1993-94 का साल था। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए ऑफर आया था। मेरे जाने की तैयारी चल रही थी। मां खुश थी कि बेटा कैम्ब्रिज जाएगा, लेकिन हमारे पास हवाई जहाज के टिकट तक के पैसे नहीं थे।
इस वजह से पिताजी थोड़ी टेंशन में थे। एक रोज रात में हम लोग खाना खाने के बाद सोने जा रहे थे, तभी अचानक पिताजी की सांस फंसने की आवाज आई। रात के 11 बज रहे थे। हम लोग दौड़ते हुए उनके पास गए, लेकिन तब तक शायद उनकी मौत हो चुकी थी।
हम लोगों को लगा कि वो बेहोश हैं। बरसात का महीना था। घर के चारों तरफ घुटनेभर पानी जमा था। कहीं आने-जाने का साधन नहीं। एक पड़ोसी का ठेला लेकर पिताजी को पटना हॉस्पिटल ले गए। वहां डॉक्टर ने देखते ही मृत घोषित कर दिया।
एक तरफ कैम्ब्रिज जाने का सपना टूटा, दूसरी तरफ पिताजी का इस तरह से अचानक गुजर जाना… लगा अब तो सब कुछ खत्म हो गया।
आनंद कुमार फिर थोड़ा संभलते हुए कहते हैं, ‘पिताजी हमेशा कहते थे- समझौता से बेहतर संघर्ष होता है। कभी समझौता नहीं करना।’
आनंद अपने बचपन के दिनों में लौटते हैं। बताते हैं- मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहां गरीबी थी। रेलवे ट्रैक के किनारे छोटा-सा किराए का मकान था। पिताजी डाक विभाग में कर्मचारी थे, लेकिन तनख्वाह इतनी नहीं थी कि हमें अच्छे स्कूल में पढ़ा पाएं। दूसरी क्लास तक की पढ़ाई एक प्राइवेट स्कूल में हुई।
हमारे पास स्कूल जाने के लिए अच्छे कपड़े नहीं थे। स्कूल के बच्चे टेरीकॉट का कपड़ा पहनते थे। मैं कॉटन कपड़ा। उन दिनों कॉटन कपड़ा सबसे सस्ता माना जाता था।
सभी स्टूडेंट एल्युमिनियम का बना थैला लेकर आते थे, जबकि मैं टिन का बना थैला लेकर आता था। हमें हमेशा लगता था कि पैसा होने पर ही पढ़ाई अच्छे से की जा सकती है, लेकिन पिताजी कहते थे, ‘पढ़ाई पैसे से नहीं, मेहनत से होती है।’
आनंद कहते हैं- दूसरी क्लास के बाद सरकारी स्कूल में पढ़ाई करने लगा। मेरे घर के सामने एक नाला था और उस पार एक सरदार जी का घर। उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए टीचर कई दिनों से नहीं आ रहे थे, तो मुझे पढ़ाने के लिए कहा गया। मैं उस वक्त छठी क्लास में था। तभी से एक-दो बच्चों को पढ़ाने लगा।
जब 10वीं पास किया, तो सारे दोस्त दिल्ली जा रहे थे, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे कि किसी बड़े शहर में रहकर पढ़ाई करूं। इंटर पास करने के बाद पटना यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया।
इसी दौरान मैंने मैथ्स के कुछ फॉर्मूले और थ्योरी को ईजाद किया, जो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के मैथमेटिक्स जर्नल में छपा और मुझे कैम्ब्रिज से एडमिशन के लिए ऑफर आया, लेकिन अचानक से पिताजी की मृत्यु के बाद सब कुछ खत्म हो गया।
आनंद उन दिनों के संघर्ष को फिर से ताजा करते हैं। कहते हैं- लोगों ने कहना शुरू किया कि पिता की जगह अनुकंपा (सरकारी नौकरी के दौरान किसी व्यक्ति की मौत होने पर उसके किसी एक आश्रित को दी जाने वाली नौकरी) पर जॉइन कर लो।
मां पढ़ी-लिखी नहीं थीं कि वो नौकरी कर सकें। भाई (प्रणव कुमार) नाबालिग था। भाई उन दिनों BHU में वॉयलिन सीख रहा था। घर खर्च की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। भाई भी पटना आ गया।
मां ने पापड़ बनाने का काम शुरू किया। हम दोनों भाई दिन में पढ़ते थे और शाम को ‘आनंद पापड़’ ले लो… ‘आनंद पापड़’ ले लो… पटना की सड़कों, गलियों में घूम-घूम कर पापड़ बेचते थे। ये सिलसिला करीब 4 साल तक चलता रहा।
1998-99 का साल बीत रहा था। एक दिन भाई ने कहा, ‘कब तक ऐसे पापड़ बेचते रहेंगे। बच्चों को पढ़ाना शुरू कीजिए।’
‘फिर सुपर-30’ की शुरुआत कैसे की?
