किसी ने अफवाह फैला दी कि नेवी वाले सरयू की तरफ से आक्रमण के लिए आ रहे हैं। सड़क मार्ग तो पहले ही कारसेवकों ने ब्लॉक कर दिया था। मैं तब अशोक सिंघल, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, राजमाता विजयाराजे सिंधिया के साथ एक कमरे में बैठा था। उसी कमरे की छत पर मंच बना था और भाषण चल रहा था। बाहर कारसेवा चल रही थी।
तब हम लोगों ने तय किया कि अगर नेवी आ जाएगी तो भूमि पर कब्जा कर लेगी। इसलिए वहां रामलला की मूर्ति होनी चाहिए। इसके बाद हम लोग रंगमहल गए। वहां के महंत से हमने रामलला की मूर्ति मांगी और उसे लेकर ढांचे के नीचे रख आए। उस समय पत्थर का एक हिस्सा मेरे ऊपर भी गिरा था, लेकिन मैं बच गया।
जब मैं वहां से वापस कमरे में आया, तो मूर्ति रखने के दौरान मेरे शरीर पर मंदिर के बालू-चूना लग गए थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उस धूल को लेकर अपने मस्तक पर लगा लिया। मैंने उनसे पूछा कि ये क्या कर रहीं हैं आप माताजी? उन्होंने कहा कि यही धूल राम मंदिर का चंदन है। तब मैंने उनसे कहा कि मंदिर बनेगा तो प्रसाद के रूप में चंदन लगाइएगा। उन्होंने कहा कि पता नहीं जब बनेगा तब तक मैं जीवित रहूंगी कि नहीं।
6 दिसंबर को मस्जिद का ढांचा गिर गया। उसी रात रामलला को विराजमान कर दिया गया और तब से पूजा और दूर से दर्शन शुरू हो गया। हालांकि, उसके बाद भी आंदोलन जारी रहा।
वासुदेवाचार्य कहते हैं कि मंदिर के लिए संघर्ष बहुत पुराना है, सालों तक हिंदुओं ने इसके लिए संघर्ष किया है। हर 5-10 साल में इसको लेकर आंदोलन होते रहे, लेकिन सफलता नहीं मिली। सबसे पहले गोपाल विशारद ने मुकदमा दायर किया था। वे राममंदिर के पहले पक्षकार थे। उन्होंने रामलला दर्शन और पूजन के व्यक्तिगत अधिकार के लिए 1950 में फैजाबाद न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। उसके बाद दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस ने मुकदमा दर्ज करवाया।
उसके कुछ साल बाद मुस्लिम पक्ष की तरफ से सबसे पहले हाशिम अंसारी ने मुकदमा दायर किया था। हाशिम अंसारी की मौत के बाद उनके बेटे इकबाल अंसारी इसके पक्षकार बने और मस्जिद के लिए संघर्ष करते रहे। अभी इकबाल अंसारी को भूमिपूजन के लिए निमंत्रण भी दिया गया है। वे कहते हैं कि रामचन्द्र परमहंस के साथ हाशिम अंसारी के काफी बेहतर संबंध थे।
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