हम तीन पीढ़ियों से गुलाम हैं, लेकिन मजबूरी ऐसी कि मालिक का घर छोड़कर नहीं जा सकते। मालिक कहते थे तुम घर के सदस्य हो, परिवार हो, तुम्हारा भी हिस्सा है। उनके बच्चे तो बिजनेसमैन बन गए, विदेश चले गए, लेकिन हमारे बच्चों को दिहाड़ी मजदूरी भी नहीं मिल रही।
इतना कहते-कहते गुरमेल सिंह भावुक हो जाते हैं। कहते हैं, ‘आप हमारा हाल पूछने आई हैं, यकीन नहीं होता। तीन पीढ़ियों से किसी ने हमारा हाल नहीं पूछा। हमारे हालात भूखों मरने जैसे हैं।'
गुरमेल सिंह पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिले के रहने वाले हैं। वे सीरी-सांझ हैं। पंजाबी में सीरी-सांझ का मतलब हिस्सा होता है। सालों पहले पंजाब के जमींदार अपने खेतों और घरों में काम कराने के लिए बंधुआ मजदूरों को रखते थे। जिन्हें सीरी-सांझ कहा जाता था।
बदले में उन्हें उपज का एक हिस्सा और रहने-खाने को मिलता था, लेकिन आज इन्हें ना तो उपज में हिस्सा मिलता है ना रहने को छत।
ब्लैकबोर्ड सीरीज में इन्हीं सीरियों का हाल जानने मैं दिल्ली से 251 किलोमीटर दूर पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के छरेड़ी गांव पहुंची…
गुरमेल सिंह अपने सरदार बख्शीश सिंह से थोड़ी दूरी पर नीचे बैठे हैं। मैं दोनों को एक साथ बैठने के लिए कहती हूं, लेकिन गुरमेल सिंह तैयार नहीं होते हैं। मैं कहती हूं कि मुझे आप दोनों की साथ में फोटो लेनी है। काफी समझाने पर वे अपने सरदार के बगल में बैठते हैं, लेकिन फोटो लेने के बाद अपनी जगह पर वापस भी चले जाते हैं।
वे तीसरी पीढ़ी के सीरी-सांझ हैं। उनके बच्चे दिहाड़ी मजदूर हैं। जबकि उनके सरदार की बड़ी-बड़ी कोठियां हैं। लग्जरी गाड़ियां हैं।
गुरमेल सिंह बताते हैं, ‘कहने को तो मेरे पास दो एकड़ जमीन है, लेकिन जमीन बंजर है। दो बेटे हैं, जो मजदूरी करते हैं, लेकिन अब दूसरे राज्यों के मजदूरों की वजह से उन्हें काम भी नहीं मिलता है। बड़ी मुश्किल से हमारा गुजारा हो रहा।
हमने सरदार के खेत जोते, पसीना बहाया। हर साल फसल का सातवां या आठवां हिस्सा मिल जाता था। उतने में ही खुश रहते थे, लेकिन अब शरीर साथ नहीं देता।’
इसी बीच सरदार बख्शीश सिंह गुरमेल को टोक देते हैं। वे कहते हैं, ‘यह सच है कि जमींदार जैसी तरक्की सीरी ने नहीं की। उनकी हालत दिहाड़ी मजदूरों से भी बदतर हो गई, लेकिन इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। सरकार की नीतियों की वजह से खेती से होने वाली कमाई घट गई। इसका असर सीरियों के जीवन पर हुआ।
सरकार ने पांच लाख रुपए तक का बीमा बंद कर दिया। कोऑपरेटिव सोसाइटियों ने इन्हें कर्ज देना बंद कर दिया। हम क्या करें।’
बख्शीश सिंह भले सीरियों के हालात के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन दबी जुबान से गुरमेल सिंह कह जाते हैं, 'हमने तो अपनी सारी जिंदगी सरदार को दी। इन्होंने हमारे साथ जुल्म किया। जबरन बंधुआ मजदूर बनाकर रखा।
आज भी हम इनके सामने कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि इन्होंने हमारा हाल ही ऐसा बना रखा है कि चुप रहेंगे तो शोषण होगा और बोलेंगे तो कहीं काम भी नहीं मिलेगा। सो चुप रहना ही ठीक है।'
