देश की राजनीति में रोज-रोज ऐसा नहीं होता है कि किसी फिल्म की बढ़चढ़ कर तारीफ की जाए। जिस फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बारे में आप सोशल मीडिया पर रोज चल रही बहस को पढ़ रहे हैं, उसकी सरकार में शामिल कई मंत्रियों और राजनेताओं ने तारीफ की है।
इसके बाद सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस फिल्म पर रोक लगाए जाने का मुद्दा उठाया है। इन लोगों का कहना है कि इस फिल्म को प्रोपेगेंडा के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि, मौजूदा सरकार में ही ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है, जब कोई फिल्म राजनीतिक कारणों से चर्चा में हो।
पर क्या आप को पता है इससे पहले की सरकारों में भी ऐसा हो चुका है, जब सिनेमा पर राजनीति इतनी हावी हुई हो।
ऐसे में आज के भास्कर इंडेप्थ में जानते हैं कि पहले कौन-कौन से ऐसे बड़े मौके रहे जब सिनेमा के गलियारों में राजनीति का प्रवेश हुआ? उसका नतीजा क्या रहा? कैसे न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया में सिनेमा का प्रोपेगेंडा के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है?
‘द कश्मीर फाइल्स' से जुड़े विवाद का पूरा मामला क्या है?
निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' ने 11 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज होते ही तहलका मचा दिया है। फिल्म में कश्मीरी पंडितों के पलायन की कहानी दिखाई गई है। जिसके चलते इसे UP समेत 5 BJP शासित राज्यों में टैक्स फ्री कर दिया गया है। कई जगहों पर भाजपा समर्थक इसकी मुफ्त में स्क्रीनिंग करवा रहे हैं। BJP इस फिल्म को अपने किसी पार्टी के एजेंडा की तरह प्रमोट कर रही है।
वहीं, दूसरी ओर कांग्रेस ने ट्वीट कर इस फिल्म की आलोचना की है। केरल कांग्रेस ने अपने ट्विटर हैंडल से इस फिल्म पर तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया। साथ ही असम के सांसद बदरुद्दीन अजमल ने भी कश्मीर फाइल्स मूवी के खिलाफ विरोध जताते हुए उस पर बैन लगाने की मांग की है। वहीं कुछ सोशल मीडिया यूजर्स ने तो गुजरात दंगे पर बनी फिल्म ‘परजानिया’ का मुद्दा उठा दिया है। जिसे बजरंग दल और अन्य राजनीतिक कारणों से गुजरात में बैन कर दिया था।
इंदिरा ने ‘आंधी’ पर लगाया था बैन, तो जनता सरकार ने बैन हटाकर किया प्रमोट
भारत में फिल्म और राजनीति के घालमेल का किस्सा कोई नया नहीं है। सिनेमा को समाज का आईना होने की समय-समय पर बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। जिसमें कई बार फिल्मों को बैन का दंश झेलना पड़ा है। भारत में राजनीतिक वजहों से बैन होने वाली पहली फिल्म 'गोकुल शंकर' थी। 1963 में इस फिल्म में महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे की कहानी दिखाई जानी थी। इसके बाद देश के बंटवारे पर बनी बलराज साहनी की फिल्म 'गर्म हवा' पर 1973 में पाबंदी लगाई गई थी।
इस फिल्म में एक मुस्लिम परिवार के किस्से को दिखाया गया था, जिसके बाद विवाद शुरू हुआ था। फिर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान 1975 में गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ पर बैन लगाया तो बवाल हो गया, लेकिन 1977 में जब जनता पार्टी सत्ता में आई तो न सिर्फ इस फिल्म से बैन हटाया बल्कि इस फिल्म को प्रमोट भी किया।
अब मन करे तो नीचे यूट्यूब पर देख डालिए 'आंधी' फिल्म, जिस पर इंदिरा ने बैन लगाया था
इसी तरह से इंदिरा और संजय गांधी के किस्से को दिखाने के लिए ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म आई तो इसने इंदिरा सरकार की जड़ों को हिला दिया था। 1974 में अमृत नाहटा की इस फिल्म पर 1975 में रोक लगा दी गई थी। इसके प्रिंट भी जब्त कर लिए गए थे।
सिनेमा के जरिए राजनीतिक प्रोपेगेंडा फैलाने पर क्या कहती है रिसर्च?