आनंद आशान्वित नजरों से कहते हैं- कोचिंग में कई ऐसे टैलेंटेड बच्चे बहुत ही गरीब परिवार से आते थे, जो IIT जैसे एग्जाम क्रैक करना चाहते थे, लेकिन उनके पास खाने तक के पैसे नहीं होते थे।
हमें लगा कि यदि इन बच्चों को अच्छे तरीके से पढ़ाया जाए, तो ये भी अपनी लाइफ में बेहतर कर सकते हैं। 2002 में ‘सुपर 30’ की शुरुआत की। ‘रामानुजन कोचिंग’ से जो पैसा आता था, वह ‘सुपर 30’ में सिलेक्ट होने वाले बच्चों की पढ़ाई पर खर्च होता था।
बच्चे फ्री ऑफ कॉस्ट हमारे घर पर रखकर पढ़ाई करने लगे। मां इन बच्चों के लिए खाना बनाती थी। भाई बच्चों की देखरेख करता था।
अपने पहले बैच को याद करते हुए आनंद कुछ दिलचस्प बातें बताते हैं। कहते हैं- हमें लगा था कि 30 बच्चों में से कम-से-कम 5 बच्चे तो IIT क्रैक कर ही लेंगे, लेकिन पहले साल ही 30 में से 18 बच्चों ने IIT क्रैक कर लिया। फिर ये कारवां चल पड़ा।
आनंद कहते हैं- 2008 में तो गजब हो गया। 30 में 30 बच्चों ने IIT एग्जाम क्वालिफाई किया। अभी तक हमारे 500 से ज्यादा बच्चे IIT क्रैक कर चुके हैं।
बाद में मेरी लाइफ के ऊपर एक किताब लिखी गई। जिसके बाद बॉलीवुड इंडस्ट्री के कई लोगों ने मेरे बायोपिक पर फिल्म बनाने के लिए एप्रोच करना शुरू किया। ‘सुपर-30’ फिल्म के डायरेक्टर विकास बहल से 2016-17 में मुलाकात हुई थी। जिसके बाद फिल्म बननी शुरू हुई।
वो कहते हैं- जब ऋतिक रोशन को खुद के कैरेक्टर के लिए चुना तो लोगों ने कहा कि तुमने तो बहुत बड़ी भूल कर दी। अंग्रेज जैसा दिखने वाला हीरो गांव-देहात वाले ‘आनंद कुमार’ का रोल प्ले करेगा? लेकिन देखिए फिल्म कितनी शानदार बनी। लोगों ने खूब पसंद की।
आनंद कहते हैं कि अब सुपर-30 का विस्तार करने की तैयारी चल रही है। इसमें बच्चों की संख्या बढ़ाने और अन्य राज्यों में भी ब्रांच खोलने को लेकर काम हो रहा है।
आनंद कुमार आखिर में अपने तीन छात्रों की कहानी भी शेयर करते हैं। बताते हैं…
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