इसके बाद हमारी मुलाकात नाथ सिंह से होती है। नाथ सिंह पुराने सीरी हैं। उनके घर में सात लोग हैं। सभी मजदूरी करते हैं।
नाथ सिंह बताते हैं, ‘पंजाब में हर गांव में तीन तरह की जमीन होती है। शामलाट, निजी जमीन और जुमला-मुस्तरका-मालिकाना जमीन। तीसरी तरह की जमीन गांव के सभी लोगों में बांटी गई है। इसमें सीरियों का भी हिस्सा है, लेकिन अब केंद्र सरकार ने इस जमीन को कब्जे में लेने के लिए पंचायतों को नोटिस दिया है। इससे तो हमारी आखिरी उम्मीद भी खत्म हो जाएगी।’
पंजाब के मोहाली जिले में खेती की जमीन पर बने एयरपोर्ट रोड से होकर गुजरिए तो एक लाइन से आपको दर्जनों गांव मिल जाएंगे। इन्हीं में से एक गांव के बड़े जमींदार गुरुप्रताप सिंह से मुलाकात हुई।
गुरुप्रताप सिंह ने ही किसान आंदोलन में सिंघु बॉर्डर पर सबसे पहले अपने ट्रैक्टर से आंदोलन का झंडा गाड़ा था। पूरे आंदोलन में आलू के पराठे और रायते का लंगर लगाया था।
मैं पूछती हूं सीरियों का शोषण क्यों हो रहा?
गुरुप्रताप सिंह बताते हैं, ‘UP और बिहार के मजदूरों से यहां के जमींदार को फायदा हुआ है। उसे अब सीरी के नखरे नहीं उठाने पड़ते हैं। वह कुछ रुपए देकर आसानी से मजदूरों से काम करा लेता है।
हालांकि इससे एक दिक्कत है कि बाहर के मजदूरों के आने से अपराध की कई घटनाएं हो रही हैं। उन पर आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता, जबकि सीरियों पर हम लोग आंख बंद करके भरोसा करते आ रहे हैं।’
गुरुप्रताप बताते हैं, ‘बहुत अच्छा रिश्ता था सीरी-सांझ का, जो अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। सिर्फ 5 फीसदी इनकी आबादी बची है। जमींदार और सीरी के रिश्ते का बचा हुआ तंद इतना कमजोर हो चुका है कि अगले कुछ सालों में यह सिर्फ किताबों का हर्फ बनकर रह जाएगा।
पंजाबी के एक कवि हुए संत रामदासी। उनका सीरियों पर एक गीत है- 'गल लग के सारे दे जट्ट दी पया, फुलां विचों नीर वगेया, लेया दंगली नसीबां नू फरोलिए मिट्टी विचों पुत्त जगेया...' यानी सरदार भावुक होकर अपने सीरी के गले लगता है। अपने सीरी के नखरे उठाता है। सीरी भी इनके यहां धौंस से रहता है। कभी झगड़ कर चला जाता है, तो फिर खुद ही आ भी जाता है।’
इसको लेकर गुरुप्रताप एक वाकया बताते हैं- ‘बचपन की बात है। एक सीरी मेरे घर पर रहता था। खेत का सारा काम करता था। बाद में किसी वजह से वह घर छोड़कर चला गया। 25 साल बाद वो दोबारा हमारे यहां आया। घर आकर कहने लगा कि वो यहीं रहेगा, कहीं और नहीं जाएगा। वह बूढ़ा हो गया था। उसका शरीर साथ नहीं दे रहा था। हमने भी उसे रख लिया।
मेरे घर में उसके लिए कोई खास काम नहीं है। वह भैंसों को चारा डालता है। मन करता है तो सो जाता है। थोड़ा नशा भी कर लेता है। कोई उससे कुछ नहीं कहता है। वह हमारे परिवार का सदस्य है और जिम्मेदारी भी।'
गुरुप्रताप से थोड़ी दूर पर खेत में बनी एक मुंडेर पर उनका सीरी बैठा है। मैं बात करने की कोशिश करती हूं तो कहते हैं, ‘सीरी सरदार का सब काम करते थे, लेकिन जब से नई-नई मशीनें आई हैं, सीरी की जरूरत खत्म होती जा रही है।
