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सोशल मीडिया पर आजकल एक नया करतब चल रहा है। हातिमताई की तर्ज पर किस्मागो एक से बढ़कर एक जायकेदार कहानियां सुना रहे हैं। मसाला इतना कि बदहजमी हो जाए, लेकिन दिल न भरे। सब की सब कहानियां लड़कियों के चरित्र के इर्द-गिर्द घूमतीं। फिलहाल बेंगलुरु की युवती दिशा रवि नाम का व्यंजन थाली में है। जर्मन शेफर्ड कुत्ते से सटी, कटे बालों और कान तक खिंची अमेरिकी मुस्कान वाली दिशा का नाम वैसे तो किसान आंदोलन में विदेशी साजिश का हिस्सा होने को लेकर आया, लेकिन ट्रोलर्स उसके कैरेक्टर पर पिल पड़े हैं।
तस्वीरों से छेड़छाड़ कर दिशा को उभरे हुए पेट के साथ दिखाया जा रहा है। सोशल मीडिया के शूरवीर कयास लगा रहे हैं कि कुछ दिनों बाद दिशा के गर्भवती होने की खबर आएगी और फिर उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। बता दें कि दिशा रवि फिलहाल पुलिस कस्टडी में हैं और तहकीकात चल रही है। यानी दिशा के दोषी होने के बारे में अभी पक्की जानकारी नहीं है। और अगर वे साजिश का हिस्सा या फिर मास्टरमाइंड भी हों तो इसका उनके चरित्र से कम ही लेना-देना है।
लेकिन, ट्रोल करने वालों को इससे कोई मतलब नहीं। उन्हें मतलब है तो इस बात से कि कोई औरत गलत काम करते पकड़ी गई। गलतियों या साजिशों का ठेका भी मर्दों के पास है। तो जैसे ही किसी औरत का नाम इसमें आता है तो मर्दों की प्रतिक्रिया वैसी ही होती है, जैसे किसी ने उनके लिए आरक्षित सीट हथिया ली हो। तुरंत चरित्रमर्दन शुरू हो जाता है। ट्रोलर्स का खुद का इतिहास भले ही कितना कच्चा हो, लेकिन आरोपी औरत के कुल-कुनबे का इतिहास निकालने में वे जरा देर नहीं करते। औरत कितना हंसती थी, उसके बाल कुतरे हुए थे, उसके दोस्तों में ज्यादातर मर्द हैं या फिर वो कम उम्र में कमाऊ हो चुकी- जैसी बातें ही काफी होती हैं।
कत्ल, डकैती या किसी भी साजिश से ज्यादा बड़ा हो जाता है औरत का खराब चरित्र होना। नरसंहार करने वाला पुरुष खूंखार हत्यारा कहलाकर राहत पा जाता है, वहीं औरत पहले चरित्रहीन होती है और तब फिर कातिल या चोर-डाकू। इन अपराधों से अदालत से एक समय के बाद रिहाई मिल जाती है, लेकिन चरित्रहीनता का ठप्पा औरत के शरीर पर अतिरिक्त अंग की तरह उग आता है। जहां जाती है, वहां ये अंग उसके पूरे व्यक्तित्व को लील जाता है।
फ्रांसीसी भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने कई बार दुनिया के खत्म होने की बात की थी। कुछ साल बीतने पर कयास लगे कि उनकी ये भविष्यवाणी सही होगी। कोरोना वायरस तक को कयामत का आगाज कहा गया था, लेकिन लगता तो ये है कि दुनिया किसी वायरस या जलप्रलय से नहीं, बल्कि औरत-मर्द की बराबरी से खत्म होगी। कम से कम औरतों में संवेदनशीलता की कमी का रोना देखकर तो यही लगता है।
हर बात पर बराबरी की मांग को दोषी बताने वाले पीड़िता तक को नहीं बख्श रहे। हाल ही में मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर ब्रांच के लगातार कई फैसले चर्चा में रहे। वहां जज ने अजीबोगरीब फैसले देते हुए बच्चियों के साथ यौन अपराध करने वाले पुरुषों को रिहा कर दिया था, या उनकी सजा घटा दी थी। मामला सुर्खियों में आने के बाद आनन-फानन जज के फैसले पर रोक लगा दी गई।
मामला केवल एक जज का नहीं, बल्कि अदालतों में इस किस्म के वाकये सीलनभरी दीवार पर घुन की तरह दिख जाते हैं। जैसे मथुरा रेप केस में हुआ था। मामला साल 1972 का है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में दो कॉन्स्टेबलों ने मथुरा नाम की 16 साल की युवती के साथ बलात्कार किया। केस दर्ज होने के बाद लोअर कोर्ट ने दोषियों को आरोपमुक्त कर दिया। कोर्ट के पास इसकी 2 वजहें थीं। माननीय अदालत का कहना था कि युवती के पहले से शारीरिक संबंध थे इसलिए उसके साथ बलात्कार हुआ नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने 'सेक्स की आदत' टर्म का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा भी एक तर्क था, जो ज्यादा 'वजनी' था। चूंकि पीड़िता के शरीर पर कोई चोट-खरोंच नहीं थी, लिहाजा कोर्ट ने मान लिया कि उसके साथ कोई जबर्दस्ती नहीं हुई।
इसके लिए तर्क था- जैसे हिलती हुई सुई में धागा नहीं डाला जा सकता, वैसे ही प्रतिरोध करती औरत के बगैर जख्मी हुए उसका रेप नहीं हो सकता। इस तरह से कपड़ों पर धब्बे या पेट, सीने पर चोट के मनमाफिक निशान न होने से मथुरा के साथ रेप, सहमति से संबंध में बदल गया। 50 साल बीते। मथुरा का नाम कानून पढ़ते बच्चों और चुनिंदा नारीवादियों के अलावा शायद ही कोई जानता हो, लेकिन उस समय में निचली अदालत का ये तर्क आज भी कोड़े की तरह औरतों के चरित्र पर सड़ाक-सड़ाक पड़ रहा है। फिर चाहे वो दिशा रवि हों, रिहाना हों या फिर कोई अनाम औरत। बस उसका औरत होना ही उसे चरित्रहीन बना सकता है।
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