एनवाईटी ब्लॉग पोस्ट में मिशेल सी पुत्ज ने अमेरिका में हुए एक रिसर्च का जिक्र करते हुए बताया है कि किस तरह से फिल्म लोगों की राजनीतिक सोच को प्रभावित करती है। मिशेल ने बताया कि 2012 में आई फिल्म ‘आर्गो’ और ‘जीरो डार्क थर्टी’ पर रिसर्च के बाद यह पता चला कि इन फिल्मों को देखने से पहले 25% लोगों को लगता था कि उनकी सरकार अपने देश को सही दिशा में ले जा रही है, जबकि फिल्म देखने के बाद यह आंकड़ा बढ़कर 28% हो गया।
साफ है कि सिनेमा सिर्फ समाज की असलियत ही नहीं दिखाता बल्कि लोगों की सोच पर भी असर करता है। इसके जरिए दुनिया भर की सरकारें अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करती हैं।
अब ग्राफ में देखिए कि किस तरह फिल्म सरकार के प्रति लोगों के विचार को प्रभावित करता है…
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के समय सरकार फिल्मों के जरिए प्रोपेगेंडा फैलाती थी
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के समय से ही सरकारें सिनेमा के जरिए प्रोपेगेंडा फैलाती रही हैं। युद्ध में सिनेमा की भूमिका अहम हो जाती है। कई बार ऐसा हुआ है कि अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए फिल्में बनाई गईं। न सिर्फ फिल्में बल्कि अलग-अलग सैन्य टुकड़ियों के बीच कार्यक्रम करवाए जाते थे।
इन कार्यक्रमों में दुश्मन देशों की हार दिखाई जाती थी। सैनिकों के बीच से ही हीरो बनाए जाते थे। ’ग्वाडलकनाल डायरी’ और ‘ऑब्जेक्टिव बर्मा’ इसी तरह की दो फिल्म थीं। इसके जरिए लोगों को जंग जीतने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। यह सिर्फ अमेरिका की तरफ से नहीं था। जर्मनी की नाजी पार्टी ने भी लोगों तक अपने विचार पहुंचाने के लिए फिल्म मंत्रालय का गठन कर दिया था।
दिल करे तो नीचे यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर ‘ऑब्जेक्टिव बर्मा’ फिल्म का ट्रेलर देख सकते हैं-
चीन में सरकार कुछ इस तरह फिल्मों के जरिए लोगों तक पहुंचाती है अपने विचार
चीन में सरकार द्वारा फिल्मों पर रोक लगाने की बात सिर्फ आज की नहीं बल्कि काफी पुरानी है। मशहूर डॉक्यूमेंट्री मेकर एडम कर्टिस की एक काफी फेमस डॉक्यूमेंट्री है “कॉन्ट गेट यू आउट ऑफ माई हेड” इसमें दिखाया है कि कैसे माओ ने अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए फिल्मों, नाटकों और स्लोगंस का सहारा लिया था। इसकी शुरुआत तब होती है जब माओ के खिलाफ पार्टी में विरोध के स्वर तेज होने लगते हैं और उनकी लोकप्रियता घटने लगती है।
इस समय में माओ अपनी पत्नी जिआंग किंग, जो लगभग पागल करार दिए जाने के चलते मॉस्को के एक सेनेटोरियम में रह रही होती हैं, उसे वापस बुलाते हैं। उन्हें प्रोपेगेंडा और कल्चर की कमान सौंप दी जाती है। इसके बाद इस तरह की फिल्मों और नाटकों का प्रोडक्शन शुरू होता है, जिसके हीरो माओ होते हैं। सभी तरह की फिल्में एक फिल्टर से होकर गुजरती हैं।
इसका नतीजा यह रहता है कि माओ की लोगों में लोकप्रियता एक बार फिर बढ़ जाती है। सिनेमा के इस तरह के इस्तेमाल का चीन के समाज पर अब भी असर है। जुलाई 2017 में सरकार ने सभी सिनेमाघरों को नोटिस भेजकर पार्टी और सरकार के विचार को फिल्म से पहले दिखाने का निर्देश दिया था। न सिर्फ चीन बल्कि कई सारे देशों में स्टेट स्पॉन्सर्ड मीडिया सरकार और सत्ताधारी पार्टी की आलोचना नहीं कर पाती है।
अब BBC के “कॉन्ट गेट यू आउट ऑफ माई हेड” डॉक्यूमेंट्री को भी आप यहां देख सकते हैं...
खेद है कि आपके लिए सिर्फ अंग्रेजी भाषा में ये यूट्यूब पर मौजूद है...
‘द कश्मीर फाइल्स’ पर क्या कहते हैं फिल्म समीक्षक
भास्कर से बात करते हुए फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज का मानना है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ पूरी तरह से प्रोपेगेंडा वाली फिल्म है। उन्होंने कहा कि यह पहली बार नहीं हो रहा है जब किसी सत्ताधारी पार्टी के विचारों को प्रमोट करने के लिए कोई फिल्म बन रही हो। साथ ही अजय ब्रह्मात्मज का मानना है कि किसी फिल्म के लिए धंधा बहूत जरूरी होता है। 2014 के बाद राष्ट्रवाद ‘धंधा और सत्ता’ दोनों पर ही फिट बैठता है, इसलिए ज्यादातर फिल्मों में देशभक्ति को दिखाया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक, केसरी, ठाकरे, मणिकर्णिका जैसी कई फिल्में हैं।
ब्रह्मात्मज का मानना है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को देखने के बाद ऐसा लगता है कि इस फिल्म का नाम ‘द कश्मीर पंडित फाइल्स’ होनी चाहिए। इसमें कश्मीर के दूसरे पहलू को दिखाया ही नहीं गया है। उन्होंने आगे कहा कि फिल्म के अंत वाले हिस्से में जानबूझकर दो दर्जन लोगों की मौत को दिखाया गया है।
इसकी मुख्य वजह यह है कि लोगों के दिमाग पर लंबे समय तक इसका असर रहे। ब्रह्मात्मज ने कहा, ‘1977 के बाद से कई बार सरकारों ने या प्रधानमंत्रियों ने सेंसर में फंसी फिल्मों को रिलीज करने की सिफारिश की है, लेकिन 75 सालों में पहली बार हो रहा है कि देश के प्रधानमंत्री एक फिल्म के प्रचार में खुद सामने आ गए हैं।’
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