पहले मैं नौजवान था तो खूब काम किया, लेकिन अब बुढ़ापे में कोई काम नहीं मिलता है। अब मैं अपने सरदार के पास आ गया हूं। बुढ़ापे में कहीं और नहीं जाऊंगा।’
पंजाब के रंगकर्मी शब्दीश बताते हैं कि पंजाब में सीरी-सांझ क्लास से ज्यादा जाति का मसला है। सदियों से सीरियों को लगता है कि उनका स्थान सरदार के बराबर नहीं है, उन्हें सरदार के नीचे ही रहना है।
सरदारों ने सीरियों की ऐसी मानसिकता बना दी है कि उन्हें लगता ही नहीं कि उनका शोषण भी हो रहा है। दलित समाज के सीरी का बर्तन अलग होता है। वह उसी में दाल, लस्सी, चाय और पानी पीता था। जो घर के बाहर रखा रहता है।’
ये तो सीरी-सांझ की बात हुई। पंजाब की तरह देश के दूसरे राज्यों में भी जबरन लोगों से मजदूरी कराई जाती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में अभी भी एक लाख से ज्यादा बंधुआ मजदूर हैं। हाल ही में पिछले साल जम्मू कश्मीर से 20 से ज्यादा बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया था।
अब ब्लैकबोर्ड सीरीज की इन तीन कहानियों को भी पढ़ लीजिए
1. हमारी ही बेटी से गैंगरेप और हम ही कैद हैं:बेटी की जान गई, बेटे को नौकरी नहीं दे रहे; गांव वाले उल्टा हमें ही हत्यारा बोलते हैं
बहन के गैंगरेप को दो साल बीते। तब से हम घर पर हैं- होम अरेस्ट! जवान हैं, लेकिन नौकरी पर नहीं जा सकते। बेटियों को स्कूल नहीं भेज सकते। तीज-त्योहार आए- चले गए। न कोई बधाई आई, न आंसू पोंछने वाले हाथ। बहन की अस्थियां इंतजार में हैं। हमारी जिंदगियां इंतजार में हैं। इंसाफ मिले, तो वक्त आगे बढ़े। ये वो घर है, जहां वक्त दो साल पहले के सितंबर में अटका हुआ है। (पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें)
2. कहानी आधी विधवाओं की, सालों से उनकी कोई खबर नहीं; हंसना भी भूल गईं, लेकिन तीज-करवाचौथ कोई भूलने नहीं देता
छुटकी पेट में थी, जब वो बॉम्बे (मुंबई) चले गए। एक रोज फोन आना बंद हुआ। फिर खबर मिलनी बंद हो गई। सब कहते हैं, तीज-व्रत करो, मन्नत मांगो- पति लौट आएगा। सूखे पड़े गांव में बारिश भी आ गई, लेकिन वो नहीं आए। मैं वो ब्याहता हूं, जो आधी विधवा बनकर रह गई। इंटरव्यू के दौरान वो नजरें मिलाए रखती हैं, मानो पूछती हों, क्या तुम्हारी रिपोर्ट उन तक भी पहुंचेगी! (पूरी रिपोर्ट पढ़िए)
3. लड़कियां लोहे के दरवाजों में बंद हैं:रात 2 बजे दिन की शुरुआत; बाबा कृष्ण बनकर, लड़कियों को रास रचाने के लिए उकसाता था
इस रिपोर्ट में कोई सिसकी नहीं। कोई डबडबाई आंख यहां नहीं दिखेगी। न कोई चीख मारकर रोएगा, न खतरे गिनाएगा। यहां सिर्फ एक इमारत है। बंद दरवाजे और लड़कियां हैं। दुनिया से कट चुकीं वो लड़कियां, जो यूट्यूब पर 'बाबा' के वीडियो देखकर घर छोड़ आईं और रोहिणी के एक आश्रम में कैद हो गईं। वो कैदखाना, जहां से बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं। (पढ़िए पूरी खबर)
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